प्रपन्नामृत – अध्याय ४०
धनुर्धरदास पर यतिराज की कृपा
🔹निचुलापुरीमें धनुर्धरदास नामक एक बलशाली विशाल सुदृढ शरीरवाला तथा मल्लविद्यामें निपुण पहलवान रहता था।
🔹धनुर्धरदास एक हेमाम्बा नामक युवती के प्रेममें आसक्त होकर उसके सुन्दर विशाल नेत्र निहारनेमें मग्न रहता था।
🔹एकबार श्रीरंगममें रंगनाथ भगवानका ब्रह्मोत्सव के दर्शन करने हेतु हेमाम्बा आयी हुयी थी।
🔹धनुर्धरदास हेमाम्बा के आगे आगे उसपर छाता लगाकर स्वयं उल्टे पावोंसे निरंतर उनके मुख की ओर देखते हुये चल रहे थे।
🔹वें एकाग्रता के कारण मार्ग में ठोकर लगनेपर भी विचलित नही होते थे।
🔹यतिराज को यह विचित्र दृष्य देखकर धनुर्धरदास के निर्लज्जतापर क्रोध आया तथा करुणा भी जागृत हुयी।
🔹 यतिराजने निर्धार किया की इस को हम अवश्य श्री रंगनाथ भगवान को सम्मुख करेंगे।
🔹यतिराज ने धनुर्धरदास को मठमें बुलाकर पुछा, “भगवान के उत्सव के समय तुम्हारी यह निर्लज्जता कहाँतक शोभास्पद है?”
🔹धनुर्धरदास लज्जित होकर विनम्रता से बोले, “मैं कामातुर नही हुँ परंतु सौंदर्य प्रेमी अवश्य हुँ। हेमाम्बा के सुंदर नेत्रोंमे मेरा मन निमग्न रहता है अत: मैं निरंतर इन नेत्रोंकी रक्षा करता रहता हुँ और इनके सौंदर्य का पान करता रहता हुँ।”
🔹”इसके अतिरिक्त मेरे मनमें और कोई वासना नही है।”
🔹धनुर्धरदासके विनययुक्त वचनोंको सुनकर यतिराज ने कहा, “इन नेत्रोंसे भी सुंदर और विशाल नेत्र श्री रंगनाथ भगवान के हैं, उनके दर्शन मैं तुम्हे कराउंगा”
🔹धनुर्धरदास बोले, “अगर ऐसा है तो मैं उन नेत्रोंका परम भक्त बन जाउंगा।”
🔹यतिराजने तत्काल उनको मंदिरमे ले जाकर रंगनाथ भगवान के साक्षात् दर्शन कराये।
🔹धनुर्धरदास का चित्त भगवान के दिव्य नेत्रोंमे स्थिर होगया।
🔹तत्पश्चात धनुर्धरदास और हेमाम्बा रामानुजाचार्य के शिष्य बनकर उनकी सेवामें संलग्न होगये।
🔹इन विशेष पती पत्नी को रामानुजाचार्य ने अंतरंग शिष्योंमें प्रमुख स्थान दिया।