श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः
श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ पर हिन्दी में देख सकते है।
<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १२
दिव्य देश में भगवान श्रीमन्नारायण के अर्चावतार – दिव्य प्रबन्ध का लक्ष्य
श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी – दिव्य प्रबन्धों के मुख्य प्रचारक कर्ता
४४) संकीर्तन विरोधी – गाने और बोलने में बाधाएं (भगवान और भागवतों की स्तुतियाँ)
संकीर्तन यानि गाना या बोलना या गुनगुनाना। यह शब्द सामान्यत: कैंकर्य को संबोधित करते है (अनुवादक टिप्पणी: कैंकर्य मन, शब्द / भाषा और देह से किया जाता है)।
- भगवान कि सरलता के विषय में चर्चा करते समय उनकी श्रेष्ठता के विषय में चर्चा करना बाधा है। गुण कीर्तन – भगवान के यश गुण को स्मरण करना और उसी विषय पर चर्चा करना। भगवान के २ अनूठे गुण है (जो अन्य किसी ओर में नही) – वे दिव्य गुणों से परिपूर्ण है और अशुभ गुण रहित है। शुभ/ दिव्य गुण में २ भाग है – वह जो भगवान की श्रेष्ठता पर केन्द्रित है और अन्य वह जो भगवान के सौलभ्यता पर केन्द्रीत है। हम श्रीशठकोप स्वामीजी के श्रीसहस्त्रगीति का पाशुर का स्मरण कर सकते है “यारुमोर निलैमैयनेन अरिवरिय एम्पेरुमान यारुमोर निलैमैयनेन अरिवेलिय एम्पेरुमान” – भगवान इस प्रकार है कि उन्हें (उनकी परतत्वता/ श्रेष्ठता को) सुगमता से नहीं समझा जा सकता है और अपने सौलभ्य गुण सहित, वे सुगमता से समझे जा सकते है। भगवान की श्रेष्ठता के लिये कोई उपरी सीमा नहीं है और सरलता के लिये कोई निचली सीमा नहीं है। वह अपने भक्तों को बड़ी सरलता से प्राप्त हो जाते है। उनकी सरलता इन दो गुणों में देखी जा सकती है: सौलभ्य और सौशिल्य। यद्यपि वह अपने अनेक अवतारों में अपने सभी श्रेष्ठ और शुभ गुणों के साथ आते है, परन्तु वे सदा अपनी सरलता के कारण प्रकाशमान है। यह केवल उनकी सरलता है, जो उनके भक्तों के हृदय को पिघलाती है। श्रीशठकोप स्वामीजी सहस्त्रगीति में कहते है “एलीवरुमियल्विनन”। सहस्त्रगीति में आलवार भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते है, जब माता यशोदा उन्हें माखन चुराने पर बांध देती है और कहती है “एत्तीरम! उरलिनोडू ईणैन्तिरून्तु एन्गीय एलिवे!” (यह कैसे मुमकिन है? किस सरलता के बन्धन में बंधे हो और बहुत समय के लिये बेहोश हो जाती है)। तिरुपावै में श्रीगोदम्बाजी यह समझाती है कि गोविन्द नाम भगवान को सबसे प्रिय है। “नारायण” नाम जो उनकी श्रेष्ठता को दर्शाता है, उनके लिए बहुत छोटा नाम है। गोपीयाँ कहती है “चिरुपेरलैत्तनवुम चिरी अरुलाते एम् इरैवा”- हे भगवान! अगर हम आपको आपके छोटे नाम से बुलाते है, तो कृपया ग़ुस्सा मत हो। “गुणवान” (श्रीरामायण में वाल्मीकिजी द्वारा समझाई गये बहुत से गुणों में से एक गुण), भगवान श्रीराम को अधिक सौलभ्य और सौशिल्य गुणों वाला बताता है। अत: जब भगवान के सरलता गुण के विषय पर चर्चा हो तो श्रेष्ठता गुण के विषय में चर्चा नहीं करनी चाहिये।
- भगवान कि स्तुति को “स्वयं प्रयोजन” के समान करना चाहिए, अर्थात भगवान का गुणानुवादन ही हमारा लक्ष्य है। भगवान कि स्तुति धन, लाभ, शौर्य, आदि माँगने के लिये करना विरोधी है। भगवान के दिव्य गुण बहुत ही मीठे स्वर से बोलनेवालों और सुननेवालों दोनों के लिये गाना/ बोलना चाहिये।
