श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवर मुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः
श्री वररंगाचार्य स्वामीजी (श्री तिरुवरंगथु अमूधनार) श्री रामानुज नूट्रन्दादि के २५ वे पाशूर में श्री रामानुज स्वामीजी का वैभव का वर्णन “कारेय करुणै इरामानुश:”इस प्रकार करते हैं।यहाँ श्री रामानुज स्वामीजी को मेघ की उपमा दि गई है।मेघमें उदारता का गुण होता है:
- मेघ समुद्र से जल खींचकर धरती पर बरसाते हैं (किसी की प्रार्थना के बिना)।
- मेघ बरसते समय सबपर एकसमान बरसते हैं। सद्गुण-दुर्गुण, अमीर-गरीब,
योग्य अयोग्य का भेदभाव न करते हुये ही वे बरसते हैं।
- मेघोंका कृष्णवर्ण उनका जल से परिपूर्ण होना और उदारता से सभीपर बरसने को तैयार होना दर्शाता है।
उसी तरह, श्री रामानुज स्वामीजी भी शास्त्रोंसे सारतम ज्ञान खींचते हैं और योग्य अयोग्य का भेदभाव न करते हुये सभी को वितरित करते हैं। जीवात्मा का उद्धार यह एक ही लक्ष्य पे वो परिपूर्ण रूप से केन्द्रित थे। श्री वचनभूषण मेंश्री पिल्लै लोकाचार्य स्वामीजीने बहोत सुंदरता से श्री विष्णुचित्त स्वामीजी और श्री रामानुज स्वामीजी के दिव्य गुणोंका प्रकाश किया है, जिनका वर्णन आगे है। भगवान के मंगलशासन करनेका (भगवान के लिए मंगल कामना करनेका) महत्त्व समझाते हुये श्री पिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्री विष्णुचित्त आल्वार स्वामीजी के वैभव का विशेष रूप से वर्णन करते हैं। श्री विष्णुचित्त स्वामीजी ने हर समय भगवान का मंगलशासन ही किया। सूत्र २५५ में श्री रामानुज स्वामीजी और श्री विष्णुचित्त स्वामीजी का विशेष वर्णन भगवान के मंगलशासन के संबंध में आया है।
अल्लातवर्कळैप् पोले केट्किऱवर्कळुडैयवुम्, चोल्लुकिऱवर्गळुडैयवुम् तनिमैयैत् तविर्क्कैयन्ऱिक्के, आळुमाळार् एन्गिऱवनुडैय तनिमैयैत् तविर्क्कैक्कायिऱ्ऱु भाश्यकाररुम् इवरुम् उपतेचिप्पतु भाव:श्री विष्णुचित्त स्वामीजी और श्री रामानुज स्वामीजी ने अपने शिष्योंकों भगवान का कैंकर्य भगवान श्री वरवरमुनी स्वामीजी अपने व्याख्यान में सुंदरतासे निम्नलिखित मुद्दोंकों दर्शाते हैं
- जीवात्माओंकों यथार्थ ज्ञान प्रदान करना तथा उनका उज्जीवन करना इसीपर आल्वार/आचार्योंने अपना लक्ष्य केन्द्रित किया।
- वो भी नित्य सत्संग की चाहना करते थे जिससे वो अपने शिष्योंके शुभ गुणोंकों विकसित कर सकें जिससे वो इस संसार में एक दूसरे के भगवान के मार्ग में सहयोगी बन सकें।
- परन्तु श्री विष्णुचित्त स्वामीजी तथा श्री रामानुज स्वामीजी का भगवान के दिव्य विग्रह और उनकी सुंदरताके मंगलकामना में ध्यान केन्द्रित था। अत: वे सदा भगवान के लिए चिंतित रहते थे।
- श्री रामानुज स्वामीजी एक सामान्य व्यक्ति नहीं हैं परन्तु एक ऐसे आचार्य हैं जिन्होने श्रीभाष्य के माध्यम से वेदान्त के सिद्धांतोंकों दृढ रूप से स्थापित किया। इस वैभव को प्रकाशित करने के लिए श्री पिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी ने श्री रामानुज स्वामीजी के लिए “भाष्यकार” उपाधि का मुख्य रूप से उपयोग किया ऐसा श्री वरवरमुनी स्वामीजी दर्शाते हैं। (इस प्रकार हम समझ सकते हैं की वेदान्त का सार मंगलाशासन ही है।)
“आचार्य हृदय” ग्रंथ चूर्णिका २०४ में अझगीय मणवाल पेरुमाल नायनार स्वामीजी श्री सीताजी (श्री महालक्ष्मीजी), श्री प्रह्लादजी, श्री विभीषणजी, श्री शठकोप स्वामीजी, श्री रामानुज स्वामीजी के कृपापूर्ण स्वभाव का का वर्णन करते हैं। ताय्क्कुम् मगनुक्कुम् तम्बिक्कुम् इवर्क्कुम् इवरडि पणिण्तवर्क्कुमे इवैयुळ्ळतु भाव: माँ (सीता), पुत्र (प्रह्लाद जो हिरण्यकश्यपु के पुत्र हैं),अनुज (विभीषण जो रावण के अनुज हैं), वो (यहाँ श्री शठकोप स्वामीजी का भाव है)और वो जो उनको समर्पित हैं (श्री रामानुज स्वामीजी जो श्री शठकोप स्वामीजी को समर्पित हैं)इन्हिमें यह दिव्य गुण हैं। श्री वरवरमुनी स्वामीजी अपने व्याखान में विस्तृत वर्णन करते हैं।
- वो दिव्य गुण हैं:
