श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका
६ स्वरूपों में भगवान (जिन्हें प्राप्त करना ही परम धर्म है) – परत्वं (परमपद में), व्यूह (क्षीर सागर में), विभव (लीला विभूति में लिए गए अवतार), अन्तर्यामी (जीव के अंतर में बसने वाले परमात्मा), अर्चावतार (घरों, मंदिरों और मठों में विराजे भगवान के विग्रह) और हमारे श्रीआचार्य के रूप में भी।
मिक्क इऱै निलैयुम् मॆय्याम् उयिर् निलैयुम्
तक्क नॆऱियुम् तडैयागित् तॊक्कियलुम् ऊऴ् विनैयुम्
वाऴ्विनैयुम् ओदुम्
कुरुकैयर् कोन् याऴिन् इसै वेदत्तियल्
– भट्टर द्वारा रचित तिरुवाय्मोऴि की तनियन्
अर्थ : आऴ्वार् तिरुनगरी में निवास करनेवालों के स्वामी – श्रीशठकोप स्वामीजी (नम्माऴ्वार्)। वीणा की मधुर धुन के समान कर्णप्रिय उनकी तिरुवाय्मोऴि, अत्यन्त महत्वपूर्ण ५ सिद्धांतों के विषय में समझाती है- सर्वेश्वर भगवान श्रीमन्नारायण का दिव्य स्वरूप (परमात्मा स्वरूप), नित्य जीवात्मा का सच्चा स्वरूप (जीवात्मा स्वरूप), सबसे उत्तम उपाय का स्वरूप (उपाय स्वरूप), अगणित कर्मों के रूप में सामने आने वाली बाधाओं का स्वरूप (विरोधी स्वरूप), और परम लक्ष्य का सच्चा स्वरूप (उपेय स्वरूप)।
अर्थ पञ्चकम् का अर्थ है “पाँच पदार्थ” (जिसे आवश्यक रूप से समझा जाना चाहिए)। अर्थ पञ्चकम् जाने बिना स्वरूप नहीं सुधरता। श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य ने अपनी निर्हेतुक कृपा से एक दिव्य रहस्य ग्रंथ की रचना की, जो सुंदरता से अर्थ पञ्चकम् के सिद्धांतों की व्याख्या करता है। यह लेख उसी अद्भुत ग्रंथ के आधार पर संकलित किया गया है।
इस अद्भुत ग्रंथ की झलक यहाँ प्रस्तुत है, अब हम उन्हें देखते है:
- जीवात्मा (स्व स्वरूप) – इसे पुनः पाँच श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:
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- नित्यसूरी – परमपद (श्री वैकुंठ- आध्यात्मिक धाम) की नित्य मुक्त जीवात्माएं,
- मुक्तात्मा – मुक्त जीवात्माएं, जो सांसार चक्र/ संसार बंधन से मुक्ति प्राप्त कर परमपद (श्री वैकुंठ) पहुँची हैं,
- बद्धात्मा – वे जीवात्माएं, जो संसार बंधन में जकड़ी हैं (लौकिक संसार),
- कैवल्यार्थी – संसार से मुक्ति प्राप्त कर नित्य स्वयं के अनुभव (आत्मानुभव) में लीन, कैवल्य मोक्ष में रहने वाली जीवात्माएँ (आत्मानुभव, भगवान के कैङ्कर्य के समकक्ष अति निम्न स्तर का है), जिनके लिए भगवान का कैङ्कर्य प्राप्त करने की अब कोई आशा नहीं है,
- मुमुक्षु – जीवात्माएं जो संसार में रहते हुए नित्य भगवान के कैङ्कर्य के इच्छुक हैं।
2. ब्रह्म (परमात्म स्वरूप – ईश्वर) – ईश्वर के पांच विभिन्न रूपों को यहाँ समझाया गया है:
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- परत्वं – परमपद में भगवान का उत्कृष्ट स्वरुप,
- व्यूह – क्षीराब्धि में भगवान का स्वरूप और उनके संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नामक अन्य स्वरूप जो सृष्टि, स्थिति और संहार में संलग्न हैं,
- विभव – श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि अवतार,
- अंतर्यामि – अन्तर्यामी परमात्मा। इनका पुनः वर्गीकरण इस प्रकार है – आत्मा के भीतर परमात्मा रूप में और हृदय में श्रीमहालक्ष्मीजी के साथ प्रकाशमान स्वरूप में,
- अर्चावतार – मंदिर, मठ, घरों आदि में विराजे भगवान के दिव्य विग्रह।
3. पुरुषार्थ स्वरूप (उपेय) – वह जिसकी प्राप्ति की इच्छा पुरुष (आत्मा) रखता है, वह पुरुषार्थ है। इसके पाँच वर्गीकरण निम्न है:
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- धर्म – सभी प्राणियों के कल्याण हेतु किये जाने वाले कार्य,
- अर्थ – धन अर्जन करना और शास्त्रों द्वारा स्वीकृत उद्देश्यों में उसका उपयोग करना,
- काम – पृथ्वी और अन्य दैविक लोकों के भौतिक सुखों की कामना,
- आत्मानुभव – स्वयं के आनंदानुभव (आत्म-आनंद) के लिए मुक्ति,
