विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २०

श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्रीवानाचलमहामुनये नमः  श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १९

वैत्तमानिधि (महान निधि) – तिरुक्कोलुर – हमारी सच्ची सम्पदा

५१) अर्जन विरोधी – धन कमाने में बाधाएं

अर्जन का अर्थ धन कमाना है। यह विषय बहुत बड़ा है। कुछ पहलु स्पष्ट भी नहीं है। बड़ों से पुछने पर भी मुझको (व्ही॰व्ही॰रामानुजन स्वामी) संतोषजनक उत्तर नही मिले। मैंने जितना समझा है उतना लिखा है। सामान्यत: धन कमाना, धर्म मार्ग की सीमाओं में होना चाहिये। हमें अपने वर्ण और आश्रम के मर्यादा के भीतर रहकर धन कमाना चाहिये। जैसे पुराने तमिल में कहावत है कि “पोतुमेनर मनमे पोन् चेय्युम मरुन्तु” जितना चाहिये उतने में संतुष्ट रहना उत्तम दवा है, हमें अपने मन को जो उपलब्ध है उसके लिये तैयार करना चाहिये। सभी शास्त्र विरुद्ध तरीके से बचना चाहिये। दूसरों को धोका देकर, झूठ बोलकर, अपहरण कर आदि से धन कमाने से दूर रहना चाहिये। लालच से तो पूरी तरह दूर रहना चाहिये। जल्दी धन कमाना, गलत तरीके से धन कमाना, अपने विवेक के विरुद्ध धन कमाना आदि पुराने जमाने में भी होता था। मैं (व्ही॰व्ही॰रामानुजन स्वामी) यह निर्धारित करता हूँ कि भ्रष्टाचार कि राशी राजनीति और अन्य धन कमाने के तरीके पुराने जमाने में नहीं थे। इसे हमे ध्यान में रखना चाहिये। अब हम इसमें बाधाएं देखेंगें। अनुवादक टिप्पणी: धन कमाने का सामान्य तत्व यह देखा गया है कि कुछ भी सेवा के बदले में उसका मोल मांगना। जो कुछ भी इच्छापूर्वक दिया गया हो उसे संतुष्ट होकर अपनाना चाहिये और अपने शरीर के लिए जरूरत से अधिक धन कमाने का लालच नहीं करना चाहिये। और श्रीवैष्णवों के लिये सच्चा धन तो भगवान के चरण कमल हीं है। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी स्तोत्र रत्न में यह घोषणा भी करते है “धनं मदीयं तव पाद पङ्कजं” – आपके चरण कमल हीं मेरा धन है। भगवान और भागवतों कि सेवा कैंकर्य को भी धन कहा गया है। हमारे आल्वार और आचार्य पूरी तरह सांसारिक धन से दूर रहे और केवल भगवान और भागवतों कि सेवा पर हीं केन्द्रीत रहे। इसलिये हमें भी सच्चे धन कि ओर पूरी तरह केन्द्रीत रहना चाहिये नाकि सांसारिक धन कमाने में।

  • वैष्णव होने के पश्चात भी दान स्वीकार करना बाधा है। सामान्यत: धर्म शास्त्र में ब्राह्मणों को दान देना और और उसे स्वीकार करना दोनों अधिकार प्राप्त है। यहाँ हमें यह समझना चाहिये कि दान एकत्रित करना और बटोरना दोनों अपराध है। जब कोई दान स्वीकार करता है तो जिसे जरूरत हो उसे दे देना चाहिये।
  • अगर कोई गलती करता है तो उसे उस गलती के लिये दान देने कि सलाह करना और ऐसे दान हितकारी होगा ऐसा कहना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: आज कल देखा जाता है कि कई लोग गलती के लिये साधक को उस दुख से दूर करने हेतु दान देने कि परामर्श देते है। कभी कभी जो परामर्श देते है उन्हे हीं उस दान का लाभ मिलता है। ऐसे कार्य से निश्चित रूप से बचना चाहिये। हमारे भगवान, आल्वार और आचार्य सांसारिक दुखों को दूर करने हेतु को उपचार नहीं बताते है। उनकी उपस्थिती का कारण सभी को संसार बन्धन से मुक्त करना है। सभी को यह समझना चाहिये और दूसरों को यह सलाह देना चाहिये कि सिर्फ भगवान, आल्वार और आचार्य कि पूजा कर पूरी तरह उनकी शरण हो जाये।
  • दान द्वारा दूसरों से धन स्वीकार करना बाधा है। सामान्यत: जब भी दान दिया जाता है दान देनेवाला हाथों में जल लेकर उसे जमीन पर छोड़ता है और यह निश्चित करता है कि वह धन दान लेनेवाले का है। इसे तमील में ऐसे समझाया गया है धारै वार्त्तुक कोदुत्तल। वैदीक धर्म में दान करने पर “श्रोतृीयाय श्रीवैष्णवाय साम्प्रदते नमम” यह उच्चार करते है कि वह वस्तु अब दान देनेवाले कि नहीं है। भगवान वामन अवतार लेकर धरती पर आये और बली राजा से दान स्वीकार किये – इस घटना की आल्वारों ने अपने पाशुरों में बड़ी स्तुति कि है। उन्होंने यह काम अपने भक्तों कि रक्षा हेतु अपनी महानता को कम करके भी किये है। यह भगवान का निस्वार्थ चरित्र है। परन्तु यह कहा गया है कि इस तरह हमें अपने स्वार्थ के लिये दान को स्वीकार नहीं करना चाहिये।
