द्रमिडोपनिषद प्रभाव सर्वस्वम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमदवरवरमुनये नमः

श्री पेरुमाल् कोईल् महामहिमोपध्याय् जगदचार्य सिंहासनधिपती उभय वेदान्ताचार्य प्रतिवादी भयंकर श्री अणंगराचार्य स्वामीजी के कार्य पर आधारित

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श्री रंगनाथन्

परिचयात्मक छंद  

लक्ष्मीकान्त पदारविन्दयुगलौकान्ताप्रमेयादुत
प्रेमाणं शठकोपसुरिमत तत्सुक्तयाब्दिमगनासयम् ।
श्रीमदाष्यकृतम् यतीन्द्रमत तदूयो~वतारायितम्
श्रीमद्रम्यवरोपयन्न्नयामिनम् सन्चिन्तये सन्ततम् ॥

श्री र‍‍‍‍‍ामानुज स्वामीजी नित्य श्री लक्ष्मी अम्माजी के श्री चरणारविन्दोंमेंअद्रूत एवं असीमित प्रीति धारण करते हैं। श्री शठकोप स्वमीजी के दिव्य वचनोंके भवसागर में डूबकर उन्होने श्रीभाष्य की रचना की। मैं उन श्री रामानुज स्वमीजी का तथा उन्के पुनः अवतार श्री वरवरमुनी स्वामीजी का सतत चिंतन करता हूँ।

श्रीमद्वरवरयमिनः कृपया परया प्रबोधितानर्थान् ।
सन्दर्शयन् लिखामि ड्रमिडोपनिशत् प्रभाव सर्वस्वम् ॥

श्री वरवरमुनी स्वामीजी ने अपनी परम कृपा से अवगत कराये उत्कृष्ट अर्थोंकों स्पष्ट रूप से दर्शाने के लिये में   द्िमडोपनिषद प्रभाव सर्वस्व लिखता हूँ ।

प्राधान्येन प्रबन्धेत्विह यतिपतिनाद्रविडाम्नायवाचाम्
साहाय्येनौव भाष्यास्यधनध-कृतार्तिनिर्मितेति प्रसिध्दा ।
वार्ता युक्त्याप्रमाणारपि च सुविशदम् सम्प्रतिष्ठाप्यते भोः
मत्स्यंदूरतो~स्यान् विबुध्जन इदंवीश्य मोमोतुंधन्यः ॥

यह सर्वगत है कि श्री रामनुज स्वमीजी श्री भाष्य तथा और भी ग्रंथोकी रचना करते हुये मुख्य रूपसे द्रविड वेदोंका ही आधार लेते हैं । इस सत्यका स्पष्ट रूप से विक्ष्लेष्ण करने तथा वार्ता, युक्ति प्रमाणोंव्दारा स्थापित करने के लिये और भाग्यवान, संप्रदाय को पढे हुये, मत्सर रहित जनोंकों प्रसन्न करनेके लिये में यह ग्रंथ लिख रहा हुँं ।

दिव्यप्रबन्धेशु न वेदतौल्यं न चापि वेदादधिकत्वमस्ति ।
रामानुजर्यो~पि न तत्ररागीत्येवं लिखन्तः कुध्शो नमन्तु ॥

दिव्य प्रबंध का महत्व कम से कम संस्कूत वेदों जितना तो है ही, और वास्तविकतामें उनसे भी अधिक है, यह सत्य जो कुतर्की लोग समझने में असमर्थ हैं, और जो दावा करते हैं की श्री रामानुज स्वामीजी दिव्य प्रबंधोंमें रुची नहीं रखते थे, वो यह ध्यान देकर पढें।

श्री शठकोप सवामीजी – वेदान्त के सर्वोच्च आचार्य

दिव्य प्रबन्ध आल्वारोंके दिव्य मंगलासन का संग्र्ह है जो लग्भग चार हजार हैं। आल्वारोंके समय के पश्चात कुछ काल तक दिव्य प्रबन्ध लुप्त हो गए थे जो श्री नाथमुनी स्वामीजी द्वारा पुनः प्राप्त किए गए। इसी कारण श्री नाथमुनी स्वामीजी आल्वारोंके पश्चात प्रथम आचार्य माने जाते हैं।

