श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनयेनमः
श्रीवानाचलमहामुनयेनमः
श्रीवादिभीकरमहागुरुवेनमः
श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-english/ यहाँ पर हिन्दी में देखे सकते है ।
1. स्वर्गत्तूक्कु संसारम विरोधि – स्वर्ग के सुःख की इच्छा रखानेवालों के लिये यह संसार बाधा के रूप में प्रतिपादित होता हैं ।
सामान्यतः देवताओं के लोक को स्वर्ग कहा जाता है । इन्द्र के लोक को स्वर्ग कहते है । स्वर्ग में अनेक प्रकार के सुख भोगने को मिलते है जो की इस पृथ्वी पर उपलब्ध नहीं है। लेकिन स्वर्ग के मार्ग में बढ़ने के लिये अनेक प्रकार की तपस्या करना पड़ता है । यहाँ पर संसार का अर्थ होता है अपने कर्मों के परिणाम अनुसार इस पृथ्वी पर जीवन व्यतीत करना । तपस्या करने के लिये इस संसार से अनेक प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है । अपना शरीर, शरीर संबंधी, धन, दौलत इत्यादि तपस्या में बाधा उत्पन्न करने के कारण इनसे दूर होना पड़ता है ।
सांसारिक सुःख – स्वर्ग के लिये बाधा
अनुवादक टिप्पणी : “ ज्योतिष्टोमैन स्वर्ग कामो यजेत ” इसके अनुसार जो स्वर्ग जाने की इच्छा करता है उसे ज्योतिष्टोमम नामक यज्ञ करना पड़ता है जिसे विशेष रूप से तपस्या करने की जरूरत है ।
2.स्वर्गेच्छुवुक्कु ऐहिक सुःखम विरोधी – जो स्वर्ग के सुःख की इच्छा रखते है उनके लिये इस संसार के सुःख बाधाओं के रूप में प्रतिपादित होते है ।
पिछले वाक्य के जैसे, जो स्वर्ग के सुःख की इच्छा रखते है उनके लिये इस संसार के सुःख बाधाओं के रूप में प्रतिपादित होते है । इस संसार के सुःख में बहुत जादा लगाव रहने के कारण स्वर्ग के सुःख में पाबंदी आ जाती है ।
अनुवादक टिप्पणी : यहाँ पर एक प्रश्न उठता है, स्वर्गानुभव का उल्लेख क्यों किया गया है ? प्रपन्न श्रीवैष्णवों के लिये यह कैसे संबंधित है ? विभिन्न बाधायेँ प्रगतिशील होती रहती है, इसे समझने के लिये बताया गया है । यहाँ पर प्रारम्भ में स्वर्ग के सुःख से लेकर भागवतों के कैंकर्य तक किस प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है इसका उल्लेख किया गया है ।
3 . आत्मानुभवत्तुक्कु स्वर्गानुभवम विरोधी – अपनी आत्मा का आनन्द लेने के लिये स्वर्ग के सुःख बाधाओं के रूप में प्रतिपादित होते है ।
स्वर्ग के सुःख – आत्मानुभव में बाधा
आत्मानुभव एक प्रकार का मोक्ष है जिसे कैवल्य कहते है । बिरजा नदी के उस पार है जहाँ भौतिक शरीर से मुक्त होकर पूर्ण रूप से आत्मा का अनुभव करते है, भगवान के अनुभव से वंचित रहते है । कैवल्य के अधिकारी बनने के बाद इस लीला विभूति में पुनः आगमन नहीं होता है इसलिये इसे एक प्रकार का मोक्ष कहते है । “क्षीणे पुण्ये मृत्युलोक विशन्ती” के अनुसार स्वर्ग का सुःख अनित्य है जब तक अपने कर्मों का फल रहता है तब तक स्वर्ग के सुःखों का अनुभव लेते है, अपने कर्मों का फल समाप्त होते ही पुनः इस संसार में आगमन हो जाता है ।
4. आत्मानुभवकामनुक्कू स्वर्गम विरोधी – जो अपने आत्मा का अनुभव करना चाहता है उसे स्वर्ग के सुःख बाधाओं के रूप में प्रतिपादित होते है ।
पिछले वाक्य के विवरण को देखें ।