  • अपने जीवन के अंतिम साँस लेनेवाले लोगों से दान स्वीकार करना बाधा है। काल दानं – वह जो अपने शरीर का त्याग करते समय अपने पापों को मिटाने हेतु दान करता है। कुछ अनाज, सोना आदि दान में देते है। परन्तु किसी भी लालच में इसे स्वीकार नहीं करना चाहिये। यह श्रीवैष्णवों के सच्चे स्वभाव को नष्ट कर देता है।
  • श्राद्ध में भोजन कर धन एकत्रीत करना बाधा है। श्राद्ध का अर्थ वह वैदीक कर्म जो माँ, पिताजी आदि के मृत्यु के तिथी के दिन प्रति वर्ष करते है। वह जो पितृ के प्रति भी किया जाता है उसे भी श्राद्ध कहते है। इसमें वह जो यह कर्म करता है ३ ब्राह्मणों को आमंत्रित करता है जिनको पितृ (जिनके लिये हम श्राद्ध करते है), विश्वदेवर और विष्णु का स्थान मानते है, उन्हें कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाते है और अन्त में संभावना और ताम्बूल देते है। पुराने जमाने में जब भी किसी को निमंत्रण दिया जाता था श्रीवैष्णव उसे स्वीकार कर उस वैदीक कर्म को पूर्ण करते थे। श्रीवैष्णवों को निमंत्रण देने का अभ्यास था। परन्तु आजकल देखा जाता है कई जन श्राद्ध में भोजन करने को रोजगार बना लिये है और उससे धन कमाते है। यह आसानी से समझा जा सकता है कि यह क्रिया घृणा योग्य है।
  • दूसरों को कोई रस्म बताकर धन कमाना बाधा है। सरल और अज्ञानी जनों को उनके सेहत, धन आदि के विषय में कुछ रस्म बताकर धन कमाना पूरी तरह धोखा देना है और इससे बचना भी चाहिये।
  • किसी के घर आदि के विषय में ज्योतिष सलाह देकर धन कमाना बाधा है।
  • गाँव के मुखिया होने कि वजह से (सांसारिक विषय, जमीन कि लड़ाई आदि को सुलझाने के लिये) धन कमाना बाधा है। श्रीरामायण के उत्तर काण्ड के ६९वें सरगम में एक घटना बतायी गयी है। एक ब्राह्मण एक कुत्ते को क्रोध के कारण चोट पहूंचाता है। वह कुत्ता श्रीराम के दरबार में वैसे ही घायल अवस्था में आकर उस ब्राह्मण कि शिकायत करता है। श्रीराम उस ब्राह्मण को दरबार में बुलाकर विषय के बारें में उससे पूछते है। वह ब्राह्मण कहता है “मैं बहुत भूखा था, भोजन के लिये भीख माँग रहा था और बहुत थका हुआ था। क्योंकि यह कुत्ता उस समय मुझे परेशान कर रहा था मुझे क्रोध आया और मैंने उसे चोट पहूंचाई। मुझे जो भी सजा मिले मैं स्वीकार करूँगा”। श्रीराम उस कुत्ते के निकट जाकर उसे उचित दण्ड देने को कहते है। वह कुत्ता उस ब्राह्मण को एक गांव का मुखिया बनाने को कहता है और श्रीराम भी यह आज्ञा कर देते है। ब्राह्मंड उस कुत्ते से पूछता है ऐसा दण्ड क्यों? वह कुत्ता उत्तर देता है “मेरे पिछले जन्म में मै भी एक गाँव का मुखिया था। जहाँ तक मुझे स्मरण है मैंने सभी को समान-रूप से देखा, सभी से सभ्य तरीके से व्यवहार किया और सभी गांववालों का पूर्ण ध्यान रखा। फिर भी मैंने इस तुच्छ योनी में अगला जन्म पाया। मुझसे कोई अन्याय/ अपराध बना तों होगा यद्यपि वह अनजाने ही हुआ हो। या मेरे सहायको से कोई अपराध हुआ होगा। जिसके कारण मैं इस परिस्थिति में हूँ”I अत: हम यह समझ सकते है कि किसी गाँव कि मुखिया होना भी कठीन कार्य है और इससे बचना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: यह स्मरण रखना है कि किसी भी देश के राजा को उसके प्रजा के पापों के लिये दण्ड भोगना पड़ता है। ऐसे ही तत्व गाँव के मुखिया होने पर भी समझा जा सकता है। गलत तरिके से धन कमाने से बचना चाहिये।
  • बच्चों को मूलभूत शिक्षा देने में धन कमाना भी बाधा है। हमें शिक्षा से धन कमाने पर ध्यान केन्द्रीत नहीं करना चाहिये – अगर शिष्य स्व-इच्छा से गुरु दक्षीणा अपने गुरु को देता है तो उसे खुशी से स्वीकार कर सकते है और शिक्षक भी जितना दिया गया है उसमें संतुष्ट होना चाहिये।