- दूषित या अयोग्य लोगों कि स्तुति करना बाधा है। यह एक प्रकार से देवतान्तर है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान को सर्व गुण सम्पन्न और अशुभ गुणों के सीधे विपरीत ऐसा समझा जाता है। ऐसे श्रीवैष्णव, जो पूर्णत: भगवान और भागवतों पर निर्भर है, वे पूर्णत: स्तुति के योग्य है। परन्तु अन्य देव जैसे शिव, ब्रह्म, इन्द्र, दुर्गा आदी संसार के बन्धन में बंधे है। वे भगवान द्वारा संसार में कुछ सीमित कार्य करने हेतु नियुक्त किये गये है और रजस (राग) और तमस (अज्ञान) गुणोँ से भरे है। इसलिये श्रीवैष्णवों के द्वारा वे स्तुति करने के योग्य नहीं है।
- भाषा संस्कृत नहीं है यह विचार करके भगवान कि स्तुति नहीं करना बाधा है। भगवान कि स्तुति किसी भी भाषा में कर सकते है। अनुवादक टिप्पणी: संस्कृत को देव भाषा समझा जाता है। वेद संस्कृत भाषा में है और पूर्णत: भगवान कि स्तुति करता है। परन्तु अन्य भाषा में कई ग्रन्थ है, जो भगवान कि स्तुति करते है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य के भाई अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार एक सुन्दर प्रबन्ध कि रचना किये जो आचार्य हृदय नाम से प्रचलित है वह तमील में है। इस प्रबन्ध में वे यह स्थापित करते है कि आलवार कि स्तुतियाँ जन्म के आधार पर सीमित नहीं है क्योंकि वे भगवान के कृपापात्र है और उन्हीं के शरण है। हमें यह नहीं देखना चाहिए कि वह कौनसी भाषा में रचित है। ४००० दिव्य प्रबन्ध उच्च है क्योंकि उनमें चारों वेदों का तत्व है और केवल भगवान कि स्तुति है। इस प्रकार वे आलवारों और उनके दिव्य प्रबंधनों की महिमा स्थापित करते है और यह स्थापित करते है कि श्रीवैष्णवों को इन प्रबंधों का सदा गान करना चाहिये।
- सांसारिक जनों की स्तुति करना और देवतान्तर की स्तुति करना बाधा है। श्रीशठकोप स्वामीजी सहस्त्रगीति में कहते है “एन्नाविल इन्कवि याँ ओरुवर्क्कुम कोदुक्किलेन, एन्नप्पन एम्पेरुमान उलनागवे” – मेरी जीव्हा भगवान को छोड़, किसी और की स्तुति नहीं करेगी।
- पठन/ गान करने के लिए, जो सर्वाधिकार (सबके लिए योग्य) है, उसे अधिकृधाधिकार (योग्य लोगो के हेतु है) यह विचार करना बाधा है। उदाहरण के लिए, वेद केवल पहिले ३ वर्ण द्वारा (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) द्वारा पढ़ा जा सकता है। परन्तु दिव्य प्रबन्ध का पाठ और मंगलानुशासन हर कोई कर सकता है। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य हृदय ७३ चूर्णिका में अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार यह समझाते है – मृत गटम् पोलंरे पोरकुटम – मिट्टी का बरतन सोने के बरतन जैसे नहीं है। सोना पवित्र है। उसे कोई भी किसी भी वक्त छु सकता है। मिट्टी के बरतन के उपयोग में कई नियम है, उसे कुछ विशेष अधिकारी, विशिष्ट समय पर ही छु सकते है – अगर कोई अधिकार न होनेवाला व्यक्ति बेवक्त उसे छु लेता है, तो वह किसी काम का नहीं रह जाता है। सोने के बरतन का कोई नियम नहीं होता है। उसी तरह आलवारों के पाशुर पवित्र है और उसे कोई भी गा सकता है।