5.भगवत अनुभवत्तुक्कु आत्मानुभवम विरोधी – अपनी आत्मा का अनुभव भगवान के अनुभव में बाधाओं के प्रतिपादित होता है ।
अपने आत्मा का आनन्द – भगवद अनुभव में बाधा
भगवद अनुभव याने भगवान के दिव्य गुणों को, सुन्दर रूप को, उभय विभूति के ऐश्वर्य को ( दोनों विभूतियों को नियंत्रित करने की क्षमता ) देखते हुये हर्षित होना । हर्षित होने के साथ – साथ भगवान में प्रेम और लगाव बढ़ता है । प्रेममय लगाव के कारण भगवान के कैंकर्य में रुचि बढ़ती है । इसतरह प्रेममय कैंकर्य से अनन्त आनन्द में बढ़ावा मिलता है । इस असीमित अनन्त आनन्द को परमपद में मोक्ष कहा गया है । भगवद अनुभव के आनन्द के सामने अपने आत्मा का आनन्द तुच्छ है, इसलिये आत्मानुभव भगवत अनुभव में बाधा के रूप में प्रतिपादित होता है ।
अनुवादक टिप्पणी : सामान्यतः जीवात्मा ज्ञानमय और आनन्दमय होता है। इसलिये आत्मा का आनन्द लेना स्वाभाविक होता है और आत्मा का स्वरूप अणु रूप में है । परन्तु भगवान का स्वरूप विभु ( व्यापक ) है और भगवान का ज्ञान और आनन्द असीमित है । भगवान के सामने जीवात्मा ज्ञान और आनन्द तुच्छ है ।
6.भगवत अनुभवकामनुक्कु आत्मानुभव इच्छा विरोधी – भगवान का अनुभव करनेवालों के लिये आत्मानुभव बाधाओं के रूप में प्रतिपादित होता है ।
पिछले वाक्य के विवरण को देखें ।
7.गुणनिष्टनुक्कु गुणी विरोधी – भगवान के दिव्य गुणों पर ध्यान केन्द्रित करनेवालों के लिये भगवत स्वरूप बाधा के रूप में प्रतिपादित होता है ।
भगवत स्वरूप का आनन्द – भगवत कल्याण गुण अनुभव में बाधा है
गुणनिष्ठन – “ सदा परगुणविष्ठ ”, के अनुसार जो निरन्तर भगवान के दिव्य गुणों का आनन्द लेने में मग्न है । श्रुति के प्रमाण अनुसार “ सौस्नुत्ते ” याने जीवात्मा भगवान और भगवान के दिव्य गुणों का आनन्द लेते हुये भगवान के दिव्य रूपों का भी अनुभव करते है । “रसौवै सः” याने मिठास को साक्षात करते है । इसका अनुभव करते हुये मुक्तात्मा परमानन्द का अनुभव करता है ।
तिरुविरुत्तम के ९८ वें पाशूर में “नेंजाई नीनैप्परीताल वेणणेयूणेन्नुम ईरच चोल्लै ” और तिरुवायमोली के १.३.१ पाशूर में “एत्तिराम उरलीणोडु इणैन्तीरुन्तेङ्गीय एलिवै ” भगवान अपने दिव्य गतिविधियों से अपने दिव्य गुणों को दर्शाते है । भगवान के गुणों को शठकोप स्वामीजी के अनुभव से समझ सकते है ।
पेरीय तिरुवंतादी के ८६ वें पाशूर में कहते है “चीर कलंत चोल ” याने भगवान के दिव्य गुणों से भीगे हुये शब्द ।
गुणी याने भगवान का दिव्य स्वरूप ( जिसमें गुण है उसे गुणी कहते है )। योगियों के लिये भी भगवत स्वरूप को जानना अत्यन्त कठीन है । भगवान के गुणों का अनुभव करने के लिये भगवत स्वरूप बाधा के रूप में प्रतिपादित होता है ।
8.कैंकर्यनिष्ठानुक्कु भगवत सौंदर्यम विरोधी – भगवान के कैंकर्य करनेवालों के लिये भगवान का सौन्दर्य बाधा के रूप में प्रतिपादित होता है ।
भगवान के सौन्दर्य पर ध्यान केंद्रीत करना – कैंकर्य करने के लिये बाधा है
