श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
श्री तैत्तरीय उपनिषद:
सहस्रपरमा देवी शतमूला शताङ्कुरा |
सर्वं हरतु मे पापं दूर्वा दुस्स्वप्ननाशिनी | |
इस श्लोक में दिव्य प्रबंध अथवा द्रमिडोपनिषद के प्रति की हुयी प्रार्थना है।
“देवी” शब्द मूल “दिवु” से आता है। दिवु – क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु। अनेक अर्थोमें से यहाँ स्तुति यह अर्थ विशेष है। “देवी” यह श्लोकोंकी मालिका है जो भगवान के गुणोंपर स्तुतियोंद्वारा प्रकाश करती है।
देवी दूर्वा शब्द से विशेषण प्राप्त है।इसका अर्थ है “हरभरा”। आल्वारोंके प्रबंध हरेभरे माने जाते हैं।इससे यह प्रतीत होता है की इन पाशूरोंमें उष्णता नहीं है जो संस्कृत में होती है परंतु तमिल हरिभरी होने के कारण शीतल है।
सहस्रपरमा: जिसमे श्री शठकोप स्वामीजी के १००० पाशूर सबसे महत्त्वपूर्ण भाग के रूप में हैं।इसका आचार्य हृदय के सूत्र में उल्लेख किया गया है। वेदोंमें पुरुष सूक्त, धर्म शास्त्रोंमें मनु, महाभारत में गीता, पुरानोंमें श्री विष्णु पुराण जैसे महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं वैसेही सहस्रगिती द्रविड़ वेदोंमें महत्त्वपूर्ण भाग/सार मानी जाती है।
शतमूला – जिसका आधार १०० श्लोक में वर्णित हैं। श्री सहस्रगिती के १००० पाशूरोंका आधार १०० पाशूर के तिरुविरुथ्थम् में है। श्री अझगीय मणवाल पेरुमाल स्वामीजी आचार्य हृदय में इसका वर्णन करते हैं।जब ऋग्वेद संगीतमें सुंदर रिती से गाया जाता है तो वो साम वेद के रूप में परिवर्तित हो जाता है। वैसेही, जब तिरुविरुथ्थम के १०० पाशूर संगीत के साथ गाये गए, तो उनका सहस्रगिती के मधुर १००० पाशूरोंमें परिवर्तन हो गया। इसलिए, श्री सहस्रगिती के १००० पाशूरोंका आधार १०० पाशूर के तिरुविरुथ्थम् को माना गया है। और इसी कारण इसको शतमूला ऐसे संबोधित किया है।
शताङ्कुरा – वह जो एक सौ पाशूरोंसे से अंकुरित है।सम्पूर्ण दिव्य प्रबंध का योगीत्रय (श्री भूतयोगी, श्री सरोयोगी, श्री महाद्योगी) के मुदल तिरुवंदादी, इरांदम तिरुवंदादी, और मुंद्रम तिरुवंदादी से उगम हुवा है।
दिव्य प्रबन्ध का स्वरूप क्या है?
दुस्स्वप्न-नाशिनी – यह बुरे स्वप्न नष्ट कर देता है। यहाँ सोते समय आने वाले स्वप्न का संदर्भ नहीं है। श्री परकाल स्वामीजी कहते हैं, “भगवान को जाने बिना बिताए गए दिन एक मूर्ख के स्वप्न से ज्यादा निरर्थक हैं।” स्वप्वनास्था वह अवस्था है जिसमे कोई चेत नहीं होता। इसी तरह, भगवान को जाने बिना बिताए दिन बुरे स्वप्न के समान हैं। यह स्वप्न बुरा है क्योंकि जब तक जीव भगवान को नहीं जानता है तब तक वो अनंत यातनाएं सहन करता हुआ समय व्यतीत करता है। द्रविड़ वेद भगवान के बारे में जीवोंकों ज्ञान देता है और संसार के प्रभाव को नष्ट करता है। सहस्रगितीमें श्री शठकोप स्वामीजी कहते हैं कीभ्रामक मृगतृष्णा की तरह यह संसार पाशुरोंके के इस दशक से नष्ट हो जाता है। जो द्रविड वेदोंके ज्ञान से प्रकाशित हैं, उनका दु:स्वप्न रूपी संसार नष्ट हो जाता है।
सर्वं हरतु मे पापं – मे सर्वं पापं हरतु। कृपा करके मेरे सभी पापों को नष्ट करो। तत्त्व-हित-पुरुषार्थ के अनुभूति में जो बाधा करते हैं वो पाप हैं। ऐसे पापोंको नष्ट करने के लिए यह प्रार्थना है।
संक्षेप में, यह श्लोक प्रार्थना करता है की सदा हरेभरे रहनेवाले द्रविड वेद पढ़ने वाले के पाप नष्ट कर दे। दिव्य प्रबन्ध भगवान का महिमा गान करते हैं। उसमें श्री सहसरगिती के १००० पाशूर अधिकतम महत्त्वपूर्ण हैं, जो तिरुविरुथ्थम के १०० पाशूरोंसे विकसित हुआ है।यह योगीत्रय आल्वारोंके प्रत्येकी १०० पाशूर के तिरुवंदादी से अंकुरित है और दु:स्वप्न रूपी संसार का नाशक है।
सांतवे काण्ड के पांचवे प्रश्न में यह कहता है, “वेदेभ्यस्स्वाहा” और तुरंत कहता है “गाथाभ्यस्स्वाहा”। यहाँ वेद से संस्कृत वेद और गाथा से दिव्य प्रबन्ध प्रतीत होते हैं।यह देखा जा सकता है की गाथा यह शब्द श्री देशिकन स्वामीजी द्वारा द्रमिडोपनिशत तात्पर्य रत्नावली में द्रविड़ वेदोंकों संबोधित करने के लिए अनेक बार उपयोग में आया है। उदाहरण के लिए, द्रमिडोपनिशत तात्पर्य रत्नावली के द्वितीय श्लोक में कहा है:
प्रज्ञाख्ये मन्थशैले प्रथितगुणरुचिं नेत्रयन् सम्प्रदायं
तत्तल्लब्धि – प्रसक्तैः अनुपधि – विबुधैः अर्थितो वेङ्कटेश: |
तल्पं कल्पान्तयूनः शठजिदुपनिषद् – दुग्ध – सिन्धुं विमथ्नन्
ग्रथ्नाति स्वादु – गाथा – लहरि – दश – शती – निर्गतं रत्नजातम् | |
सदा सुकुमार श्रीमन्नारायण भगवान का विश्राम स्थल और जिसकी लहरें मधुर १००० पाशुरोंके रूप में उत्पन्न होती हैं ऐसा क्षीर सागर हैं। उस क्षीरसागर समान श्री शठकोप स्वामीजी के उपनिषत का मंथन करके प्राप्त धन संपत्ति का आनंद लेने की जो इच्छा रखते हैं ऐसे निर्मल हृदय के पंडितोंसे अनुरोध होनेपर मैं, वेंकटेश, प्रसन्न होता हूँ।
वेदोंमें वर्णित द्रविड़ वेदोंका वर्णन सम्पन्न हुआ।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/01/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-3-english/
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