श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका
श्रीमन्नारायण भगवान ने अपनी निर्हेतुक कृपा से, संसारियों (बद्ध जीवात्माओं) के उद्धार हेतु, सृष्टि रचना में ब्रह्मा को शास्त्रों (वेदों) का ज्ञान प्रकट किया। वैदिकों के लिए वेद ही परम प्रमाण है। प्रमाता (आचार्य) ही प्रमाण (शास्त्रों) के द्वारा प्रमेय (भगवान) के विषय में पुष्टि कर सकते है। जिस प्रकार भगवान में अखिल हेय प्रत्यनिकत्वं (सभी अनैतिक गुणों के विपरीत) और कल्याणैकतानत्वं (सभी मंगलमय दिव्य गुण) प्रकट है, जो उन्हें अन्य सभी रचानाओं से पृथक करती है, उसीप्रकार वेदों में निम्न महत्वपूर्ण गुण है (जो उन्हें अन्य प्रमाणों से पृथक करते है):
- अपौरुषेयत्वं – जिसकी रचना किसी जीवात्मा द्वारा नहीं की गयी (प्रत्येक सृष्टि के समय, भगवान वेदों का ज्ञान ब्रह्मा को प्रदान करते है जो अंततः उसका प्रचार करते है)। इसलिए व्यक्तिगत समझ और अनुभूति आदि द्वारा उत्पन्न त्रुटी इनमें अनुपस्थित है।
- नित्य – वह अनादी है – जिसका कोई आरंभ नहीं और कोई अंत नहीं – यह भगवान के द्वारा समय समय पर प्रकट किया जाता है, जो वेदों की विषयवस्तु से पुर्णतः परिचित है।
- स्वत प्रामाण्यत्व – सभी वेद व्याख्यान स्वतः ही पर्याप्त/ यथेष्ट है, अर्थात, उसकी प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए हमें और किसी भी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है।
यद्यपि वेद, शास्त्रों का वृहद शरीर है, वेद व्यास ने भविष्य में मनुष्य विवेक की सीमित क्षमता को जानते हुए, वेद को 4 वेदों में विभाजित किया – ऋग्, यजुर्, साम और अथर्व।
वेदांत वेदों का सार है। वेदांत, उपनिषदों का समूह है, जो अत्यंत जटिलता से भगवान के विषय में चर्चा करता है। यद्यपि वेद आराधना विधि के विषय में चर्चा करते है, और वेदांत, भगवान के विषय में चर्चा करते है, जो उस आराधना के प्रयोजन है। अनेकों उपनिषदों में से निम्न को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है:
- ऐत्रेय
- ब्रुहदारण्यक
- छान्धोग्य
- ईशा
- केन
- कठ
- कौशिधिकी
- महा नारायण
- मान्डुक्य
- मुंडक
- प्रश्न
- सुभाल
- स्वेतस्वतार
- तैत्त्रिय
महर्षि वेद व्यास द्वारा कृत ब्रहम सूत्र को भी वेदांत का अंग माना जाता है, क्यूंकि यह उपनिषदों का सार है। क्यूंकि, वेद अनंत है (अंतहीन – विशाल) और वेदांत अत्यंत जटिल और मानव विवेक की क्षमता भी सिमित है (जिसके परिणामस्वरूप अशुद्ध अर्थ निरूपण संभव है), इसलिए हमें वेद/ वेदांत को स्मृति, इतिहास और पुराणों द्वारा समझना होगा।
- स्मृति – धर्म शास्त्रों का संग्रह है, जिनकी रचना महान ऋषियों जैसे मनु, विष्णु हारित, याज्ञवल्क्य, आदि द्वारा की गयी है।
- इतिहास – श्रीरामायण और महाभारत – दो महाकाव्यों का संग्रह है। श्रीरामायण को शरणागति शास्त्र और महाभारत को पंचमो वेद (ऋग, यजुर, साम और अथर्व वेदों के पश्चाद) का स्थान प्राप्त है।
- पुराण – ब्रह्मा द्वारा रचित 18 मुख्य पुराण (ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, आदि) और अनेकों उप-पुराणों (लघु पुराणों) का संग्रह। इन 18 पुराणों में, ब्रह्मा स्वयं घोषणा करते है कि सत्व गुण के प्रभाव में वह भगवान विष्णु की स्तुति/ प्रशंसा करते है, रजो गुण के प्रभाव में स्वयं की स्तुति/ प्रशंसा करते है और तमो गुण के प्रभाव में शिव, अग्नि, आदि की स्तुति/ प्रशंसा करते है।