- भगवत कैङ्कर्य (परम पुरुषार्थ) – नित्य के लिए परमपद में भगवान का कैंङ्कर्य करना, वह जो सांसारिक देह छुटने के पश्चात, परमपद में पहुँचकर, सूक्ष्म शरीर धारण करके, नित्यसूरियों और मुक्तात्माओं के सान्निध्य में प्राप्त होता है
4. उपाय स्वरूप (साधन) – इसके पाँच वर्गीकरण इस प्रकार है:
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कर्म योग– यज्ञ, दान, तप, ध्यान, आदि में संलग्न होना, जिनका निर्देश शास्त्र में किया गया है, इस अभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करना, अष्टांग योग में संलग्न होना आदि और अपनी आत्मा का अनुभव करना। यह ज्ञान योग का सहायक है और मुख्यतः सांसारिक मोह माया से सम्बंधित है।
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ज्ञान योग – कर्म योग से प्राप्त ज्ञान अर्जित करके, अपने हृदय में विराजे भगवान श्रीमन्नारायण का ध्यान करना और निरंतर सदा उनकी साधना/तप करना। यह भक्ति योग में सहायक है और मुख्यतः कैवल्य मोक्ष पर केन्द्रित है।
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भक्ति योग – ऐसे ज्ञान योग के प्रभाव से, निरंतर साधना द्वारा आनंद की प्राप्ति करना, संचित पापों और पुण्यों से मुक्त होकर अंततः चरम गति और विधि को पूर्णतः समझना और उसके अनुसार प्रतिक्रिया करना।
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प्रपत्ति – भगवान के प्रति समर्पण जो अतीत आनंदमय हैं, अनुसरण करने में अत्यंत सुलभ है, जो शीघ्र परिणाम प्रदान करता है और क्योंकि इसे एक बार ही किया जाना है, तो इस समर्पण के पश्चात किये गए अन्य सभी कार्य स्वतः ही भगवान के कैङ्कर्य स्वरूप हो जाते हैं। यह उनके स्वरूप के लिए भी हितकारी है जो कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि उपाय करने में असक्षम हैं और जो इन योगों में प्रवृत्ति को अनुचित मानते हैं (एक बार भगवान के सेवक होने के सच्चे स्वरूप के विषय में ज्ञान होने पर स्व-रक्षा के लिये किये गए कोई भी स्व-प्रयास उनके लिए उचित नहीं है)। इनके दो प्रकार के वर्गीकरण मिलते हैं– आर्त प्रपत्ति (जिनके लिए इस दुःख जनित संसार में क्षणभर के लिए रहना भी असहनीय है और जो तुरंत इस संसार की मोहमाया से परे परमपद में जाने की इच्छा रखते हैं) और द्रुप्त प्रपत्ति (जो इस संसार में भगवान पर सम्पूर्ण आश्रय से रहते हैं और भाग्यानुसार परमपद पहुँचने से तक यही इस संसार में रहकर भगवान, भागवतों और आचार्य की सेवा करते हैं)।
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आचार्य अभिमान – जो पहले कहे गए किसी भी कार्य को करने में असमर्थ हैं, उन आश्रितों की अत्यंत दयालु श्री आचार्यजी महाराज स्वयं जिम्मेदारी लेते हैं, उन्हें मार्गदर्शन देते हैं और महत्वपूर्ण सिद्धांतों की शिक्षा देते हैं। शिष्य को सदा सम्पूर्ण रूप से अपने आचार्य के आश्रित रहना चाहिए और आज्ञाकारी शिष्य के समान चरम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उनकी आज्ञा का अनुसरण करना चाहिए। टिपण्णी: यहाँ हम स्मरण कर सकते हैं- जीवों पर निर्हेतुक कृपा करते हुए श्रीरामानुज स्वामीजी (एम्पेरुमानार्) उद्धारक (इस संसार से बचाने वाले) आचार्य हैं और हमारे अपने आचार्य उपकारक आचार्य हैं (आचार्य जो आश्रित जीवात्मा को श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणों तक पहुँचाते हैं)। भगवान के चरण कमलों में आश्रय ही परम लक्ष्य है, इस सिद्धांत को हमारे पूर्वाचार्यों ने सम्पूर्ण रूप से प्रदर्शित किया है। अधिक जानकारी के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/charamopaya-nirnayam-english/ पर देखें। हमारे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी (मणवाळ मामुनिगळ्) ने भी आर्ति प्रबंध में यहाँ दर्शाया है कि वे श्रीआंध्रपूर्ण स्वामीजी (वडुग नम्बि) के समान बनना चाहते हैं जो श्री रामानुज स्वामीजी के प्रति पूर्णतः आश्रित थे।
