विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २४

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ पर हिन्दी में देख सकते है।

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५६) तीर्थ विरोधी – तीर्थ (पवित्र जल) से सम्बंधित बाधाएं

श्रीदाशरथी स्वामीजी का श्रीपादतीर्थ ग्रहण कर सभी नगरवासी पवित्र होते हुए। श्रीआंध्रपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी का श्रीपादतीर्थ ग्रहण करते हुए।

तीर्थ का अर्थ है पवित्र जल। यह पवित्रता भगवान, आचार्य आदि के सम्पर्क में आने से आती है। जो जल भगवान के तिरुवाराधन में प्रयोग होता है उसे तीर्थ कहते है। उसे “भगवान का तीर्थ” भी कहते है। श्रीवैष्णव के परिभाषा में भगवान को स्नान कराने को “तिरुमञ्जन” कहते है। अन्य परिपेक्ष्य में भगवान के स्नान को “अभिषेक” भी कहते है। भगवान के स्नान के लिये जिस जल का प्रयोग होता है उसे “तिरुमञ्जन तीर्थ” कहते है। श्रीवैष्णव गोष्ठी (अन्य भी) में उसे एकत्रित कर सभी को वितरित किया जाता है। श्रीवैष्णव परिभाषा में श्रीवैष्णवों के स्नान किये हुए जल को भी “तीर्थादुथल” कहते है। आचार्य और उच्च कोटी के श्रीवैष्णवों के चरणामृत को “श्रीपादतीर्थ” कहते है। जो जल आचार्य के चरण पादुका के सम्पर्क में आता है उसे भी “श्रीपाद तीर्थ” कहते है। इस भाग में हम भगवान के तीर्थ, तिरुमञ्जन तीर्थ और श्रीपादतीर्थ से सम्बंधित “तीर्थ विरोधी” विषयों में अभ्यास सिखेंगे। अनुवादक टिप्पणी: तीर्थ के कई अर्थ है – पवित्र जल, पवित्र स्थान, स्वयं भगवान आदि। यहाँ हम केवल पवित्र जल जो कई प्रकार के है उस पर विषय को केन्द्रीत करेंगे।

  • भगवान का तीर्थ सांसारिक जनों या उनके घर से लेना बाधा है। मुमुक्षु वह है जो मोक्ष पर केन्द्रीत रहता है। जो सांसारिक लाभ पर केन्द्रीत होता है उसे भुभुक्षु कहते है। ऐसे जनों से भगवान का तीर्थ ग्रहण करना हानिकारक है क्योंकि ऐसे जनों से कोई भी सम्बन्ध हमारी निष्ठा पर प्रभाव डाल सकता है और पूर्वाचार्यों द्वारा दर्शाये गये मार्ग पर चलने से हमें डिगा सकता है।
  • साधनान्तर मनुष्यों (वह जो भगवान छोड़ अन्य सभी को उपाय मानता है) के सामने भगवान का तीर्थ ग्रहण करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: साधन का अर्थ कुछ पाने के लिये उपाय करना है। शास्त्र में भगवान के नित्य कैंकर्य प्राप्त करने के उपाय हेतु कई विधियाँ समझायी गयी है जैसे कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग आदि। कुछ जन प्रपत्ति को भी उपाय मानते है। परन्तु सच्चे प्रपन्न/ शरणागत केवल भगवान को ही एकमात्र उपाय मानते है। जो स्वयं के प्रयत्न को भगवान के प्राप्ति का उपाय समझते ऐसे जनों के सामने हमे कुछ भी पाना नहीं चाहिये।
  • मन्त्र उच्चारण (द्वय महामन्त्र छोड़ अन्य मन्त्र) करनेवालों के सामने भगवान का तीर्थ पाना बाधा है। शिष्य को आचार्य द्वारा बताये गये रहस्य त्रय ही उपयुक्त है उसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्त्र है तो वह देवतान्तर मन्त्र है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान ही उपाय और अम्माजी और भगवान के प्रति पवित्र कैंकर्य ही उपेय है, द्वय महामंत्र इस बात को अत्यंत स्पष्टता से प्रकाशित करते है, इसलिये हमारे पूर्वाचार्य द्वय महामन्त्र कि बड़ी स्तुति करते है। सभी मंत्रों में इस मन्त्र को मन्त्र-रत्न कहते है और हमारे पूर्वाचार्य इसका निरन्तर जप करने और स्मरण करने को कहते है। “पूर्व-दिनचर्या” रचना में श्रीएरुम्बी अप्पा यह दिखाते है कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के ओष्ठ निरन्तर द्वय महामन्त्र का जाप करते है और उनका मन सदा उसके अर्थ का अनुसंधान करता था।