साक्ष्त् श्री शठकोप  स्वामीजी नाथ्मुनी स्वामीजी को दिव्य प्रबन्ध की पुनर्प्रात्ति हुयी, इस के संबन्धित वार्ता गुरुपरंपरा ग्रंथोंमें उप्लब्ध् है। आचर्योंके स्तोत्र ग्रंथोंमें श्री नाथमुनी सवामीजी जो श्री शठकोप स्वामीजी के शिष्य हैं उन्का गुणानुवाद श्री शठकोप स्वामीजी से पूर्व अथवा पक्ष्चात किया जाता है।

श्री वेदान्त देशिक स्वामीजी अपने सम्प्रदाय परिशुध्दि में कहते हैं की कलियुग के प्रारम्भ में श्री शठ्कोप स्वामीजी ही वेदान्त के मुख्य प्रचारक थे।

जैसे कहा है,
प्राप्यंज्ञानंब्राहाणान्क्षत्रियाव्दावैश्याच्छूदाव्दा~पिनीचादभीक्षणम्, आध्यात्मिक ज्ञान जाति की परवाह किए बगौ किसी भी व्यक्ति से प्राप्त किया जासकता है। कोई एक ब्राह्म्ण है परन्तु उसे वेदान्त यथार्थ भाव पता नहीं है, ऐसे व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त करना व्यर्थ है। अतः श्री शठकोप स्वमीजी वेदान्त परंपरा का नेतृत्व करने के लिए योग्य हैं।

यह श्री मधुरकवी आलवार के वचनोंसे स्पष्ट होता है की उनके ह्रुदय के गहराई में श्री शठकोप स्वामीजी ने अपने प्रबंधोंसे वेदोंका गहरा भाव स्थापित कर दिया मिक्क वेदियर वेदततिन उठपोरल निर्क पाडि एन नेंजुल निरुतिनान

दिव्य प्रबन्ध के भाषा के आधार पर विरोध नहीं किया जा सकता क्योंकी वेदान्तार्तवैचत्यहेतुवाकैयालेमाक्षानंदर्मउपजिव्यम

मात्र संस्कृत में लिखे होने के कारण हम सब कुछ स्वीकार नहीं कर सकते। बहुत संस्कृत ग्रंथ ऐसे हैं जो वेदान्त का विरोध करते हैं और उन्हे हमे त्यागना ही चहिए। दुसरी ओर दव्य प्रबंध तमिल में होते हुये भी उनका हमे स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वो वेदान्त का सभी क्षेत्र के लोगों के लिए उचित रूप से विक्ष्लेषण करते हैं। जाति तथा भाषा के आधार पर उग्रता से होनेवाले वाद विवाद विरोध का इस प्रकार निराकरण किया जाता है।

कोई स्वप्रयन्न से भगवान को नहीं जान सकता है। शास्त्र स्पष्ट रूप से केहता है, नायमात्माप्रवचनेनलभयः …

जिसपर भगवान की कृपा होजाय और दिव्य द्रिष्टि प्राप्त होजाय, केवल वही भगवान को जान सकता है। यह श्री शठकोप स्वामीजी के विषय में भी यथार्थ है। उनके अपने वचन मयरवर मदि नलम अरूलिनन इसे बताते हैं। श्री अझ्गीय मणवाल पेरुमाल नयनार स्वामीजी आचार्य ह्रुदय ग्रंथ में अपने सूत्र में यह बताते हैं अवनवलञगुमं दिवयचक्षुस्साले

भगवान का ज्ञान, भगवदेतर सभी वस्तुओंके प्रति वैराग्य, और भगवान की प्रेममय भक्तियह सभी स्वप्रयत्न से ऋषि, मुनी, देवताओंने संकलित किया है। इस कारण उनके इन गुणोंमें परिपूर्णता नहीं है। श्री शठकोप स्वामीजी को भगवान की कृपा से यह सभी गुण परिपुर्ण रूपमें प्राप्त होगये हैं। इसी कारण, श्री शठकोप स्वामीजी वेदान्त के सर्वोच्च आचार्य हैं।

श्री यामुनाचार्य स्वामीजी श्री श्ठकोप स्वामीजी को आघः औरनःकुलपतिः इस प्रकार से संबोधित करते हैं। वे वेदांतियोंके प्रथम आचार्य हैं और वो उनके मार्गदर्शक भी हैं।

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