कैंकर्यनिष्ठर – लक्ष्मणजी कहते है “अहं सर्वम करीशष्यामी ” ( मै आपके लिये सब कुछ करुगाँ ), जो पूरी तरह से हर संभव तरीके से हर समय भगवान पर ध्यान केंद्रित करते है । भगवान के सौन्दर्य का अनुभव करने लगेगें तो हमारी दृष्टि और ध्यान स्थिर होकर स्तब्ध हो जायेगा । जिससे भगवान के कैंकर्य में रुकावट होगी । पिल्लै लोकाचार्य मुमुक्षुप्पड़ी के 187 सूत्र में कहते है “सौन्दर्यम अंतरायम ” याने भगवान की सौंदर्यता बाधा होती है । भगवान स्वामी है और जीवात्मा उनका सेवक है । भगवान के दिव्य गुणों का अनुभव करते हुये भगवान के प्रति जीवात्मा का लगाव बढ़ता है और ऐसे गौरवशाली भगवान की सेवा करने की इच्छा को विकसित करता है । यह जीवात्मा के शेषत्व के अनुरूप और वांछनीय है । भगवान की सौंदर्यता पर अपना ध्यान केंद्रीकृत करने से कैंकर्य नहीं हो पाता । इस प्रकार भगवान के कैंकर्य करनेवालों के लिये भगवान की सौंदर्यता बाधा के रूप में प्रतिपादित होती है ।
9. भागवत कैंकर्य निष्ठानुक्कु भगवत कैंकर्यम विरोधी – भागवत कैंकर्य करनेवालों के लिये भगवत कैंकर्य बाधा के रूप में प्रतिपादित होता है ।
भागवत कैंकर्य पर केंद्रीकृत करना – भगवत कैंकर्य बाधा है
जीवात्मा का स्वाभाविक स्वरूप है भगवत दासत्वम ( भगवान का सेवक होकर रहना ) और भगवान के लिये निपटान ( disposal ) होकर रहना । यह प्रथम पर्व है और इससे बढ़कर चरम पर्व है जिसमें भागवत शेषत्व ( भागवतों के सेवक होकर रहना ) बताया गया है ।
पेरीय तिरुमोली ८.१०.३ में परकाल स्वामीजी अष्टाक्षर मंत्र के सार को बताते हुये भगवान को कहते है “निन तिरुवेट्टेलुत्तूम कर्रु नान उर्रातुम उन्नदियार्क्कदिमै कण्णपुरत्तुरैयम्मानै ” , हे तिरुक्कण्णपुरम के भगवान, अष्टाक्षर मंत्र के सार को जानने के बाद समझ गया हूँ की मै आपके भक्तों का दास हूँ ।
भक्तिसार स्वामीजी नान्मुगन तिरुवन्तादी के १८ वें पाशूर में कहते है “ एत्तियीरुप्पारै वेल्लुमै मर्रावरैच चात्तियीरूप्पर तवं ” – भक्तों के प्रति की गयी भक्ति भगवान के प्रति की गयी भक्ति से भी बढकर है। एत्तियिरूप्पावर – भगवत शेष भूतर – जो भगवान की शरणागति किया है । जो ऐसे भागवतों की शरण ग्रहण करता है वह अत्यन्त श्रेष्ठ है ।
रामायण में लक्ष्मणजी और भरतजी पूर्ण रूप से श्रीरामजी के दास होकर रहे, शत्रुघ्नजी भरतजी के दास होकर रहे । अपने पूर्वाचार्य बताते है “ शत्रुघ्नजी पूर्ण रूप से भगवान श्रीराम के गुण, सौन्दर्य आदि गुणों को उपेक्षित करके पूर्ण रूप से भरतजी की सेवा करते थे ”।
तिरुवायमोली ८.१०.३ में शठकोप स्वामीजी कहते है “ अवनडीयार सीरूमामनीसराय एन्नैयाण्डार ” । सीरूमामनीसर – जो पूर्ण रूप से भगवान के शरणागत होकर रहते है, आकार में छोटे है लेकिन व्यवहार और ज्ञान में विख्यात है । ऐसे भक्त लोग विद्यमान है तो उनको छोड़कर आपके श्रीचरणों की सेवा कैसे करेगें ?
वास्तविक रूप से भागवत कैंकर्य भगवत कैंकर्य से भी ज्यादा महत्वपूर्ण और विशेष है । इस प्रकार भागवत कैंकर्य करनेवालों के लिये भगवत कैंकर्य बाधा के रूप में प्रतिपादित होता है ।
हम अगले लेख में अगले भाग के साथ विवरण देखेगें ।
अड़ियन श्रीराम रामानुजदास श्रीवैष्णवदास
आधार: https://granthams.koyil.org/2013/12/virodhi-pariharangal-1/
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