- श्रीवैष्णव बनने के पश्चाद (सत सम्प्रदाय के तत्व को समझने के पश्चाद) जो पासुर हमारे आचार्य और आलवारों द्वारा रचित नहीं है, उनका गान करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान ने आलवारों को दोष रहित पवित्र ज्ञान प्रदान किया है। आलवार हमारे पूर्वाचार्यों पर निर्हेतुक कृपा किये है। उनके द्वारा जो भी रचित है, वह स्व: प्रोत्साहित रहित, पूर्णत: पवित्र है। इसलिये हमें आलवार और आचार्य द्वारा रचित पद का ही गान करना चाहिए। अन्य लोगों, जो लोग भगवान के भक्त है, परन्तु सम्प्रदाय और गुरु परम्परा का पालन नहीं करते है और स्वयं की निष्ठा पर निर्भर है और उपायान्तर, प्रयोजनान्तर और देवतान्तर के मिश्रण में रहते है, के द्वारा रचित पदों से दूर रहना चाहिए। अत: ऐसे ग्रन्थ से बचना ही चाहिये।
- ऐसे आलवारों और आचार्य के ग्रन्थ सदाचार्य के सन्निधी में ही पढ़ना चाहिये। स्वयं पढ़ना या योग्य अधिकारीयों से सिखना बाधा है।
- भगवान का नाम संकीर्तन आनन्द रूप में करना चाहिये नाकि कोई शुद्ध करने कि प्रक्रिया समझकर, ऐसा करना विरोधी है। भगवान का नाम स्मरण करना केवल आनन्द के लिये है। कण्णिनुण् शिरुत्ताम्बु में श्रीमधुरकवि स्वामीजी कहते “कुरुगूर्नम्बि एन्रक्काल् अण्णिक्कुकुममुदूरुमेन्न्नावुक्के” – जब मैं श्रीशठकोप स्वामीजी का नाम लेता हूँ तब मुझे अपने जीभ पर पवित्र अमृत के स्वाद का अनुभव होता है। श्रीशठकोप स्वामीजी सहस्त्रगीति में कहते है “एन्गने सोल्लिलुम इन्बम पयक्कुमे” – तथापि मैं भगवान की स्तुति करता हूँ वह आनन्द की ओर ले जाता है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी अपने तिरुमालै ग्रन्थ में नाम संकीर्तन की पूर्ण बढाई करते है। श्रीपेरियवाचन पिल्लै अपने व्याख्या में इस प्रबन्ध का सुन्दर अर्थ बताते है। पहिले पाशुर में नाम संकीर्तन के पावनत्वम (उसकी शुद्धता और उसे गाने वाले को शुद्ध करने की पात्रता) को दर्शाया है। दूसरे पाशुर में नाम संकीर्तन के भोग्यत्वम (मीठे और आनंददायक स्वभाव) को दर्शाया है। दोनों मुख्य है। श्रीपेरियावाच्चान पिल्लै बड़ी सुन्दरता से पावनत्वम को भोग्यत्वम के पहिले कहने का कारण बताते है – वह यह कि एक बार हम नाम संकीर्तन से शुद्ध हो जाये उसके पश्चात हम पूर्ण आनन्द का अनुभव कर सकते है।
- स्वतंत्र रूप से भागवतों का नाम लिये बिना भगवान का नाम संकीर्तन करना बाधा है। दोनों भगवान और भागवतों का नाम संकीर्तन समान रूप से उच्च है (यद्यपि भागवतों का नाम संकीर्तन भागवतों की श्रेष्ठता की बढ़ाई करता है)। इसीलिए दोनों करना चाहिये। हम ऊपर दिये गये उदाहरण को दोहरा सकते है, कण्णिनुण् शिरुत्ताम्बु में श्रीमधुरकवि स्वामीजी कहते “कुरुगूर्नम्बि एन्रक्काल् अण्णिक्कुकुममुदूरुमेन्न्नावुक्के” – जब मैं श्रीशठकोप स्वामीजी का नाम लेता हूँ तब में अपने जीभ पर पवित्र अमृत का स्वाद आता है।
- आचार्य के समक्ष उनकी आज्ञा के बिना स्वयं बोलना और जब वे आज्ञा करें तब नहीं बोलना विरोधी है। अनुवादक टिप्पणी: “अर्थ पञ्चक” में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी अन्त में यह समझाते है कि एक श्रीवैष्णव को कुछ गुण, कुछ विशेष जनों के समक्ष स्पष्ट करना चाहिये। उसमें वह यह कहते है कि भगवान के सन्मुख हमें नम्रता से रहना चाहिये, आचार्य के सन्मुख हमें अज्ञानी बनकर रहना चाहिये (उनसे सब कुछ सिखना नाकी उनके सामने होशियार बनकर रहना) और सांसारिक जनों के समक्ष हमें श्रीवैष्णव बनकर रहना चाहिये। और आचार्य भी अधिक प्रसन्न होंगे जब उन्हें यह पता चलता है की उनका शिष्य भगवद / भागवत विषय पर चर्चा कर रहा है – इसलिये जब भी आचार्य हमें बोलने के लिये कहते है, तो उस समय हमें इनकार नहीं करना चाहिये – हमें दीनता से भगवान और भागवतों की स्तुति करनी चाहिये।
