श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका – गुरु परंपरा

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका

<< पूर्व अनुच्छेद

पूर्व अनुच्छेद में हमने आचार्य और शिष्य के संबंध के विषय में चर्चा की।

कोई यह प्रश्न कर सकता है कि “हमें भगवान और हमारे मध्य आचार्य की आवश्यकता क्यों है? क्या ऐसे दृष्टांत नहीं है, जहाँ भगवान स्वयं प्रत्यक्ष कृपा कर जीवात्माओं को स्वीकार करे, जिस प्रकार गजेन्द्र, गुहा पेरुमाल, शबरीजी, अक्रूर, त्रिवक्रा (कृष्णावतार की कुब्जा), माला कारण (फूल बेचने वाला) आदि पर की?”

इसके संबंध में हमारे पूर्वाचार्य कहते है, यद्यपि भगवान स्वतंत्र है और जीवात्माओं पर करुणा करते रहते है, तथापि वे जीवात्माओं के कर्मों के अनुसार उन्हें प्रतिफल प्रदान करने के लिए भी प्रतिबद्ध है। यहीं पर आचार्य की महिमा है। जीवात्माओं के लिए भगवान (प्रत्येक जीव के प्रति अपनी सुकृत भावों के साथ) निरंतर और अथक ही, सदाचार्य के चरणों में पहुँचने की संभावनाओं की रचना करते रहते है, जो जीवात्माओं को सच्चा ज्ञान प्रदान करे और उन्हें भगवान के श्रीचरणों तक पहुंचाए। पुरुष्कारभूता श्रीमहालक्ष्मीजी के समान सिफारिश करने वाले आचार्य, भगवान को सुनिश्चित करते है कि यह जीवात्मा सांसारिक मोह माया त्यागकर आपके श्रीचरणों में पहुँचने हेतु पुर्णतः आपकी कृपा पर आश्रित है।

यह कहा गया है कि जीवात्मा के कर्मानुसार, भगवान उसे संसार अथवा मोक्ष प्रदान करते है, परंतु आचार्य सदैव यही सुनिश्चित करते है कि आश्रित जीवात्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो। यह भी समझाया गया है कि सीधे भगवान के पास पहुंचना ऐसा है जैसे उनके हस्त कमलों के माध्यम से उन्हें प्राप्त करना और आचार्य के माध्यम से भगवान के पास पहुंचना ऐसा है जैसे भगवान के चरण कमलों के द्वारा उन्हें प्राप्त करना (क्यूंकि आचार्य भगवान के श्रीचरणों के प्रतिनिधि है)। हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा समझाया गया है कि प्रत्यक्ष भगवान द्वारा जीवात्माओं पर कृपा करना दुर्लभ ही है और आचार्य संबंध से जीवात्माओं को स्वीकार करना ही भगवान के लिए अत्यंत उचित और प्रीतिकर है।

6.1 azhwar-acharyas-ramanuja

आचार्यों के विषय में चर्चा करते हुए, अपनी आचार्य परंपरा के विषय में जानना भी उचित है। यह हमें जानने में सहायता करेगा कि किस प्रकार इस अद्भुत ज्ञान का प्रचार भगवान से हम तक हुआ। हम में से कुछ लोग इसे पहले से ही जानते होंगे, परंतु फिर भी इसे बताया जा रहा है, क्यूंकि इस आचार्य परंपरा के बिना – हम भी उन अन्य पीड़ित संसारियों के समान ही इस संसार में पीड़ित होते।

श्रीवैष्णव एक सनातन संप्रदाय/ सनातक धर्म है और इतिहास में बहुत से महानुभावों ने इसका प्रचार प्रसार किया। द्वापर युग के अंत में, भारत वर्ष के दक्षिण भाग में विभिन्न नदियों के किनारे आलवारों का अवतरण हुआ। अंतिम आलवार कलियुग के अग्र भाग में अवतरित हुए। श्रीभागवतजी में, व्यास ऋषि ने भविष्यवाणी की है कि भगवान श्रीमन्नारायण के उच्च/श्रेष्ठ भक्त विभिन्न नदियों के किनारों पर अवतरित होंगे और भगवान के विषय में इस दिव्य ज्ञान को सभी के मध्य समृद्ध करेंगे। आलवारों की संख्या दस है – श्रीसरोयोगी स्वामीजी, श्रीभूतयोगी स्वामीजी, श्रीमहद्योगी स्वामीजी, श्रीभक्तिसार स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीकुलशेखर स्वामीजी, श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी, श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी, श्रीयोगिवाहन स्वामीजी, श्रीपरकाल स्वामीजीश्रीमधुरकवि आलवार और श्रीआण्डाल आचार्य निष्ठ है और वे आलवारों में भी माने जाते है (जिससे संख्या 12 हो जाती है)। श्रीआण्डाल, भूमिदेवीजी का अवतार भी है। आलवार (आण्डाल के अतिरिक्त) भगवान द्वारा संसार से चुने हुए जीवात्मा है। भगवान ने आलवारों को अपने संकल्प द्वारा तत्व त्रय का सच्चा ज्ञान प्रदान किया और उनके माध्याम से भगवान ने लुप्त हुए भक्ति /प्रपत्ति के मार्ग को पुनः स्थापित किया। भगवान ने उन्हें पूर्व समय, वर्तमान और भविष्य की घटनाओं को पुर्णतः और स्पष्टता से जानने योग्य बनाया। आलवारों ने 4000 दिव्य प्रबंध की रचना की (जिसे अरुलिच्चेयल के नाम से भी जाना जाता है) जो उनके भगवत अनुभव की प्रत्यक्ष धारा है। अरुलिच्चेयल का सार श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा कृत तिरुवाय्मौली के दिव्य पदों में निहित है।

