॥ श्री: ॥
॥ श्रीमते रामानुजाय नमः ॥
॥ श्रीमद्वरवरमुनयेनमः ॥
मूल व्याख्या – श्रीमान रामनारायणाचार्यजी
श्रीलोकाचार्य स्वामीजी द्वारा रचित “नवरत्न माला” ग्रन्थ है, इस ग्रन्थ में शरणागत मुमुक्षु को इस संसार में रहकर देहयात्रा करते हुये आत्मा का, शरीर का, शरीर सम्बन्धीयों का, संसारी मनुष्य का, देवी देवताओं का, श्रीवैष्णवों का, आचार्य का, अम्माजी और भगवान का चिन्तन ( अनुसन्धान ) कैसे करे इसका उल्लेख किया गया है ।
१. “आत्मा”
शरणागत अपनी आत्मा को देह से अलग रूप में देखें । यह आत्मा सर्वेश्वर भगवान लक्ष्मीपति के ही उपयोग आने योग्य है, भगवान को छोड़कर अन्य किसी का स्मरण, कीर्तन, उपासना आदि के अयोग्य है । आत्मा भगवान के शेष रूप में रहने के कारण अपने उत्कर्ष के लिये स्वतन्त्र रूप से कोई भी कार्य करने का अधिकार नहीं है । इस आत्मा की सभी चेष्टायेँ प्रभु के लिये तथा इसके मुख्य फल भी सर्वेश्वर भगवान ही है । इस प्रकार शरणागत अपनी देहयात्रा करते हुये आत्मा का निरन्तर अनुसन्धान करता रहे ।
२. “शरीर”
शरणागत अपने शरीर को आत्मज्ञान को रोकनेवाला, विपरीत ज्ञान पैदा करने वाला, अनित्य, अनन्त दुःखों का जनक, शब्दादि प्राकृत विषयों में लगाकर स्वरूप नाश करनेवाला, बाल्य यौवनादि अवस्थाओं में परिणत होनेवाला, सदा ही जड़ रहनेवाला, विषय भोगों में रुचि पैदा करके भगवत – भागवत – आचार्य से विमुख करानेवाला, देहात्माभिमान बढ़ानेवाला, अनित्य वस्तुओं में मोह उत्पन्न करनेवाला समझे । इस प्रकार शरणागत अपनी देहयात्रा करते हुये शरीर का निरन्तर अनुसन्धान करता रहे ।
३. “ शरीर सम्बन्धी ”
शरीर सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, माता, पिता, भाई, बहन आदि के मोह में बॅंधकर आत्मा एवं परमात्मा का यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाता, भगवद्विषय की रुचि नष्ट हो जाती, भगवद दर्शन आदि की लालसा भी नहीं हो पाती, देहसम्बन्धीयों के साथ सहवास और संपर्क रहने के कारण देहात्माभिमान और ममता बढ़ जाती है, भगवत – भागवत – आचार्य कैंकर्य से विमुख हो जाते है, स्वरूप बिगड़ जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोहादि उत्पन्न होते हैं । इसलिये शरणागत अपने शरीर सम्बन्धीयों को अनर्थ समझकर अनुसन्धान करे ।
४. “संसारी मनुष्य”
स्त्री, अन्न, पानादि प्राकृत विषयों में आसक्त मनुष्य के संपर्क से भगवदनुभव में बाधा उत्पन्न होती है, विषयानुभव की तरफ मन आकर्षित होता है, धन का उपयोग भगवत कैंकर्य में नहीं होकर सांसारिक विषयों में उपयोग होता है, भगवत प्रसाद त्यागकर राजसी और तामसी अन्न का सेवन होता है, भगवत चर्चा न करते हुये सिर्फ संसारी विषयों की चर्चा होती है । इसलिये शरणागत संसारी मनुष्य को भगवत कैंकर्य विरोधी तथा संसार बढ़ानेवाला समझे ।
५. “देवी – देवता”