  • दिव्य देश में तीर्थ लेने से पहिले भगवान के तीर्थ कि पवित्रता को जाँचना बाधा है। दिव्य देशों में तीर्थ लेने से हमे घबराना नहीं चाहिये। दिव्य देश अर्थात वह मन्दिर जहाँ आल्वारों ने अपने दिव्य प्रबन्धनों में भगवान कि स्तुति की है। यही नियम उस स्थान के लिए भी है जो आचार्य / आल्वारों से सम्बंधित है (उदाहरण – अभिमान स्थल, अवतार स्थल आदि) – वों भी दिव्य देश के समान है।
  • अन्य स्थानों पर भगवान के तीर्थ की शुद्धता को जाँचे बिना ग्रहण करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: दिव्य देश, अभिमान स्थल और आचार्य / आल्वारों का अवतार स्थान को छोड़कर – अन्य स्थानों प्र हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि वहां श्रीवैष्णव क्रम का पालन हो रहा है। उदाहरण के लिए हमारे पूर्वज मन्दिर में प्रवेश करने के पूर्व यह सुनिश्चित कर लेते थे कि मन्दिर में जहाँ आचार्य/ आल्वारों कि सन्निधी है वहाँ सही क्रम का पालन हो रहा है और भगवान के साथ उनकी भी उचित सेवा हो रही है।
  • सांसारिक जनों के सामने तीर्थ लेना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हमारे पूर्वाचार्य सांसारिक मानसिकता वाले लोगों से बचते थे और उनके सामने कुछ भी नहीं पाते थे।
  • अन्य श्रीवैष्णव के ग्रहण करने से पूर्व हमारा तीर्थ पाना बाधा है। हमें तीर्थ अन्य श्रीवैष्णव लेने के पश्चात ही लेना चाहिये। हमें जबरदस्ती कर आगे जाकर तीर्थ ग्रहण करने कि कोई आवश्यकता नहीं है।
  • किसी दिशा या स्थिति विशेष में तीर्थ लेने से बचना बाधा है। तीर्थ लेने के लिये ऐसा कोई नियम नहीं है जैसे पूर्व दिशा में होना, इत्यादि। हम श्रीवैष्णव गोष्ठी में कहीं भी हो हम तीर्थ ले सकते है।
  • तीर्थ ग्रहण करने के पश्चात उसे हमे अपने नेत्र और माथे पर बड़े आदर पूर्वक लगाना चाहिये – ऐसा न करना बाधा है।
  • तीर्थ ग्रहण करने के पश्चात हाथों को धोने का विचार करना भी बाधा है।
  • भगवद, आचार्य आदि का कोई भी कैंकर्य करने के पूर्व हाथों को धोना चाहिये। तीर्थ लेते समय हाथ ओष्ठ को छु सकते है – इस अशुद्धी को पवित्र करने हेतु हमें कोई कैंकर्य करने के पूर्व हाथों को धो लेना चाहिये।
  • तीर्थ को जमीन पर गिराना बाधा है। हमें तीर्थ ग्रहण करते समय अपना उपरी वस्त्र को हाथों के नीचे रखना चाहिये और यह सुनिश्चित करना चाहिये कि तीर्थ जमीन पर न गिरे। अनुवादक टिप्पणी: शास्त्र में यह समझाया गया है कि जो भी तीर्थ गिराता है वह बहुत बड़ा पाप करता है। तीर्थ या प्रसाद पर पैर रखने पर भी यही कहा गया है।
  • तीर्थ को माथे पर उछालना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जैसे पहिले कहा गया है तीर्थ को नेत्र और माथे पर बड़े आदर पूर्वक लगाना चाहिये।
  • सांसारिक बाते करते हुए तीर्थ को ग्रहण करना बाधा है। तीर्थ को बड़े आदर पूर्वक ग्रहण करना चाहिये और उस समय बाते करने से बचना चाहिये।
  • सांसारिक जनों द्वारा देखे जाने पर उस तीर्थ को ग्रहण करना बाधा है।
  • हमें यह ज्ञान होना चाहिये कि भगवान के तीर्थ से भी बढ़कर श्रीवैष्णवों का श्रीपाद तीर्थ है। यह न समझना बाधा है।
