प्रपन्नामृत – अध्याय ५३
श्रीगोदाम्बा के अभिष्ट की पूर्ति
🔹प्राचीन समय में गोदाम्बाजी ने एक बार उनसे रचित दिव्य प्रबन्ध में भगवान से प्रार्थना की थी की, “यदि आपने मेरा पाणिग्रहण संस्कार करलिया तो मैं आपको सौ घडे क्षीरान्न तथा सौ घडे माखन का भोग लगाउंगी।
🔹उक्त दिव्य प्रबन्ध में लिखित गोदाम्बाजी के अभिष्ट को देखकर यतिराज नें गोदाम्बाजी की यह ईच्छा पुर्ण करनेका निश्चय किया।
🔹फिर वनगिरीपर सुंदरबाहु भगवान को गोदाम्बाजी की ईच्छानुसार भोग लगाकर श्रीविल्लिपुत्तुर में गोदाम्बाजी के दर्शन के लिये पधारें।
🔹गोदाम्बाजी ने अत्यन्त हर्षित होकर यतिराज को अपना भाई घोषित करके उनको “गोदाग्रज” नाम प्रदान किया।
🔹फिर यतिराज कुरुकापुरी पधारें।
🔹कुरुकापुरी में शठकोप स्वामीजी ने प्रसन्न होकर यतिराज को अपनी पादुका का पद देकर सम्मानित किया। तबसे यतिराज “श्रीशठजित्पाद” नाम से प्रसिद्ध हुये।
🔹जैसे शठकोप स्वामीजी भगवान की चरणपादुका जानें जाते हैं, वैसेही यतिराज श्री शठकोप स्वामीजी की पादुका जाने जाते हैं और श्री दाशरथि स्वामीजी श्री रामानुजाचार्य की पादुका जाने जाते हैं।
🔹इसीलिये
भगवान की सन्निधीमें कहना चाहिये “मुझे श्री शठकोप प्रदान करें।”
श्री शठकोप स्वामीजी की सन्निधीमें कहना चाहिये “मुझे श्री रामानुजाचार्य प्रदान करें।”
श्री रामानुजाचार्य की सन्निधीमें कहना चाहिये “मुझे श्री दाशरथि प्रदान करें।”
🔹इस गोपनीय अर्थ को जो जानते हैं वे ही श्रीवैष्णव तथा मुमुक्षु हैं।
🔹 फिर यतिराज श्रीरंगम् लौट आयें।