  • अपने पांडित्य/ ज्ञान की बढाई कर धन कमाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: यह कहा गया है कि “विद्या ददाति विनय:” – ज्ञान से विनम्रता आती है। जब कोई ज्ञानी हो तो उसे अपने ज्ञान कि बढाई धन कमाने के लिये नहीं करनी चाहिये। अपितु वे ज्ञान से अधिक विनम्र होंगे और निस्वार्थ शिक्षा और व्यवहारिक उदाहरण से दूसरों को भी सिखायेंगे।
  • दूसरों कि बढाई कर के धन कमाना बाधा है। सहस्रगीति के पाधिगम “चोन्नाल विरोधं”, के पहिले पाशुर में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “एन नाविलिंकवि यान् ओरुवर्क्कुम कोडुक्किलेन्” – मैं अपनी प्रिय कविता भगवान को छोड़ अन्य किसी को भी नहीं दूँगा। श्रीशठकोप स्वामीजी आगे कवियों को यह परामर्श भी देते है कि धनी लोगों कि प्रशंसा कर धन मत कमाओं, जिस के फलस्वरूप नीचे गिर जाओ। अनुवादक टिप्पणी: पुराने जमाने में कवि जन बहुत गरीब होते थे और वे राजा या कोई अमीर व्यक्ति के पास जाकर उनकी कविता द्वारा स्तुति करते थे। खुश होकर अपनी बढाई सुनकर राजा/ अमीर व्यक्ति उन्हें तोफे देते थे। आजकल के जमाने में भी कई जन धनी लोगों कि बिना वजह गुण गान कर उनसे धन प्राप्त करते है और इस संसार से पूरी तरह बन्ध जाते है। इस तरह के व्यवहार की हमारे आल्वारों और आचार्यों से निन्दा कि है क्योंकि यह स्वभाव भगवान के दासों के स्वभाव से बिल्कुल विपरीत है।
  • दूसरों का धन/संपत्ति चुराकर धन कमाना बाधा है।
  • दूसरों को धोखा देकर, छल-कपट से धन कमाना बाधा है।
  • जो यात्रा पर है उनका धन चुराना भी बाधा है।
  • दूसरों को अप-शब्द बोलकर धन कमाना बाधा है। श्रीगोदम्बाजी तिरुपावै के दूसरे पाशुर में कहती है “तीक्कुरलैच्चन्रोदोम” जिसका अर्थ है “हम किसी भी कीमत पर दूसरों को अप शब्द नहीं बोलेंगे”। अनुवादक टिप्पणी: पेरियवाच्चान पिल्लै और अळगिय मणवाल पेरुमाल नायनार अपने व्याख्यान में माता सीता कि महिमा को दर्शाते है जब वे अशोक वन में थी, राक्षसीयों द्वारा कष्ट देने पर भी उन्होंने भगवान राम को एक शब्द नहीं कहा। आय जनयाचार्य बड़ी सुन्दरता से दर्शाते कि हमें श्रीवैष्णवों कि गलतीयों को अपने मन में भी नहीं लाना चाहिये क्योंकि हृदय में अन्तरयामी भगवान विराजमान होते है – हृदय में लेने से भगवान को पता चल जायेगा – इसलिये दूसरों कि भी गलतियां लाने से बचना चाहिये।
  • दूसरों को यह अहसास दिलाना कि हम बहुत महान है और उन्हें हमारी अधीन होकर रहना है और उनसे धन आदि कमाना भी बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: कुछ लोग अपनी पहचान बड़े लोगों से है उसकी ढींगे मारते है और दूसरों को यह विश्वास दिलाते है कि वह बहुत ताकतवर है। जब लोग उन पर विश्वास करते है तो सांसारिक सुख के लिये वें उन्हें धन आदि देना प्रारम्भ कर देते है। ऐसे स्वभाव कि यहाँ निन्दा की गयी है।
  • पुराण पढ़कर और पुराणों पर प्रवचन कर कमाना बाधा है। पुराण पढ़कर प्रवचन देना गलत नहीं है परन्तु उससे धन कमाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जैसे पहले समझाया गया है जो अपनी खुशी से देता है उसे लेना गलत नहीं है।
  • ग्रन्थों को चुराकर धन कमाना बाधा है। पुराने जमाने में साहित्य को ताड़ के पत्तों पर लिखा जाता था। वह सभी हाथ से लिखते थे जो वे बहुत कष्ट लेकर लिखे है। वह अनमोल धन है। उसे चुरा कर बेचना बहुत बड़ा पाप है। अनुवादक टिप्पणी: आज के दिनों कि परिस्थिती में हम यह देख सकते है कि लोग दूसरे के काम को चुराते है, प्रकाशित करते है और धन कमाते है और मूल लेखक को उसके हक का कुछ भी नहीं देते है।
  • कान के बाली को उठाकर धन कमाना बाधा है। इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है।