- संबंध ज्ञान– इस लीला विभूति का तथा श्री त्रिपाद विभूति के प्रत्येक जीवात्मा का भगवान के साथ एक समान संबंध है। मुख्य रूप से पिता-पुत्र संबंध और शेष-शेषी संबंध। अंतर इतनाही है की किसी जीवात्माको उस संबंध का ज्ञान होता है और किसी को नहीं।
- जीवात्मा के अपचारोंकों न सहना –अज्ञान के कारण जीवात्मा ऐसे अनेक कार्य करते हैं जो उनके स्वरूप के अनुरूप नहीं होते।
- परम कृपावान –ऐसे जीवात्माओंकों भौतिकता में लगने के कारण भगवान भी त्याग देते हैं। परन्तु ये परम कृपावान विभूतियाँ ऐसे जीवात्मा की भी सहायता करते हैं और उनका भगवान के साथ का संबंध पुनर्प्रस्थापित करते है।
- श्री सीता अम्माजी इतनी कृपावान हैं की जिस रावण को उनके प्रति गलत भावना थी उस रावण को भी उपदेश देती हैं। श्री सीता अम्माजी, सारे विश्व की जननी, कृपा के वश रावण के अपचारोंकों दुर्लक्षित करती है, जैसे एक माँ अपने कुपुत्र के अपचारोंकों दुर्लक्षित करती है। वो रावण को यह भी उपदेश देती है की श्री राम से मित्रता करलो और अपने आप को विनाश से बचालो।
- श्री प्रह्लाद महाराज अपने पिता, जिसने उन्हे विष्णु भक्त होने के कारण अनेक कष्ट दिये,उनको भी उपदेश दिया। उन्होने अपने गुरुकुल के सहपाठी असुर पुत्रोंकों भी भक्ति के तत्त्वोंकी शिक्षा दी जबकी उन असुर पुत्रोंका यह ज्ञान प्राप्त करनेका कोई उद्देश्य भी नहीं था।
- श्री विभीषणजी ने रावण से अनेक बार अपमानित होकर भी उसे उचित सलाह दिये। वो नित्य अपने भाई के उज्जीवन के लिए चिंतित रहते थे और उनको परिवर्तित करनेके की इच्छा धारण करते थे।
- श्री शठकोप स्वामीजी ने कृपा के वश जीवात्माओंकों उपदेश दिया जो नित्य भौतिक कार्योंमे ही लगे हुये हैं और भगवत विषय में यत्किंचित भी रुचि नहीं रखते है।
- श्री रामानुज स्वामीजी (जो श्री शठकोप स्वामीजी के श्री चरणारविंद हैं) ने बहोत कष्ट उठाकर शास्त्रोंका परम गुह्य सारतम प्राप्त किया और जिनको जाननेकी रुचि है उन सबको उनकी पात्रता जाने बिना ऐसेही प्रदान कर दिया। उन्होने अपने बहोत शिष्योंकों आचार्य रूप में प्रस्थापित किया और आदेश दिया की यह अमूल्य ज्ञान सभी इच्छुकोंकों ऐसेही प्रदान किया जाय।
श्री रामानुज स्वामीजी के दिव्य वैभव का विशद वर्णन चरमोपाय निर्णय ग्रंथमें है (https://granthams.koyil.org/charamopaya-nirnayam-english/)–श्री नायनाराचान पिल्लै उपदेश रत्तिनमालै में श्री वरवरमुनी स्वामीजी श्री रामानुज स्वामीजी के मुख्य गुण को प्रकाशित करते हैं जिससे उनको बहोत सराहना प्राप्त हुयी। उसका थोड़ा स्वाद यहाँ अनुभव करते हैं। पाशूर ३७ में श्री रामानुज स्वामीजी और उनके पूर्व आचार्योंमें क्या अन्तर है उसको श्री वरवरमुनी स्वामीजी प्रकाशित करते हैं। भाव:श्री रामानुज स्वामीजी से पूर्व आचार्य दिव्य ज्ञान प्रदान करनेमें अति चयनशील थे।वो शिष्य की पात्रता की पूर्ण परीक्षा करते थे, उनसे सेवा लेते थे, और फिर जब संतुष्टी हो तब ही वो उनको दिव्य ज्ञान प्रदान करते थे। परंतु शिष्योंके ज्ञान प्राप्ति के लिए इतने कष्ट को देखके श्री रामानुज स्वामीजी ने भगवद विषय का सभी इच्छुकोंकों ज्ञान मिलना चाहिए इस उद्देश्य से अपने शिष्योंसे ७४ आचार्य पीठोंकी स्थापना की और उन्हे आदेश दिया की यह दिव्य ज्ञान सभी को ऐसेही प्रदान किया जाय जिन्हे यह ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा हो। उन्होने स्वत: भी बहोत बार बिना पात्रता देखे केवल इच्छा देख कर यह दिव्य ज्ञान बहोतोंकों सिखाया और इसका आदर्श स्थापित किया। श्री रामानुज स्वामीजी से पूर्व सभी आचार्य “अनुवृत्ति प्रसन्नचार्य” कहलाते हैं परंतु श्री रामानुज स्वामीजी “कृपामात्र प्रसन्नाचार्य” हैं जो अपने कृपा से शिष्योंकों दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं, पात्रता देखकर नहीं। श्री रामानुज स्वामीजी से ही यह “कृपामात्र प्रसन्नाचार्य” परम्परा का प्रारंभ हुआ। अडियेन श्रीराम रामानुज श्रीवैष्णवदास Source: https://granthams.koyil.org/2013/05/unlimited-mercy-of-sri-ramanuja/