श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका
पञ्च संस्कार विधि के भाग के रूप में मंत्रोपदेश (रहस्य मंत्रो के उपदेश) दिया जाता है। उसमें, आचार्य द्वारा शिष्य को 3 रहस्यों का उपदेश दिया जाता है। वे इस प्रकार है:
तिरुमंत्र – नारायण ऋषि ने नर ऋषि (दोनों ही भगवान के अवतार है) को बद्रिकाश्रम में उपदेश किया था।
ओम नमो नारायणाय
अर्थ : जीवात्मा, जिसके स्वामी/नाथ भगवान है, उसे सदा भगवान की प्रसन्नता मात्र के लिए ही प्रयत्नरत रहना चाहिए; उसे सभी के स्वामी श्रीमन्नारायण भगवान की सदा सेवा करना चाहिए।
द्वय मंत्र – श्रीमन्नारायण भगवान ने श्रीमहालक्ष्मीजी को विष्णु लोक में उपदेश किया।
श्रीमन् नारायण चरणौ शरणं प्रपद्ये |
श्रीमते नारायणाय नमः ||
अर्थ : मैं श्रीमन्नारायण भगवान के चरण कमलों में आश्रय लेता हूँ, जो श्रीमाहलाक्ष्मीजी के दिव्य नाथ है; मैं श्रीमहालक्ष्मीजी और श्रीमन्नारायण भगवान के स्वार्थ रहित कैंकर्य की प्रार्थना करता हूँ।
चरम श्लोक (भगवत गीता का भाग) – श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र की रणभूमि में उपदेश किया।
सर्व धरमान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुचः:||
अर्थ : सभी साधनों का पुर्णतः त्याग कर, अपना सर्वस्व मुझे समर्पित करो; मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूँगा, चिंता मत करो।
मुमुक्षुप्पदी व्याख्यान के द्वय महामंत्र प्रकरण के प्रारंभ में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने तीनों रहस्य मंत्रों के मध्य दो प्रकार के संबंधों के विषय में समझाया है:
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विधि- अनुष्ठान – तिरुमंत्र जीवात्मा और परमात्मा के मध्य के संबंध को समझाता है; चरम श्लोक जीवात्मा को निर्देशित करता है कि परमात्मा की शरणागति करो; द्वयं मंत्र का स्मरण और जप ऐसी शरणागत जीवात्मा को सदा सर्वदा करना चाहिए।
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विवरण-विवरणी – तिरुमंत्र का नमो नारायणाय पद, प्रणवं को समझाता है। द्वय महामंत्र तिरुमंत्र का विवरण करता है। चरम श्लोक तिरुमंत्र का और अधिक विवरण प्रदान करता है।
हमारे आचार्यों ने तीनों रहस्य मत्रों में द्वय महामंत्र की बहुत महिमा बताई है और सदा उसका ध्यान किया। उसे मंत्र रत्न के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। यह मंत्र श्रीमहालक्ष्मीजी के पुरुष्कार-भूता स्वरुप को भली प्रकार से दर्शाता है। श्रीमहालक्ष्मीजी और भगवान श्रीमन्नारायण के आनंद मात्र के लिए किया गया कैंकर्य ही परम लक्ष्य है, यह भी दर्शाता है। वरवरमुनि दिनचर्या में श्री देवराज गुरु ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की दिव्य दिनचर्या को लिपि बद्ध किया है। नवम श्लोक में, वे दर्शाते है “मंत्र रत्न अनुसंधान संतत स्पुरिताधरम | तधर्थ तत्व निध्यान सन्नद्द पुलकोद्गमं “- अर्थात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सदा द्वय महामंत्र का जप किया करते थे। द्वय मंत्र (जो तिरुवाय्मौली ही है) के अर्थों के सतत अनुसंधान से उनके शरीर में दिव्य प्रतिक्रियां प्रदर्शित होती थी। यह स्मरणीय है कि द्वय महामंत्र का पृथक जप नहीं करना चाहिए – अर्थात द्वय महामंत्र के जप से पहले हमें सदा गुरु परंपरा (अस्मद गुरुभ्यो नमः … श्रीधराय नमः) का ध्यान करना चाहिए। हमारे बहुत से पूर्वाचार्य, श्रीपराशर भट्टर (अष्ट श्लोकी) से प्रारंभ करके, पेरियवाच्चान पिल्लै (परंत रहस्य), पिल्लै लोकाचार्य (श्रिय:पति: पदी, यादृच्चिक: पदी, परंत पदी, मुमुक्षुप्पदी), अलगिय माणवाल पेरूमल नायनार (अरुलिच्चेयल रहस्य), श्रीवरवरमुनि स्वामीजी (मुमुक्षुप्पदी का व्याख्यान) आदि ने रहस्य त्रय के अर्थों को विस्तार से समझाया है। उन सभी अद्भुत प्रबंधों में, मुमुक्षुप्पदी एक अत्यंत सूक्ष्म साहित्य है और इसे श्रीवैष्णवों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कालक्षेप ग्रंथ माना जाता है (जिसका आचार्य के सानिध्य में अध्ययन किया जाना है)। रहस्य त्रय मुख्यतः, तत्व त्रय और अर्थ पंचक पर केन्द्रित है, जो श्रीवैष्णवों के लिए सर्वोच्च महत्त्व के है।
-अडियेन भगवती रामानुजदासी
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