  • तीर्थ कि सच्ची महिमा न जानकार, उसके देनेवाले के बाह्य रूप को देखकर ग्रहण करना बाधा है।
  • तीर्थ केवल एक बार ग्रहण करना पर्याप्त है यह तीर्थ देते समय क्या बोल रहे है उसपर आधारित है। सामान्यत: शातुमोरा के समय तीर्थ दिया जाता है और उस समय एक बार तीर्थ ग्रहण करना उचित है। यह न समझना बाधा है।
  • आचार्य का श्रीपाद तीर्थ जो आचार्य के कृपा से प्राप्त होता है उसे एक से अधीक बार ग्रहण करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: कुछ मठ/तिरुमाली श्रीपाद तीर्थ दो बार और कुछ में तीन बार दिया जाता है। शास्त्र में दोनों के लिये उचित प्रमाण है। इसलिये यह समझा जा सकता है कि श्रीपाद तीर्थ को केवल एक बार नही लेना चाहिये।
  • हमें यह समझना चाहिये कि सदाचार्य का श्रीपाद तीर्थ हमेशा पूजनीय है (जैसे मटके में रखा गंगा जल पूजनीय है)। हमें यह भी समझना चाहिये कि यह शिष्टाचार है (यह बड़ों द्वारा आचरण मे लाया गया है) और हमे भी यह करना चाहिये। यह न समझना बाधा है।
  • श्रीपाद तीर्थ की महिमा “वेधकप पोन” (वह कसौटी जो ताम्बे को सोने में बदल देता है) से कि जाती है। श्रीपाद तीर्थ के केवल सम्बन्ध मात्र से हम पवित्र हो जाते है। “श्रमणी विदुर ऋषि पत्निकलैप पुतराक्किन पुण्डरीकाक्षन् नेदुनोक्कू” आचार्य हृदय – भगवान श्रीमन्नारायण के पवित्र नेत्र जिन्हें पुण्डरीकाक्ष ऐसे स्तुति किया जाता है उन्होंने शबरी, विदुर और ऋषियों कि पत्नीयों को भी पवित्र कर दिया। भगवान के पवित्र नेत्र जैसे आचार्य के पवित्र नेत्र भी श्रेष्ठ है। ऐसे आचार्य के श्रीपाद तीर्थ को विशेष मानना चाहिये। और इसे विशेष ज्ञान कहते है। ऐसा ज्ञान न होना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीकुरेश स्वामीजी के जीवन में एक सुन्दर घटना दर्शायी गयी है। एक श्रीवैष्णव का पुत्र उसके गलत संगत से अवैष्णव कि ओर बढ़ रहा था। परन्तु एक दिन अचानक वह अपने पिता के सामने सुन्दर वैष्णव वेष, तिलक आदि के साथ आया। उसके पिता ने तुरन्त पूछा कि क्या श्रीकुरेश स्वामीजी ने तुम्हें अपने पवित्र नेत्रों से देखा? ऐसा श्रीकुरेश स्वामीजी कि महिमा थी कि केवल अपने दृष्टि से किसी व्यक्ति में अच्छे पवित्र गुण लायेंगे।
  • केवल श्रीपादतीर्थ कि महिमा जानकार उसे ग्रहण करना और उसे पाने कि चाह नहीं होना बाधा है। केवल महिमा ही नहीं जानना चाहिये परन्तु ऐसे श्रीपाद तीर्थ को ग्रहण करने कि अति आर्तता भी होनी चाहिये।
  • किसी ऐसे तीर्थ को ग्रहण करना जिनका देवतान्तर सम्बन्ध हो वो जीवात्मा के सच्चे स्वभाव के विरुद्ध है। परिणाम जाने बिना ऐसे तीर्थ को ग्रहण करना बाधा है।
  • आनंदित होकर सबसे पहिले तीर्थ ग्रहण करना और अन्त में ग्रहण करने से हिचकिचाना बाधा है। तीर्थ को जो भी स्थिति हो यह समझकर कि वो हमें शुद्ध करेगा, बिना कुछ अधिक सोचे विचारे ग्रहण करना चाहिये।
  • श्रीपादतीर्थ को ग्रहण करने से अस्वीकार करना क्योंकि उसमें स्वयं का श्रीपादतीर्थ है। विशेष समय में जब तिरुमाली में श्रीवैष्णव गोष्ठी होती है यह सामान्य प्रथा है कि वहाँ पधारे सभी श्रीवैष्णवों का श्रीपादतीर्थ लिया जाता है। उस श्रीपादतीर्थ को एकत्रीत किया जाता है और सभी को वितरीत किया जाता है। उस समय यह सोचकर कि उसमें अपना श्रीपादतीर्थ मिला हुआ है किसी को भी उस श्रीपादतीर्थ को अस्वीकार नहीं करना चाहिये। हमें यह विचार कर उस श्रीपादतीर्थ को ग्रहण करना चाहिये कि उसमें वह जल है जो कई श्रीवैष्णवों के चरण साफ करने हेतु प्रयोग किया गया हो और यह हमें अधीक शुद्ध करेगा।