आलवारों के पश्चाद, आचार्यों का अवतरण प्रारंभ हुआ। बहुत से आचार्यों जैसे श्रीनाथमुनि स्वामीजी, श्रीपुण्डरीकाक्ष स्वामीजी, श्रीराममिश्र स्वामीजी, श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी, श्रीमहापूर्ण स्वामीजी, श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी, श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी, श्रीमालाधर स्वामीजी, श्रीवररंगाचार्य स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी, श्रीकुरेश स्वामीजी, श्रीदाशरथी स्वामीजी, श्रीदेवराजमुनी, श्रीअनंतालवान, श्रीतिरुक्कुरुगै पिरान पिल्लन, श्रीएन्गलालवान, श्रीनदातुर अम्माल, श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी, श्रीवेदांती स्वामीजी, श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी, श्रीकृष्णपाद स्वामीजी, श्रीपेरियावाच्चान पिल्लै, श्रीलोकाचार्य स्वामीजी, श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार्, श्रीकुरकुलोत्तम दासर, श्रीशैलेश स्वामीजी, श्रीवेदांताचार्य स्वामीजी और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने प्रकट होकर संप्रदाय का प्रचार प्रसार किया। यह आचार्य परंपरा 74 सिंहासनाधिपतियों (श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा नियुक्त आधिकारिक आचार्य) और श्रीरामानुज स्वामीजी व् श्री वरवरमुनि स्वामीजी द्वारा स्थापित जीयर मठों द्वारा आज के समय तक पहुंची है। इन आचार्यों ने पसूरों के अर्थों/ सार को गहनता से समझाने के लिए अरुलिच्चेयल पर बहुत से व्याख्यान लिखे। यही व्याख्यान आज हमारे लिए उनके द्वारा प्रदान की गयी अमूल्य निधि है – जिसे पढ़कर हम भगवत अनुभव में मग्न हो सके। सभी आचार्यगण, आलवारों की कृपा से उनके पसूरों के यथार्थ को स्पष्टता से और विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाने में समर्थ थे।

अपनी उपदेश रत्न माला में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते है कि इन आचार्यों और आलवारों के व्याख्यानों के आधार पर ही हम अरुलिच्चेयल (दिव्य प्रबंध) समझने में समर्थ है। इन व्याख्यानों के अभाव में, हमारे अरुलिच्चेयल भी तमिल के अन्य साहित्य के समान ही होते (जिन्हें कुछ उच्च श्रेणी के लोग ही गृहण कर पाते)। क्यूंकि हमारे पूर्वाचार्यों ने इसके अर्थों/ सार को जाना है, उन्होंने अरुलिच्चेयल को घरों और मंदिरों में नित्यानुसंधान के अंग के रूप में जोड़ दिया। उसे प्रत्यक्ष देखने के लिए, हम तिरुवल्लिकेणी दिव्य देश में शुक्रवार को होने वाली सिरीय तिरुमदल गोष्ठी में जा सकते है और वहां 5 से 6 वर्ष की आयु के बालकों को अपने से बड़े श्रीवैष्णवों से अधिक ऊँचे स्वर में पाठ करते हुए देख सकते है। और हम सभी तिरुपावै के विषय में भी जानते ही है – सभी स्थानों पर, मार्गशीर्ष मास में हम 3 से 4 वर्ष की आयु वाले छोटे बालकों को आण्डाल नाच्चियार के गौरवशाली पासूर का गान करते हुए सुन सकते है।

इस प्रकार हम अपनी गुरु परंपरा के महत्त्व को समझ सकते है और प्रतिदिन उसका आनंदानुभव कर सकते है।

पूर्वाचार्यों के विषय में जानने के लिए https://acharyas.koyil.org पर देखे।

आलवार्गल वालि, अरुलिच्चेयल वालि, तालवातुमिल कुरवर ताम वालि (आलवारों का मंगल हो, दिव्यप्रबंध का मंगल हो, उन सभी आचार्यों का मंगल हो जिन्होंने दिव्य प्रबंध का अनुसरण किया और उनका प्रचार प्रसार किया)
– उपदेश रत्नमाला 3

-अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2015/12/simple-guide-to-srivaishnavam-guru-paramparai/

>> श्रृंखला का अगला लेख – https://granthams.koyil.org/2016/04/30/simple-guide-to-srivaishnavam-dhivya-prabandham-dhesam-hindi/

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

1 thought on “श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका – गुरु परंपरा”

Leave a Comment