प्रपन्नामृत – अध्याय ३६
श्रीरामानुजाचार्य की तीर्थयात्रा
🔹रामानुजाचार्य का दृढव्रत देखकर जगन्नाथ भगवान ने सोचा की अगर सेवा पद्धति बदलदी गयी तो मेरे आश्रित यह अर्चक वृत्तिहीन होकर कष्ट भोगेंगे।
🔹उसी रात्रिमें भगवान ने रामानुजाचार्य को निद्रा में ही जगन्नाथपुरी से दूर कूर्मस्थलमें पहुँचाया।
🔹यतिराज विस्मित हुये परंतु कुर्मनायक भगवान की आज्ञा से वहाँ बिराजे और अनेकोंको समाश्रित कर उस स्थान के कीर्ति को भी बढ़ाया।
🔹तदनन्तर रामानुजाचार्य सिंहाचल, गरुडगिरी, अहोबिल क्षेत्र आदि की यात्रा करके वेंकटाचल पधारें।
🔹उस समय वेंकटाचलमें कलह चल रहा था।
🔹कुछ लोगोनें आक्रमण द्वारा भगवान को शंखचक्र रहित करदिया और दावा किया की यह कार्तिकेय के विग्रह हैं।
🔹रामानुजाचार्य नें कहा की विष्णु भगवान के शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि आयुध-चिह्न और साथमें शिवजी के त्रिशूल डमरु आयुध-चिह्न गर्भगृहमें रखकर मंदिर के कपाट बंद किये जाय।
🔹अगर विष्णु भगवान के चिह्न धारण करते हैं तो वें वेंकटेश्वर विष्णु हैं और अगर शिवजी के चिह्न धारण करें तो वें कार्तिकेय हैं। अत: उनको अपना निर्णय स्वयं करने दिजीये ऐसा रामानुजाचार्य नें बताया।
🔹वैसा करनेपर प्रात: देखा गया की भगवान ने शंख-चक्र आदि ही धारण किये हैं।
🔹यह निर्णय होने के बाद रामानुजाचार्य ने भगवान के वक्षस्थलपर स्वर्ण की लक्ष्मीजी की स्थापना की।
🔹रामानुजाचार्य नें अपनी पुत्री रुपी लक्ष्मीजी को भगवान को अर्पण किया इसलिये व्यंकटेश श्वशुर कहलाये और भगवान को शंख चक्र प्रदान किया इसलिये व्यंकटेश भगवान के आचार्य कहलाये।
🔹फिर काँची, मधुरांतक, वीरनारायणपुर होकर श्रीरंगम् आ गये।
🔹वीरनारायणपुर में नाथमुनि स्वामीजी की योगभूमि है।
🔹इसप्रकार रामानुजाचार्य नें भारत की प्रदक्षिणा की।