यतिराज विंशति – 2

श्री रङ्गराज चरणाम्बुज राजहंसं श्रीमत्परांकुश पदाम्बुज भृंगराजम् ।
श्रीभट्टनाथ परकाल मुखाब्जमित्रं श्री वत्सचिह्नशरणं यतिराजमीड़े ॥ २ ॥

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श्री रङ्गनाथ भगवान

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श्री रङ्गराज चरणाम्बुज राजहंसं            : श्री रङ्गनाथ भगवान के चरणकमलों                       के राजहंस
श्रीमत्परांकुश पदाम्बुज भृंगराजम्    : श्रीशठकोपमुनि के चरणकमलोंके भ्रमर
श्रीभट्टनाथ परकाल मुखाब्जमित्रं     : श्री विष्णुचित्त श्री परकाल आदि                                                   आल्वारोंके मुख कमल खिलानेवाले सूर्य
श्री वत्सचिह्नशरणं                             : श्रीवत्सचिह्नमिश्र के आश्रयभूत
यतिराजम्                                        : श्री रामानुज मुनि की
ईडे                                                    : स्तुति करता हूँ

पिछले श्लोक में नतमस्तक होकर प्रणाम करने की बात कही गई। इस श्लोक में वाणी को सफल करने के लिए स्तुति करने की बात कही गई है। श्रीरामानुज मुनि की उपमा राजहंस एवं भ्रमर को संदेशवाहक बताया है। यहाँ पर आचार्य श्रीरामानुज को वही उपमा दी गई है।

श्रीरंगराज चरणाम्बुज राजहंसम् – जैसा कि जीवनवृत से ज्ञात होता है आचार्य श्रीरामानुज का श्रीरंगनाथ भगवान के प्रति विशेष अनुराग था। साथ ही श्रीरंगनाथ ने भी शरीर रहते तक श्रीरंगनगर में निवास करने का आदेश दे कर अपना विशेष अनुग्रह प्रदर्शित किया था। जिस प्रकार राजहंस कमल के समीप निवास करता है उसी प्रकार यतिराज श्रीरंगनाथ भगवान के चरणों में निवास करते थे। राजहंस के सारे गुण यतिराज में मिलते है। जिस प्रकार हंस दूध और जल को अलग – अलग करने की शक्ति रखता है , उसी प्रकार यतिराज में सार एवं असार को पृथक़् –पृथक़् करने की शक्ति है। हंसावतार भगवान ने वेदों का उपदेश दिया , यतिराज भी शिष्यों को उपदेश देते थे। राजहंस कीचड़ से प्रेम नहीं करता , उसी प्रकार परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीरामानुज का संसार से प्रेम नहीं था। हंस स्त्रियों का अनुकरण करता है। यतिराज ने चेतन जीवों के पुरषकार भी अपेक्षित है। श्रीवेदान्तदेशिक स्वामीजी ने ‘दते रंगी निजमपि पदं देशिकादेशकांक्षी’  कहकर इसको बतलाया है।

श्रीमत्परांकुश पदाम्बुज भृंगराजम् – पिछले श्लोक में ‘ परांकुशपादभक्त ’ कहकर स्वरूपयुक्त दास्य का निर्देश किया गया था। इस श्लोक में गुणप्रयुक्त दास्य का उल्लेख किया गया था। कमल की मधुरिमा से भ्रमर आकर्षित होता है। उसी प्रकार आलवार श्रीशठकोप के चरणों को अमृतप्रापकत्व समझ कर यतिराज उधर आकर्षित हुए। भ्रमर चंचरीक है। वह एक स्थान पर ही सीमित नहीं रहता। उसी प्रकार यतिराज भी विभिन्न दिव्यदेशों में उपस्थित हो कर भगवान का अनुभव किया करते थे। श्री शठकोप के पद्यों को भी परांकुश पद कहा जा सकता है। अतः पद से सहस्त्रगीति का संकेत मानने पर यह अर्थ निकलता है कि श्रीशठकोप की सूक्तियों में भगवत्सम्बन्धी जो माधुर्य है उसको यतिराज भ्रमर की तरह ग्रहण करते हैं।

श्रीभट्टनाथ परकाल मुखाब्जमित्रम् – आलवार श्रीविष्णुचित एवं आलवार श्रीपरकाल के मुख कमल को विकसित करनेवाले सूर्य कहने का तात्पर्य यह है की जिस प्रकार श्रीविष्णुचित ने श्रीमन्नारायण का परत्व स्थापित किया उसी प्रकार उसी मार्ग से श्रीरामानुज ने परतत्व की सिद्धि की। श्रीपरकाल स्वामीजी ने मन्दिर, गोपुर, मण्डप आदि निर्माण कर दिव्यादेशों की सेवा की। श्रीरामानुज भी वही करते हैं जिससे परकाल संतुष्ट होते हैं। यहाँ पर ‘मुख’ शब्द से यह भाव भी निकलता है कि श्रीविष्णुचित्त एवं श्रीपरकाल स्वामीजी जिन आलवारों में प्रमुख हैं उन सभी आलवार रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य श्रीरामानुज हैं।

श्रीवत्सचिह्न शरणम् – श्रीभाष्यकार की शिष्य मण्डली में श्रीवत्सचिह्नमिश्र के सम्बन्ध में विशेष रुप से इस विशेषण का वर्णन क्यों किया गया है ? वस्तुतः उनमें यतिराज के प्रति विशेष प्रेम था जिसके फलस्वरूप उनको यतिराज का चरण स्थानीय माना जाता है। शिष्य दाशरथि में भी यह विशेषता थी। श्रीमद्वरवरमुनि ने यहाँ पर उनका उल्लेख किया है। ‘चरणं’ यह भी पाठ है ॥ २ ॥

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