रुद्र, इन्द्र, वरुण, यमादि वस्तुतः सर्वप्रथम नहीं हैं, और नहीं उनमें सर्वशक्तिमता ही है, माया से सम्बन्ध होने के कारण इनमें रजोगुण, तमोगुण का उद्रेक संभावित है । सभी देवी – देवता भगवान द्वारा दिये गये अपने – अपने पदों पर आसीन हैं , किन्तु जब उनके ज्ञान का तिरोभाव हो जाता है तो वे अपने को ही सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान मानने लग जाते हैं । काम पड़ने पर भगवान के चरणों में प्रणाम कराते और काम पूरा हो जाने पर थोड़ा भी अपने स्वार्थ का भंग देखकर भगवान से युद्ध करने को उद्यत होते हैं । सीमित फल प्रदान कर उन्हें भ्रम में डालकर परम पुरुषार्थ (मोक्ष) से वंचित करने वाले अन्य सभी देव है, इस दृष्टि से शरणागत देवी – देवताओं को देखें ।
६. “श्रीवैष्णव”
भगवान का यथार्थ ज्ञान करानेवाले, अन्य विषयों से वैराग्य करानेवाले, भगवान में अनुराग बढ़ानेवाले, आत्मा का उज्जीवन करानेवाले ये श्रीवैष्णव हैं । अतः शरणागत श्रीवैष्णवों का अनुसन्धान उक्त रीति से करे ।
७. “आचार्य”
आचार्य करुणामयी दृष्टि से मुझे अत्यन्त शुद्ध बना कर सर्वेश्वर भगवान के स्वीकार करने योग्य बनाया और मुझे भगवान के श्रीचरणों में लगा कर अज्ञात – ज्ञापन, तत्व, हित, पुरुषार्थ का ज्ञान कराया, वे आचार्य मेरे स्वामी हैं । ८४ लाख योनियों में भटकते हुये मुझे अपनाया और जन्म मरण के चक्कर से मुक्त कराया । ऐसे महान उपकारक मेरे आचार्य है । इस प्रकार शरणागत अपने आचार्य का चिन्तन करे ।
८. “अम्माजी”
अनादिकालार्जित मेरे अपराधों को देखकर सर्वस्वतन्त्र भगवान लक्ष्मीकान्त स्वतन्त्रतापूर्वक दंड देने के लिये तैयार हो जाते हैं । उस समय दयामयी माता लक्ष्मी उपदेश के द्वारा भगवान के वात्सल्य, कारुण्य, सौशिल्य आदि गुणों का स्मरण कराकर उनके स्वातंत्र्य का विस्मरण कराती हैं और भगवान के चरणों में मुझे निवेदन करने के लिये सदा ही पुरुषकार स्वरूप हैं, जो जगन्माता, अस्मन्माता तथा एक मात्र स्वामिनी हैं और फलानुभव दशा में भगवान की भाँति नित्य सेव्य हैं । शरणागत इसी प्रकार अम्माजी का स्मरण करता रहे ।
९. “भगवान”
परम दयालु भगवान उद्धार के उपयोगी शरीर प्रदान किया । हमारे अन्दर अद्वेष, आभिमुख्य, सत् – संगति आदि आत्म गुणों को उत्पन्न कर सदाचार्य का सम्बन्ध कराते और भगवत्प्राप्ति विरोधी सारे पापों को क्षमा करते हैं । “ अहं स्मरामि मद् भक्तम् ” के अनुसार स्वयं मुझे स्मरण कर, संसार सम्बन्ध को दूर करके, अर्चिरादि मार्ग से लेजाकर, प्रकृति मण्डल के उस पार विरजा – स्नान करा कर प्रकृति सम्बन्ध छुड़ाकर, दिव्य श्रीवैकुण्ठ धाम में पहुँचाकर, अपना गुणानुभव प्रदान कर, सर्वकाल तथा सर्वावस्था में नित्य कैंकर्य स्वीकार करनेवाले भगवान श्रीमन्नारायण है । इस प्रकार शरणागत को भगवान का सदैव अनुसन्धान करते रहना चाहिये ।
यहाँ पर नवरत्न माला ग्रन्थ का समापन होता है ।
श्री लोकाचार्य स्वामीजी का मंगल हो
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