  • उच्च परिवार/ जाति में जन्म लेने के लिये किसी कि प्रशंसा कर धन कमाना बाधा है। कुलाधिकम – अभिजात्यम – उच्च परिवार में जन्म लेना। हम यह देख सकते है कुछ जन लोगों से कहते है कि “यह व्यक्ति का जन्म उच्च परिवार में हुआ है, आप इनका सन्मान/पूजा करें और इन्हें धन दे” और फिर ऐसा धन ग्रहण करते है। ऐसे व्यवहार कि निन्दा होती है। अनुवादक टिप्पणी: हम श्रीकुरेश स्वामीजी कि महिमा को स्मरण कर सकते है। – उनकी “मुक्कूरुम्बु अरुत्तवर” कहकर स्थिति कि गयी है – वह जो पूर्ण रूप से तीनों दोषों से मुक्त है यानि यह सोचना कि मैंने बड़े परिवार में जन्म लिया है, मैं बहुत धनी हूँ, मैं बहुत ज्ञानी हूँ – यद्यपि श्रीकुरेश स्वामीजी बड़े परिवार में जन्म लिये, धनी थे और शास्त्र के बहुत बड़े ज्ञानी थे। उन्होंने कभी स्वयं अपनी बढाई नहीं कि – श्रीवैष्णवों का यही सच्चा स्वभाव है।
  • स्वयं के परम्परागत स्वभाव कि बढाई करना कि मै इन सब का पालन करता हूँ और धन कमाना बाधा है।
  • सब को यह विश्वास दिलाना कि “अहं ब्रम्हा” और उससे कमाना। “अहं ब्रम्हा” अद्वैत तत्व है। अद्वैतों (कुदृष्ठी – जिसकी आँखों कि रोशनी खराब हो) ने इसका अर्थ इस तरह निकाला है कि जीवात्मा और ब्रम्हा समान है। यह तत्व श्रीरामानुज दर्शन से बिल्कुल विपरीत है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि “मैं महान हूँ” और ऐसे शिक्षा से धन कमाता हूँ। ऐसे कार्य कि भी यहाँ निन्दा की गयी है।
  • शास्त्र आदि में अपने ज्ञान कि बढाई करना बाधा है। हमें अपने स्वयं के ज्ञान के प्रचार में कभी नहीं लगना चाहिये और उससे धन नहीं कमाना चाहिये।
  • अपनी बहादुरी कि बढाई कर धन कमाना बाधा है। आज कल हम देखते है चोर आदि यह काम करते है।
  • जादु आदि दिखाकर धन कमाना बाधा है।
  • अज्ञान जनों को अपनी ओर आकर्षित कर धन कमाना बाधा है। मन्त्र, काला टीका, सम्मोहित करना आदि से दूसरों से धन लुटा जाता है। ऐसे कार्य निन्दनिय है।
  • वैद्य होकर धन कमाना बाधा है। चिकित्सा संबंधी व्यवसाय में दूसरों कि सहायता करना चाहिये नाकि धन कमाना।
  • धन का खजाना दिखाने का वचन देकर धन कमाना बाधा है।
  • निम्न जनों (सांसारी – वह जो सांसारिक खुशी कि ओर लगे हुए है) के लिये काम कर धन कमाना बाधा है।
  • कीमियागर बनकर धन कमाना। यह एक रसायन विद्या है जिसमें लोहे, ताम्बे आदि को सोने में परिवर्तित करते है। यह आज के जमाने में करना सम्भव नहीं है। परन्तु दूसरों को यह भरोसा देना कि यह किया जा सकता है और उन्हें धोखा देना बाधा है।
  • राजा कि बढाई कर धन कमाना बाधा है। इसे अधीक समझाने कि आवश्यकता नहीं है। यह आज कल सामान्य है।
  • सांसारिक समाचार आदि दिखाकर धन कमाना बाधा है। कुछ लोग केवल दूसरों कि गप्पे लगाकर जीते है – ऐसा व्यवहार निन्दनिय है।
  • जानवरों के काटने से जहर निकालने में निपुण होकर उससे धन कमाना बाधा है। साँप, बिच्छु आदि काटने से मनुष्य के शरीर में जहर फैलता है। कुछ दवा और मन्त्र द्वारा इसको ठीक किया जा सकता है। इसे दूसरों कि मदद के उद्देश से करना चाहिये नाकि व्यापार करना चाहिये।
  • भगवद विषय सिखाकर धन कमाना। यद्यपि श्रीसहस्रगीति और उसके व्याख्या दोनों को मिलाकर भगवद विषय कहते है, वह भगवान के विषयों में एक सामान्य शब्द है। उसे कोई सांसारिक लाभ के लिये नहीं दूसरों के उद्धार के लिये कहना चाहिये।
  • किसी की भगवान के प्रति श्रद्धा की बढाई करना बाधा है। हमें भगवान के प्रति श्रद्धा कोई लाभ हेतु नहीं करना चाहिये। उसका प्रचार नहीं करना चाहिये।
  • दिव्य प्रबन्ध का अनुसंधान कर धन कमाना बाधा है। किसी को भी दिव्य प्रबन्ध गाकर सांसारिक लाभ नहीं पाना चाहिये।
  • अपनी या दूसरों कि स्तुति कर धन कमाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: आल्वार इस तरह कि स्तुति कर धन कमाने कि कड़ी निन्दा करते थे। उन्होंने पक्की तरह यह स्थापित किया कि हमारी जीभ (बोली) भगवान और भागवतों कि स्तुति करने हेतु है और उसे कोई दूसरे कार्य हेतु उपयोग नहीं करना चाहिये।