- भागवत गोष्ठी में रहते समय अकेले ही गाना शुरू करना विरोधी है। सामान्यत: गोष्ठी में एक मार्गदर्शक होता है जो पहिले “सातित्तरुल” ऐसा कहकर प्रारम्भ करता है जिसका अर्थ कृपया प्रारम्भ किजीए। उसके पश्चात ही हमें प्रारम्भ करना चाहिये। यहीं शिष्टाचार है।
- प्रधान गायक गाने के पश्चात हमारा न गाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: अहंकारवश बहुत जन अपनी प्रधानता बताना चाहते है और केवल प्रारम्भ करते है। ऐसे जन जब कोई ओर मार्गदर्शक होता है तब गोष्ठी में अपना मुह बन्द रखते है। यह अच्छा शिष्टाचार नहीं है।
- पाशुर के दूसरे भाग को गाने से हिचकिचाना। अनुवादक टिप्पणी: सामान्यत: गोष्ठी में शिक्षीत/ज्येष्ठ अध्यापक पाशुर का पहिला भाग गाते है और अन्य छोटे जन पाशुर का दूसरा भाग गाते है। यह प्रक्रीया दोषरहित है और दो गाने वालों को सही विराम प्रदान करता है ताकि लम्बे समय तक गा सके। यह दिव्य प्रबन्ध के समय यह सामान्य अभ्यास है। किसी भी परिस्थिती में किसी को भी दूसरा भाग आसानी से गाने के लिये आना चाहिये।
- जल्दी से गाने में कोई शब्द चुकना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: दिव्य प्रबन्ध को एक सामान्य गति से गाना चाहिये ताकि सभी उसे सही तरिके से अनुसरण, गान और समझ सके। उसे जल्दी से नहीं गाना चाहिये ताकि कोई शब्द चुक जाये।
- गोष्ठी में जब भी कोई श्रीवैष्णव कुछ गलत उच्चार करते है तो उनका मज़ाक या हँसी नहीं उड़ाना चाहिये। न सभी के सामने उनकी गलती बताना चाहिये। उन्हें अकेले में बुलाकर बड़ी नम्रता समझाना चाहिये।
- प्रबन्ध और पधिगम के शुरू और अन्त का पाशुर को दो बार गाना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। इसमें कुछ अपवाद भी होते है। (अनुवादक टिप्पणी: जैसे चरम कैंकर्य आदि के समय सभी पाशुर एक ही बार गाया जाता है।
- श्रीशठकोप स्वामीजी का नाम सुनकर अंजली (नमस्कार) नहीं करना बाधा है। प्रबन्ध/पाधिगम के अन्त में सामान्यत: श्रीशठकोप स्वामीजी का नाम लिया जाता है। उस समय यह नियम है कि दक्षीण दिशा में घुमकर नमस्कार करें (आलवार तिरुनगरी भारत के दक्षीण में है)। अनुवादक टिप्पणी: यह अन्य आलवारों के लिये भी लागु है। अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार, कण्णिनुण् शिरुत्ताम्बु के व्याख्या और आचार्य हृदय में इस तत्व को दर्शाते है – कि श्रीवैष्णवों के लिये श्रीशठकोप स्वामीजी का नाम सुनकर दक्षीण दिशा में घुमकर नमस्कार करना और हमारे पर इतनी कृपा करने हेतु, हमें उनके प्रति आभार प्रगट करने के लिये यह जरूरी है। यह चिंताजनक बात है कि शिक्षीत जन भी सेवा के समय श्रीशठकोप स्वामीजी का नाम सुनकर अंजली नहीं करते है। यहाँ श्रीशठकोप स्वामीजी नाम बताया गया है, वहीं अन्य आलवारों के लिये भी लागु है।