  • प्रायश्चित के लिये उपयोग तीर्थ जो कुछ कर्मों के लिये किया गया हो उसे प्रपन्नों को उपयोग नहीं करना चाहिये। ऐसा करना बाधा है।
  • शैव आदि से शारीरिक सम्पर्क में आने से हमें स्वयं को शुद्ध करने हेतु श्रीपादतीर्थ ग्रहण करना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। जब शारीरिक सम्पर्क होता है तो हमें उस भाग को धोकर साफ कर श्रीपाद तीर्थ लेना चाहिये। उस पाप के लिये यह प्रायश्चित है। हम श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के जीवन कि घटना को स्मरण कर सकते है। जब एक पाषण्ड के शरीर कि भस्म फैलकर स्वामीजी को स्पर्श कि तो स्वामीजी उसी क्षण अपने माता के पास गये और उन्हें शुद्ध करने को कहा। उनकी आण्डाल माता जो शास्त्र में विद्वान है उन्होने एक ब्राम्हण श्रीवैष्णव का श्रीपादतीर्थ ग्रहण करने को कहा और भट्टर स्वामीजी भगवान के पुरप्पाडु उत्सव के समय आये एक ब्राम्हण श्रीवैष्णव से विनंती कर उनका श्रीपादतीर्थ ग्रहण करके स्वयं को शुद्ध किया। यह घटना वार्तामाला ३२७ में है।
  • श्रीपाद तीर्थ को केवल शुद्ध मानना और श्रीपादतीर्थ के प्रति अधीक लगाव न होना बाधा है। उसे बहुत आनंददायक समझना चाहिये।
  • केवल दिन में एक बार श्रीपादतीर्थ ग्रहण करने से संतुष्ट होना और उसे दोबारा लेने कि इच्छा न करना बाधा है। जैसे कि एक शिशु जो अभी माँ का दूध पी रहा है उसे अपनी माँ के दूध कि और अधीक ललक होती है वैसे हीं हमें अपने आचार्य के श्रीपादतीर्थ कि ललक होनी चाहिये। ऐसे न करना बाधा है।
  • यह समझे बिना कि यह हमारे आचार्य का इस संसार में अन्तिम जन्म है आचार्य के श्रीपादतीर्थ से वंचीत रहना बाधा है। जैसे सहस्त्रगीति में “मरणमानाल वैकुण्ठं” कहा गया है (जब हम मर जायेंगे तो हम परमपद जायेंगे) हमें अपने आचार्य को बड़े आदर से देखना चाहिये और उनके श्रीपादतीर्थ को ग्रहण करना चाहिये और जब तक वे संसार में है उनसे बहुमूल्य उपदेश सुनना चाहिये।
  • श्रीपादतीर्थ तीर्थ देनेवाले से सीधा ग्रहण करना चाहिये नाकी किसी ओर से। जैसे भगवान के तीर्थ वितरण के समय एक सह तीर्थकार देता है। ऐसा यहाँ नहीं होता है।
  • स्वयं श्रीपादतीर्थ ग्रहण करना बाधा है। हमें आचार्य या जो तिरुवाराधन करते है उन्हीं से श्रीपादतीर्थ लेना चाहिये।
  • जब तक श्रीपादतीर्थ न मिले उसे पाने कि हमें बहुत ललक होनी चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: यहाँ अनजाने से श्रीपादतीर्थ ग्रहण करने कि निन्दा कि गयी है।
  • श्रीपादतीर्थ देनेवाले और लेनेवाले दोनों का द्वय महामन्त्र पर ध्यान केन्द्रीत होना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: द्वय महामन्त्र का अर्थानुसंधान हमेशा गुरुपरम्परा मन्त्र के साथ करना चाहिये। यह हमें निरन्तर स्मरण करायेगा कि हम अम्माजी और भगवान के दास है, जब हम स्मरण करेंगे की सिर्फ भगवान ही उपाय है तब परमपद में उनकी नित्य सेवा की हमारी लालसा बढ़ती जायेगी। गुरुपरम्परा मन्त्र को निरन्तर कहने से हमें यह स्मरण होता है कि भगवान के साथ हमारा सम्बन्ध आचार्य के संबंध से ही है।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2014/06/virodhi-pariharangal-24/

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