इतने प्रमाणों की उपलब्धता के पश्चाद भी, शास्त्रों के द्वारा सच्चा ज्ञान प्राप्त करने और सच्चे लक्ष्य को खोजने के बजाये, संसारी अभी भी लौकिक आकांक्षाओं में निरत है। तब, भगवान स्वयं अनेकों अवतारों में प्रकट हुए, परंतु बहुत से मुर्ख लोगों ने उन्हें असम्मानित किया और उनसे बैर भी किया। यह सोचकर कि संसारियों की सहायता हेतु, उन्हें एक जीवात्मा को तैयार करना चाहिए (जिसप्रकार एक हिरन को पकड़ने के लिए शिकारी अन्य हिरन का उपयोग करता है), उन्होंने कुछ जीवात्माओं का चुनाव किया और उन्हें निष्कपट दिव्य ज्ञान प्रदान किया। यही जीवात्माएं, आलवारों के रूप में प्रसिद्ध है (जो संपूर्णतः भगवत अनुभव में लीन है)। उनमें प्रमुख है श्रीशठकोप स्वामीजी (प्रपन्न कुलकुठस्थर/ वैष्णव कुलपति) और उनकी संख्या 10 है – सरोयोगी स्वामीजी, भूतयोगी स्वामीजी, महद्योगी स्वामीजी, भक्तिसार स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी, कुलशेखर स्वामीजी, विष्णुचित्त स्वामीजी, भक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी, योगिवाहन स्वामीजी और परकाल स्वामीजी। मधुरकवि स्वामीजी (श्रीशठकोप स्वामीजी के शिष्य) और गोदाम्बजी (विष्णुचित्त स्वामीजी की पुत्री) को भी आलवारों की गोष्ठी में सम्मिलित किया जाता है। भगवान के पूर्ण कृपापात्र आलवारों ने दिव्य ज्ञान की शिक्षा बहुतों को प्रदान की। परंतु क्यूंकि वे सदा भगवत अनुभव में लीन रहा करते थे, भगवान का मंगलाशासन करना ही उनका परम उद्देश्य था।
भगवान ने संसार से अधिक जीवात्माओं के उद्धार हेतु, श्रीनाथमुनि स्वामीजी से प्रारंभ और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी पर्यंत क्रम में आचार्यों के अवतरण की दिव्य व्यवस्था की। भगवत रामानुज, जो आदिशेषजी के विशेष अवतार है, हमारी इस आचार्य परंपरा क्रम के मध्य में अवतरित हुए और उन्होंने इस श्रीवैष्णव संप्रदाय और विशिष्टाद्वैत सिद्धांत को असीमित उचाईयों तक आगे बढ़ाया। पराशर, व्यास, ध्रमिड, टंका, आदि महान ऋषियों की रचनाओं का अनुसरण करते हुए, उन्होंने द्रढ़ता और स्थिरता से विशिष्टाद्वैत सिद्धांतों को स्थापित किया। उन्होंने 74 आचार्यों को सिंहासनाधिपतियों के रूप में स्थापित किया और उन्हें निर्देश दिए कि वे लोग श्रीवैष्णव संप्रदाय को उस प्रत्येक मनुष्य तक पहुंचाए, जो भगवान के विषय में जानने की और सच्चा ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा रखता हो। श्रीरामानुज स्वामीजी के महान कार्यों और सभी के एकमात्र रक्षक होने के कारण ही, इस संप्रदाय को “श्रीरामानुज दर्शन” भी कहा जाता है। कुछ समय पश्चाद, दिव्य प्रबंधन और उनके अर्थों के प्रचार हेतु, वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के रूप में पुनः प्रकट हुए। श्रीरंगम पेरिय कोयिल में पेरिय पेरुमाल (भगवान) स्वयं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपने आचार्य के रूप में स्वीकार करते है और उस आचार्य रत्नहार (आचार्य परंपरा) को पूर्ण करते है जो उन्हीं से प्रारंभ हुई था। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के बाद, उनके प्रमुख शिष्यों, जिन्हें अष्ट-दिक् गजंगल (अष्ट हाथी) कहा जाता है ने पोन्नडिक्काल् जीयर के नेतृत्व में श्रीवैष्णव संप्रदाय को सभी जगह प्रचारित किया। कालांतर में, इस संप्रदाय में बहुत से आचार्य प्रकट हुए और उन्होंने हमारे पूर्वाचार्यों के महान कार्य को आज भी जारी रखा है।
-अडियेन भगवती रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2015/12/simple-guide-to-srivaishnavam-introduction/
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org