- दिव्य प्रबन्ध गाने के पश्चात शातूमोराई नहीं निभाना बाधा है। जब भी दिव्य प्रबन्ध गाया जाता है तो एक सही प्रक्रीया को निभाना चाहिये। हम सार्वजनिक तनियन से प्रारम्भ कर फिर उस विशेष प्रबन्ध को क्रम में गाकर और अन्त में शातूमोराई को जैसे मन्दिर, मठ, तिरुमाली आदि में चलन है करते है। केवल दिव्य प्रबन्ध बिना नित्य नियम के गाना सही नहीं है।
- दूसरों को दिव्य प्रबन्ध सिखाने के समय उनसे कोई सांसारिक लाभ का मोह नहीं करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: दिव्य प्रबन्ध पूर्णत: भगवान के कैंकर्य और मंगलानुशासन पर केन्द्रीत होता है। इसलिये दिव्य प्रबन्ध सिखाने का उद्देश्य अन्य को भी भगवान को मंगलानुशासन करने के लिये प्रेरित करना है। यही एक उद्देश्य है – अन्य लाभ के लिये कोई स्थान नहीं है।
- धन के बदले किसी को दिव्य प्रबन्ध नहीं गाना चाहिये। एक नौकरी समझकर आलवारों के दिव्य प्रबन्ध को धन के बदले बेचना या दिव्य प्रबन्ध गाना पाप है। कोई खुशी से सम्भावना देते है तो उसे स्वीकार कर सकते है – परन्तु कोई मांग नहीं करनी चाहिये।
- जो लोग देवतान्तर में फंसे है उनके घर में दिव्य प्रबन्ध गाने के लिये नहीं जाना चाहिये। यह गानेवाले के स्वरूप को बिगाड़ता है। यह नित्य कर्मानुष्ठान करने जैसा है, जो सांसारिक जन घाट पर करते है – यह केवल जो पवित्र है उन्हें दूषित करता है। यह कहा जाता है कि देवतान्तर के मन्दिर के सामाने श्रीशठकोप स्वामीजी का नाम सुनकर भी अंजली देने कि कोई आवश्यकता नहीं है।
- विष्णुसहस्त्रनाम, एलै एतलन (तिरुमौली 5.8), अलियेल (तिरुवाय्मौली 7.4) पाशुर को बीमारी ठीक करने के लिये गाना बाधा है। सामान्यत: यह समझाया जाता है कि विष्णुसहस्त्रनाम और यह पाशुर बीमारी ठीक करने हेतु गाया जाता है। परन्तु क्योंकि हमें अपने शरीर को नहीं देखना है इसलिये उसके ठीक करने हेतु यह गाना बाधा है। दूसरे को ठीक करने हेतु यह गाना ठीक है।
- आचार्य की स्तुति किए बिना भगवान की स्तुति करना बाधा है। सामान्यत: दिव्य प्रबन्ध के पहिले तनियन गाया जाता है। श्रीदाशरथी स्वामीजी कहे कि “बिना गुरु परम्परा मन्त्र के द्वय मन्त्र का उच्चारण करना देवतान्तर कि पूजा करने के समान है”। अनुवादक टिप्पणी: हम कई पूर्वाचार्य के ग्रन्थ स्तोत्र में यह देख सकते है जैसे श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी का स्तोत्र रत्न, श्रीकुरेश स्वामीजी का स्तव, श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी का श्रीरंगराज स्तव आदि में शुरू में कई श्लोक में गुरु परम्परा, आलवार, आचार्य कि स्तुति है उसके पश्चात सही स्तोत्र शुरू होता है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी यही तत्व श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के सूत्र २७४ में दर्शाते है “जपतव्यम गुरु परंपरैयुं द्वयमुम्” – सभी को निरन्तर गुरु परम्परा का मन्त्र (अस्मद गुरुभ्यो नम:….. श्रीधराय नम:) और द्वय महा मन्त्र को जपना चाहिये – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने व्याख्यान में यह समझाते है कि गुरु परम्परा का अर्थ अपने स्वयं के आचार्य से शुरू होकर भगवान श्रीमन्नारायण पर्यंत है और द्वय मन्त्र अपने गुरु परम्परा के आचार्य से प्राप्त प्रसाद है।
-अडियेन केशव रामानुज दासन्
आधार: https://granthams.koyil.org/2014/02/virodhi-pariharangal-13/
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