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5. विरोधी स्वरूप (बाधाएं) – वह पक्ष जो हमारे लक्ष्य प्राप्ति में बाधाएं उत्पन्न करते हैं। इनका त्याग करना चाहिए। इनके पाँच वर्गीकरण इस प्रकार है:
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स्वरूप विरोधी– अज्ञानता वश – देह को आत्मा समझना, स्वयं को भगवान के अतिरिक्त किसी और के दास मानना और स्वयं (आत्मा) को स्वतंत्र समझना।
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परत्व विरोधी – अन्य देवताओं को सर्वोत्तम/प्रधान समझना, अन्य देवताओं को भगवान के समकक्ष समझना, ऐसे तुच्छ देवताओं को शक्तिमान समझना, भगवान के अवतारों को सामान्य मनुष्य समझना, भगवान की अर्चा विग्रह स्वरूप को सामर्थ्य/शक्ति में कमतर आंकना।
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पुरुषार्थ विरोधी – भगवान की सेवा के अतिरीक्त अन्य किसी लक्ष्य की अभिलाषा करना, भगवान की सेवा करने में स्वयं की पसंद को प्रधानता देना (भगवान की इच्छा का अनुसरण न करते हुए)
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उपाय विरोधी – अन्य उपायों को महान समझना, इच्छित परिणाम प्राप्त करने हेतु समर्पण को अत्यंत सरल समझना, यह समझना कि परमपद में भगवान की सेवा प्राप्ति ही महानता है (इसके विपरीत यह श्रद्धा रखना चाहिए कि आचार्य/ भगवान सेवा प्रदान करने की कृपा करेंगे) और अनेक बाधाओं से भयभीत होना (इसके विपरीत हमें आचार्य/भगवान पर सम्पूर्ण विश्वास होना चाहिए)।
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प्राप्ति विरोधी – जो त्वरित लक्ष्य प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करता है– देह से संबंध (संचित पाप/पुण्य के शेष के समाप्त होने पर यह संबंध नष्ट हो जायेगा), जघन्य अपराध, भगवत अपचार (भगवान के प्रति अपराध करना), भागवत अपचार (भागवतों के प्रति अपराध करना) आदि ।
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अर्थ पञ्चकम् में श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी प्रतिपादित करते हैं कि:
इन पञ्च तत्वों का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चाद, मुमुक्षु को निम्न जीवन शैली का अनुसरण करना चाहिए– वर्णाश्रम और वैष्णव मूल्यों के अनुसार धन अर्जन करना, इस धन को भगवान/भागवतों को समर्पित करना और शरीर निर्वाहन के लिए आवश्यक मात्र को ही ग्रहण करना, अपने आचार्य का कैंङ्कर्य करना जिन्होंने अत्यंत परिश्रम से शिष्य को ज्ञान प्रदान किया है और उनकी प्रसन्नता के लिए जीवन यापन करना।
भगवान के समक्ष आश्रित को विनम्रता प्रदर्शित करना चाहिए (भगवान की महानता के विषय में ध्यान करते हुए), आचार्य के समक्ष अज्ञान प्रदर्शित करना चाहिए (आचार्य के विवेक, ज्ञान के विषय में ध्यान करना चाहिए), श्रीवैष्णवों के समक्ष समर्पण प्रदर्शित करना चाहिए (स्वयं पर उनके स्वामित्व के विषय में ध्यान करना चाहिए), संसारियों के समक्ष भेद प्रदर्शित करना चाहिए (यह ध्यान करते हुए कि हम भगवान के आश्रित है और उनके समान सांसारिक मोह माया से परे है)।
अपने लक्ष्य की तृष्णा (उत्कट चाहना), साधन में श्रद्धा, बाधाओं का भय, देह के प्रति वैराग्य और विरक्ति, आत्म अनुभूति, स्वयं की रक्षा में असमर्थ, भागवतों के प्रति सम्मान, आचार्य के प्रति कृतज्ञता और विश्वास आदि गुण आश्रितों में होना चाहिए।
जिनमें उपरोक्त ज्ञान है और जो इस ज्ञान का अभ्यास करते हैं, वह भगवान को अपनी दिव्य महिषी, नित्यसूरियों और मुक्तात्माओं से भी अधिक प्रिय हैं।
-अडियेन भगवती रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2015/12/artha-panchakam/
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org