  • बलिदान करके कमाई से अर्जित करना एक बाधा है। हमेशा यह देखा जाता है की जब धन का प्रस्ताव आता है तब कुछ लोग मौखिक रूप से “ना” बोलते है परंतु उनके हाथ उसे स्वीकार करने हेतु पूरी तरह खुले रहते है, ऐसे बर्ताव की यहा निंदा की गयी है। दूसरों के प्रति विश्वास / दयालु होने का दिखावा करना बाधा है।
  • अपनी असहाय परिस्थिती दिखाकर धन कमाना बाधा है।मेरा कोई और रक्षक नहीं है यह बताकर धन कमाना बाधा है।
  • भगवान / आचार्य के कैंकर्य के नाम पर धन कमाना और इस तरह के पैसे को निजी परिस्थिती के लिये उपयोग करना बाधा है।
  • सन्यासी होने का दिखावा कर धन कमाना बाधा है।
  • भगवान के लिये पुष्प वाटिका आदि है ऐसा बताकर धन कमाना बाधा है।
  • भगवान को पुष्प हार अर्पण करने का दिखावा कर धन कमाना बाधा है।
  • तिरुपति जैसे दिव्य देशों कि सहायता करता हूँ ऐसा बहाना कर धन कमाना बाधा है। आज कल यह सामान्यत: देखा जा सकता है दिव्य देशों के कैंकर्य के नाम पर धन जमा करते है। इसकी यहाँ निन्दा कि गयी है।
  • उत्सवों के समय श्रीवैष्णवों के लिये रहने, भोजन आदि कि व्यवस्था के नाम पर धन कमाना बाधा है।
  • उत्सवों में विशेष पूजा आदि करवाने का वादा करना बाधा है। सामान्यत: यह देखा जाता है कि कुछ पाशुर जैसे “पोलिग पोलिग” (सहस्रगीति), “उलगमुंड पेरुवाया’” (सहस्रगीति), “कंगुलुम पगलुम” (सहस्रगीति), “नारु नरुम पोळिल” (नाचियार तिरुमौली), आदि गाया जाता है, तब भगवान को विशेष भोग लगाया जाता है। यह भी देखा जाता है कि जब स्थल पाशुर (जहाँ उत्सव हो रहा है उस विशेष दिव्य देश से संबन्धित पाशुर) विशेष भोग चढ़ाया जाता है। इस परिस्थिती का कोई लाभ लेकर धन नहीं कमाना चाहिये।
  • दिव्य प्रबन्ध के शातुमोराई कर धन कमाना बाधा है।
  • तिरुवद्यनम करने का वादा कर धन कमाना बाधा है। तिरुवद्यनम यानि दोनों उभय वेद पारायण (संस्कृत वेद और द्राविड वेदों का उच्चारण करना) और पितृ कैंकर्य (श्राद्ध)।
  • भगवान का तिरुवाराधन कर धन कमाना बाधा है। आजकल स्वयं के तिरुमाली के भगवान के तिरुवाराधन करने हेतु लोग दूसरों को नियुक्त करते है। यह सही व्यवहार नहीं है। हमें अपने तिरुमाली में स्वयं ही तिरुवाराधन करना चाहिये। जैसे हम अपना संध्यावंदन स्वयं करते है वैसे ही भगवान कि तिरुवाराधन हमें हीं करनी चाहिये – इससे कोई बच नहीं सकता है।
  • खेतों में शारीरिक मेहनत कर धन कमाना बाधा है। हमारे वर्ण और आश्रम के अनुसार हमारे लिये जो सही है वों ही करना चाहिये।

इस विषय से प्रारम्भ कर एक छोटी सी चर्चा मुष्टि कूडै पर हुई। क्योंकि अधीक विषय कई समय से चलन में नहीं है इसीलिए कुछ विषय हमने बड़े ही विस्तार से चर्चा नहीं किये है। मैं श्री व्ही॰व्ही॰रामानुजम स्वामी अपने समझ के अनुसार लिख रहा हूँ। इस समझ में कुछ कमीयाँ भी हो सकती है। चर्चा में कई जगह “मुष्टि”, “मुष्टि पुगुरुगै”, “मुष्टि कूडै”, “मौष्टिका व्यावृत्ति” आदि का उपयोग हुआ है। मुष्टी यानी सामान्यत: मुठ्ठि – मुख्यत: यह हाथ भर चावल पर केन्द्रीत है। हम श्रीवेदान्तचार्य स्वामीजी कि श्रीसूक्ति को फिर से पढ़ सकते है “यो सौदयालु: पूरादाना मुष्टिमुचे कुचेलमुनये धत्तेस्म”– अपने स्वाभाविक कृपा से भगवान कुछ समय पहिले ही कुचेला के एक मुट्ठी टूटे हुए चावल के बदले में कुचेला को बहुत धन प्रदान किये है। यह दान माँगने का पहलू ब्राम्ह्णों के वर्ण धर्म में है। सुबह अपने नित्य अनुष्ठान के पश्चात उन्हें कुछ चुने हुए घरों में जाकर भगवान का नाम लेकर भिक्षा “भवाती भिक्षाम देही” यह कहकर मांगना है। थोड़ा चावल माँगकर उन्हें अपना जीवन व्यतित करना है। महाभारत में जब पाण्डव अज्ञात में ब्राम्ह्ण वेष धारण किये तो वे दान स्वीकार कर के ही रहते थे। श्रीकुरेश स्वामीजी जो बहुत धनवान शासक थे अपना सारा धन दान कर श्रीरंगम में आकार श्रीरामानुज स्वामीजी के शरण आ गये और भीक्षा माँगकर