प्रपन्नामृत – अध्याय ४६
पिशाच बाधा से राजकन्या की मुक्ति
🔹यतिराज मैसुर राज्य के शालग्राम नामक ग्राम में आये।
🔹यहाँके सभी लोग मायावादमें आकण्ठ डुबे हुये थे।
🔹उनपर कृपा करनेके लिये यतिराजनें दाशरथि स्वामीजी को कहा की ग्राम का मुख्य तालाब है जहाँसे सभी ग्रामवासी जल ग्रहण करते हैं, उस तालाबमें अपने चरण प्रक्षालन करके आवो।
🔹दाशरथि स्वामीजीनें आज्ञा का पालन करते हुये उस तालाबमें अपने चरण डुबोदिये।
🔹परमवैष्णव का चरणोदक पीकर सभी ग्रामवासी अहंकार ममकार दोषसे मुक्त होगये और यतिराज का शिष्यत्व ग्रहण किया।
🔹तत्पश्चात यतिराज भक्तपूर्ण ग्राम में आए।
🔹उस समयमें यहाँ के राजा की कन्या को ब्रह्मराक्षस ने ग्रस्त करलिया था।
🔹राजाने अनेक उपाय किये पर कुछ फायदा नही हुवा।
🔹फिर यतिराज को आमन्त्रित किया गया।
🔹यतिराज का अति सम्मान सहित स्वागत हुवा।
🔹राजा ने यतिराज का सपरिवार पूजन कर उनका श्रीपादतीर्थ राजकन्या को पिलाया।
🔹राजकन्या ब्रह्मराक्षस से मुक्त होगयी और राजाने अपने परिवार के और नगरवासियोंके साथ यतिराज का शिष्यत्व स्वीकार किया।
🔹यतिराजने राजा का नाम “विष्णुवर्धनदास” रखा।
🔹यह सुनकर राजा के पुर्व आचार्य क्रोधित होकर १०००० की संख्यामें यतिराज से तर्क करने आये।
🔹यतिराज ने शेष रुप धारण कर सहस्र फणि रुपमे हर एक तर्क का स्पष्टीकरण १०००० वचनोंसे किया और सबको पराजित किया तथा अपना चरणाश्रित बनाया।