अपना जीवन व्यतित करते थे। एक दिन बारीश के कारण वह भिक्षा ग्रहण करने नहीं जा सके। उस समय आण्डाल (उनकी धर्मपत्नी) को अपने पति को भूखा देखकर बहुत दुख हुआ और उन्होने श्रीरंगनाथ भगवान से प्रार्थना की। श्रीरंगनाथ भगवान उसी समय अपना प्रसाद भेजे जिसकी कृपा से श्रीकुरेश स्वामीजी और आण्डाल को दिव्य पुत्र हुए जिन्हें हम श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी और वेदव्यास भट्टर स्वामीजी के नाम से जानते है। भिक्षा को यहाँ “मुष्टी” कहते है। भिक्षा पात्र को “मुष्टी कूडै” कहते है। प्रतिदिन सभी को भिक्षा मांगकर दान स्वीकार कर जीना चाहिये। उस दान को भगवान के तिरुवाराधन के लिये, श्रीवैष्णवों के सत्कार आदि के लिये उपयोग मे लाना चाहिये और अन्त में प्रसाद स्वीकार करना चाहिये। ब्राम्हणों को कभी भी भविष्य के लिये धन एकत्रीत नहीं करना चाहिये। पुराने जमाने में ऐसे बहुतसी पाबंदीया थी और उसे बड़ी कठोरता से पालन किया जाता था।

  • श्री विष्णुचित्त स्वामीजी पेरियाल्वार तिरुमोली में कहते है “पिच्चै पुक्कागिलुम एम्पिरान् तिरुनाममे नच्चुमिन्” – अगर आप को भिक्षा भी मांगनी पड़ी तो भी आप मेरे प्रिय भगवान श्रीमन्नारायण का नाम प्रेम से स्मरण करें – परन्तु कभी भी भगवान का नाम चिल्लाकर लेना और धन कमाना बाधा है। यहाँ हम समझ सकते है की “धन अर्जन के लिए जबरदस्ती जोर देकर भीक मांगना” और इससे बचना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: यह पाशुर “कासुम् करैयुदै” पाधिगम का एक भाग है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी व्याख्या में समझाते है कि आल्वार सभी को यह प्रेरणा देते थे कि सभी अपने बच्चों का नाम भगवान के नाम पर रखे और आगे यह भी कहते है कि हमें अपनी जीविका भिक्षा मांगकर करना चाहिये नाकि कोई सांसारिक व्यर्थ नाम रखकर। अपने बच्चों का नाम भगवान के नाम पर रखे तो हम उनको पुकार कर निरन्तर भगवान का स्मरण कर सकते है। बच्चों का नाम भगवान के नाम पर रखे तो हम उनकी माता को नरकीय स्थानों पर जाने से रोक सकते है। विशेषकर ३रे पाशुर में श्रीवरवरमुनी स्वामीजी श्रीतिरुवैमोलि पिल्लै द्वारा बताई गयी श्रीनालूराचान पिल्लै से सम्बंधित एक घटना का वर्णन करते है। एक बार एक ब्राम्हण कि पत्नी एक बच्चे को जन्म देती है। उस ब्राम्हण को उसका नाम किसी देवता पर रखने कि इच्छा थी जिससे उसकी समृद्धि हो। कोई कहता है वैश्रवणन (कुबेर का नाम जो धन का देवता है)। वहाँ एक आस्तिक था वो कहता है “ऐसा कोई अर्थ रहित नाम मत रखिये। इसका नाम श्रीमन्नारायण के नाम पर रखे – उसको अगर उसकी जीविका के लिये भीख भी मांगना पड़े तो भी अच्छा है”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी यह समझाते है कि जब उस बच्चे का नाम भगवान के नाम पर होगा तो भगवान स्वयं उसकी रक्षा करेंगे ताकि उस बच्चे को भीख भी न मांगना पड़े – हमें भगवान पर पूर्ण विश्वास होना चाहिये कि वो हमारी रक्षा करेंगे। इस भाग मे भिक्षा मांगने पर अधीक चर्चा कि गयी है (जो ब्राम्हणों के जीविका के लिये जरूरी है), इसमे हम यह भी समझ सकते है कि वह दान जो हमें धन/संपत्ति दूसरों से दान में प्राप्त हुई है।
  • श्रीवैष्णव होकर दान के लिये भिक्षा मांगने से घबराना बाधा है। अपने वर्णाश्रम धर्म (ब्राम्हण/ ब्रम्हचारी/ सन्यासी) के अनुसार दान के लिये भिक्षा मांगना सही है। अनुवादक टिप्पणी: हम श्रीकुरेश स्वामीजी को स्मरण कर सकते है जिन्होंने दान हेतु भिक्षा मांगी। श्रीरामानुज स्वामीजी ने भी तब तक सन्यासी होकर स्वयं भिक्षा मांगी जब तक उन्हें जहर देकर मारने का प्रयास हुआ। श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी के आदेशानुसार किदाम्बी आचान को उनके लिये भिक्षा मांगने के लिये नियुक्त किया गया। पुराने जमाने में ब्रम्हचारी को गुरुकुल में भिक्षा मांगकर गुरु को देने कि प्रथा सामान्य थी।
  • पेट भरने के लिये भिक्षा मांगना और उससे धन कमाना बाधा है। उसे बुनियादी कार्य के लिये ही और कैंकर्य करने हेतु करना चाहिये।
  • भिक्षा अपने वर्णाश्रम के धर्म को समझते हुए मांगना चाहिये। यह समझ न होना बाधा है।
  •  भिक्षा यह समझ कर मांगना चाहिये कि हमारे पूर्वाचार्यों ने भी इसे किया है और यह हमारे शारीरिक सुविधा के लिये योग्य है। यह समझ न होना बाधा है।
  • जो दान में दिया है उससे संतुष्ट न होकर अपनी नाराजगी प्रगट करना बाधा है। हमें कुछ हीं स्थानों पर कुछ हीं समय पर मांगना और जो मिला है उससे संतुष्ट होना चाहिये।
  • दान में अधीक मिलने में अधीक संतुष्ट होना बाधा है। हमें यह सोचना चाहिये कि भगवान हम पर आज अधीक प्रसन्न होकर अधीक दिये है और हमें उसी दिन जरूरत जनों को दे देना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: भगवद गीता के २.१४ में भगवान कहते है “ मात्र स्पर्शस तु कौन्तेय सितोष्ण सुक धुक्क ध: आगमापायिनो नित्यास् तां तिथिक्षव भारत” – “हे कौंतेय (कुन्ती पुत्र अर्जुन) हमें गर्मी/सर्दी, खुशी/गम आदि जो इंद्रीयों से समझे जाते है उनसे घबराना नहीं चाहिये। हे भरत (भरत के वंशज) तुम्हें इस भेद-भाव को सहन करना सिखकर उससे ऊपर उठना चाहिये”। इसलिये तात्पुर्तिक खुशी या गम को कुछ समय सहन करना चाहिये।
  • पिछले बात की तरह हमें थोड़े से दान से भी संतुष्ट रहना चाहिये – हमें अधीक के लिये कभी भी लालच नहीं करनी चाहिये।
  • हमें भगवान का नाम ज़ोर से लेना चाहिये जैसे “गोविन्दा! गोविन्दा!” ताकि दान देनेवाला भगवान का नाम सुन सके। ऐसा न करना बाधा है।
  • भगवान का नाम शिष्टाचार के अनुसार लेना चाहिये और उसे उसी भावना से लेना चाहिये।
  • हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि भगवान का नाम लेना दान लेने का एक जरिया है। यह हमारे आगमन का सूचक है इससे लोगों को दान देने के लिये मजबूर नहीं करना है।
  • उस घर से दान कि भिक्षा मांगना जहाँ अन्य देवी देवता कि पूजा होती हो बाधा है। हमें देवता कि पूजा करनेवालों से दान ग्रहण नहीं करना चाहिये।
  • हमें उस घर से दान नहीं लेना चाहिये जहाँ भगवद तिरुवाराधन को नीचा देखा जाता है।
  • उस घर से दान ग्रहण करना जहाँ शुक्रवार को पोछा लगाया जाता है बाधा है। प्रति दिन पोछा न लगाकर केवल केवल शुक्रवार को पोछा लगाने वाले निंदा के पात्र है। अनुवादक टिप्पणी: यह शास्त्र मत हो सकता है कि शुक्रवार को पोछा नहीं करना चाहिए।
  • उस घर से दान लेना जहाँ के लोग भगवान का नाम सुनने से संतुष्ट न हो। यह बाधा है।
  • भगवान/भागवतों का जहाँ अपमान हो उस घर से दान लेना बाधा है।
  • उस घर से दान लेना जहाँ घरवाले भिक्षा मांगना एक श्रीवैष्णव कार्य है यह नहीं समझते है और ऐसे श्रीवैष्णव का अपमान करना बाधा है। भिक्षा श्रीवैष्णव धर्मानुष्ठान है – इसे निम्न नहीं जानना चाहिये।
  • उस गाँव में जाना जो देवतान्तर को प्रिय हो या वहाँ के जन देवतान्तर कि पूजा को अधीक महत्त्व देते है बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: ऐसे बहुत से गाँव है जो देवतान्तर के लिये विख्यात है – श्रीवैष्णवों को इससे बचना चाहिये।
  • उस गाँव में दान लेना जहाँ भगवान श्रीमन्नारायण का कोई मन्दिर न हो बाधा है।
  • उस घर से दान नहीं लेना जहाँ भगवद तिरुवाराधन नियमित रूप से नहीं होता है।
  • प्रपन्न होकर दिव्य प्रबन्ध का उच्चारण किसी विशेष उत्सव के दिन दान लेने जाते समय करना बाधा है। दिव्य प्रबन्ध प्रति दिन अर्थ के साथ उच्चारण याद करना चाहिये – इसे सिर्फ किसी विशेष दिन नहीं करना चाहिये।
  • जब भी किसी को समय मिले दिव्य प्रबन्ध को पाठ करना चाहिये और उसके अर्थ को स्मरण करना चाहिये। हमारा कीमती समय सांसारिक चर्चा में व्यर्थ हो रहा है। श्रीशठकोप स्वामीजी पेरिय तिरुवन्दादि में आश्चर्य करते है कि “कैसे लोग अपना समय भगवान और उनके विशेष गुणों को स्मरण किये बिना बिताते है?”
  • रहस्य मन्त्र/ग्रन्थों का सार्वजनीक स्थानों पर बात करना बाधा है। रहस्य यानी वह जो केवल आचार्य से हीं सुनना चाहिये और अनजाने मे उसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये।
  • गलत संगत होना बाधा है। गलत संग यानी बुरे दीमाग वाला, मूर्ख, जो किसी का सच्चा स्वभाव को नहीं समझता आदि। उपनिषद घोषणा करता है कि “असन्नेव सा भवतिअसत ब्रह्मेधि वेदाचेत” – जो भगवान के होने को नहीं मानता वह असत्य के समान हीं है।
  • सांसारिक सुखो से अपनी आंखों को नहीं हटाना बाधा है। हमें भगवद/भागवत विषय पर केन्द्रीत होना चाहिये और सांसारिक विषयों से बचना चाहिये जैसे स्त्री, नेतागीरी आदि। श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी अपने तिरुमालै में सांसरिक सुख कि ओर लगे हुओं कि कड़ी निन्दा करते है।
  • हमें सावधानी से कदम रखना चाहिये और अपने लक्ष्य कि ओर पूर्ण केन्द्रीत रहना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है।
  • दान मांगने जाते समय शान्त न रहना बाधा है।
  • आचार्य से अमुधु पड़ी कूङै (दान एकत्रित करने के लिए दिया गया बर्तन) को स्वीकार न कर उनकी सेवा न करना बाधा है।
  • ऐसी टोकरी खुशी से अपने सिर पर उठाना चाहिये और इसे किरीट समझना चाहिये। यह दान की टोकरी उठाना कोई छोटा काम नहीं है। ऐसा न करना बाधा है।
  • दान स्वीकार करने हेतु जाते समय हमें निरन्तर द्वय महा मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये। श्रीवैष्णवों के लिये निरन्तर द्वय मन्त्र का उच्चारण करना स्वाभाविक है। द्वय मन्त्र को अर्थानुसंधान कर स्मरण करना चाहिये। श्रीरंगनाथ भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीरंगम में रहकर द्वय मन्त्र को स्मरण करने कि आज्ञा किये है – “द्वयं अर्थानुसंधेन सह यावच्चरीर पादम अत्रैव श्रीरंगे सुकमास्व” – द्वय मन्त्र को उसके अर्थ सहित स्मरण कर अपना शेष जीवन श्रीरंगम में व्यतित करों।
  • जिनका पञ्च संस्कार न हुआ है उनसे दान स्वीकार करना बाधा है। पञ्च संस्कार वह क्रीया है जो एक व्यक्ति को श्रीवैष्णव सत सम्प्रदाय कि ओर अग्रेसर करता है। जब तक कोई इस प्रक्रीया से नहीं होता हम उनसे कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकते है।
  • जो साँप के आकार कि बाली कानों में पहनता है उनसे दान स्वीकार करना बाधा है। सामान्यत: श्रीवैष्णव सादी कान कि बाली पहनते है या फिर भगवान के जो शंख और चक्र है उसकी।
  • जिनमें अहम और गर्व का भाव हो उनसे दान स्वीकार करना बाधा है। हमें अपने आप को दास समझना चाहिये।
  • जब भी दान स्वीकार करते है उसमें एक भाग आचार्य, एक श्रीवैष्णवों का और एक भाग भगवान के लिये स्वीकार करना चाहिये। केवल अपने जरूरत के लिये ग्रहण करना सही नहीं है।
  • जो भी दान संग्रह किया जाता है उसे पहिले आचार्य के पास लाकर और तत्पश्चात उनकी आज्ञा हो तो अपने घर ले जाना चाहिये।
  • दान (कच्ची वस्तु) जो भी संग्रह करते है उसे सभी को दिखाना नहीं चाहिये। उसे बन्द डब्बे में घर ले जाकर, पकाकर, भगवान को भोग लगाकर फिर प्रसाद रूप में पाना चाहिये।
  • सांसारिक जनों कि प्रशंसा कर दान संग्रह नहीं करना चाहिये।
  • कुछ कमाते समय श्रीवैष्णवों पर दबाव नहीं डालना चाहिये।
  • आचार्य के धन/संपत्ति को चुराकर कमाना बहुत बड़ा पाप है।
  • भगवान के धन/संपत्ति को चुराकर कमाना बाधा है। मन्दिर के धन, संपत्ति आदि को नहीं चुराना चाहिये और ऐसे कार्य को बहुत बड़ा पाप समझा जाता है।
  • उन जनों से भिक्षा माँगना जो भगवान कि संपत्ति/धन को हीं चुराते है बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवचन भूषण में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी भिन्न भिन्न प्रकार के अपचार के बारें में समझाते है – भगवद अपचार, भागवत अपचार और असह्य अपचार। वह भगवान के धन को चुराने को भगवद अपचार समझाते है। यह भी नहीं दूसरों को भगवान के धन को चुराने में मदद करना और उसे भिक्षा माँगकर स्वीकार करना भी भगवद अपचार है। इससे पूर्णत: बचना चाहिये।

अनुवादक टिप्पणी: इस लम्बे विषय को समाप्त करने के लिये यह मुख्य है कि धन कमाते समय हमें सावधान रहना चाहिये। शास्त्र के दिखाये आदर्श को देखते हुए आज के पटकथा में जहाँ पूरी प्रणाली बिगड़ी है अभी हम बड़े कठीन परिस्थिती में है। शास्त्र विरोधी कमाया हुआ बहुत सारा धन अभी भी प्रचलन मे है। हमारे जरूरतों को कम करने हेतु यह ओर एक निर्देशन है। भगवान से निरन्तर प्रार्थना करता हूँ इस सांसारिक सोच और जीवन शैली से हमारी रक्षा करें।

अगले अंक में हम अन्य विषय में चर्चा करेंगे।

हिंदी अनुवाद- अडियेन केशव रामानुजदास

आधार – https://granthams.koyil.org/2014/04/virodhi-pariharangal-20/

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