श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
आल्वार् और भगवद्रामानुजाचार्य – २
परित्राणाय साधूनाम्
श्रीमद्भगवद्गीता का चतुर्थाध्याय श्लोक सर्वप्रसिद्ध है |
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
” सामान्य व्यक्ति को भी यह अर्थ समझ पडता है कि भगवान श्रीकृष्ण साधुओं का रक्षण व दुष्टों का विनाश करते हुए धर्म का स्थापन करने हर युग अवतार करते हैं | यह अर्थ आसानी से मिल जाता है | लेकिन, अगर हम पूछें कि “धर्म” का क्या अर्थ है? साधु कौन बनता है और दुष्ट कौन है? तो इन पदों का वास्तविक अर्थ निश्चय करना कठिन हो जाता है | रक्षण और विनाश शब्दों का क्या अर्थ है? यहीं भाष्यों ही अपेक्षा उठती है | गीता के लिए उपलब्ध अनेक भाष्यों में भी यह प्रश्न उठता है कि क्या इन सब भाष्यों मे प्रतिपादित अर्थ गीता-संदेश से अविरोधित हैं |
विविध भाष्यों मे कहे गए अर्थों की परीक्षा हम इस प्रसङ्ग में नहीं करेंगे | इतना ही हमारा अनुभव का विषय बनेगा कि भगवद्रामानुजार्य से प्रतिपादित अर्थ न सुन्दर ही है, पर यही उत्तम अर्थ भी है |
साधु कौन बनता है?
सर्वप्रथम यह जानने योग्य है कि साधु कौन है जो कृष्ण का प्रिय है और उनसे सुरक्षित है? इस पद का भाष्य करते समय रामानुजाचार्य को आल्वारों की स्मृति चलती है | वे ऐसे विशेषणों का उपयोग करते हैं जिनसे आल्वारों का स्वभाव स्पष्ट होता है | ऐसे करने से आचार्य श्रीवैष्णव सम्प्रदाय ज्ञान न होने वालों को भी आल्वार-महात्माओं का परिचय देते हैं |
आचार्य अपने भाष्य में ऐसे लिखे हैं :
साधव: – उक्तलक्षण-धर्मशीला वैष्णवाग्रेसरा:, मत्समाश्रयणे प्रवृत्ता: मन्नामकर्म-स्वरूपाणां वाङ्मनसागोचारतया मद्दर्शनेन विना स्वात्मधारणपोषणादिकमलभमाना: क्षणमात्रकालं कल्पसहस्रं मन्वाना: प्रशिथिल-सर्वगात्रा भवेयुरिति मत्स्वरूप-चेष्टितावलोकनालापादिदानेन तेषां परित्राणाय |
धर्मशीलाः – वे धर्म नियमों को आचरित करने वाले हैं | धर्म का अर्थ सामान्य धर्म या विशेष वैष्णव धर्म हो सकता है | सामान्य धर्म का अर्थ लेने पर “यदा यदा हि धर्मस्य” श्लोक से सङ्गति है | वैष्णव धर्म का अर्थ लेने पर भाष्य का “वैष्णवाग्रेसरा:” पद से सङ्गति है |
वैष्णवाग्रेसरा: – वैष्णवों में अग्रगण्य हैं | यही मुख्य लक्षण है | आचार्य के सम्प्रदाय में आल्वार सर्वोत्तम वैष्णव माने जाते हैं | यामुनाचार्य भी स्तोत्र रत्न में शठकोप मुनि को प्रपन्न वैष्णवों के कुलपति कहलाते हैं |
मत्समाश्रयणे प्रवृत्ता: – जो मुझे (कृष्ण) संसारनिस्तरण के लिए आश्रय मानते हैं | यह विवरण आल्वारों के वचन – “तुयररु चुडरडि तोलुदु”, “आलिवण्ण ! निन् अडियिनै अडैन्देन्”, एत्यादि पर आधारित है |
मन्नामकर्म-स्वरूपाणां वाङ्मनसागोचारतया – आल्वार भगवान के दिव्य नाम और रूप का सात्क्षात्कार पहचानते हुए उनको वचन और चिन्तन से अपार मानते हैं | उनके वचनों में यह स्पष्ट है – “एनसोल्लि सोल्लुगेन्”, नेञ्जाल् निनैप्परिदाल् वेण्णैयूणेन्नुम् ईनच्चोल्ले!”, इत्यादि |
मद्दर्शनेन विना स्वात्मधारणपोषणादिकमलभमाना: – भगवद्दर्शन और अनुभव विना आल्वार पोषित नहीं बनते, न ही वे जी पाते हैं | यह उनके शब्द – “तोल्लैमालै कण्णारक्कण्डु कलिवदोर कादलुट्रार्क्कुम् उण्डो कण्कल् तुञ्जुदले”, “काणवाराय् एन्ड्रेन्ड्रु कण्णुम् वायुम् तुवर्न्दु” से सिद्ध है |
क्षणमात्रकालं कल्पसहस्रं मन्वाना: – क्षणमात्र काल के लिए भगवान और उनके अनुभव से वियोगित होने पर भी, उनको वह काल सहस्रकल्प जैसा प्रतीत होता है | “ओरुपगल् आयिरम् ऊलियालो”, “ऊलियिल् पेरिदाय् नालिगै एन्नुम्”, “ओयुम् पोलुदिन्ड्रि ऊलियाल् नीण्डदाल्”, इत्यादि वचनों से यह भाव हमें स्पष्ट निकलता है |
प्रशिथिल-सर्वगात्रा: – भगवदुनभव के सम्बन्ध और वियोग में आल्वार के सर्व अङ्ग शिथिल बनते हैं | अनुभव काल में आनन्द की तीव्रता और वियोग में दु:ख की तीव्रता शैथिल्य का कारण बनते हैं | यह स्वभाव इनके अनेक वचनों से समझ सकते हैं जैसे – “कालालुम् नेञ्जलियुम् कण्चुललुम्”, कालुम् एला कण्णनीरुम् निल्ला उडल् सोर्न्दु नडुङ्गि कुरल् मेलुमेला मयिर्क्कूच्चमरा”, इत्यादि |
साधु वह बनता है जो धर्मशील है, जो वैष्णवाग्रेसर है, जो कृष्ण को ही आश्रय मानता है, जो भगवान के नाम और रूप को सात्क्षात्कार करते हुए उनको वचन और चिन्तन से अपार मानता है, जो भगवान को दर्शन किए विना नहीं जी पाता है, जो भगवान से क्षण काल वियोग को भी कल्प-सहस्र मानता है, जो अनुभव और वियोग में भिन्न कारणों से सर्वथा शिथिल बन जाता है|
ऐसे साधुओं का रक्षण करने के लिए ही भगवान अनेक अवतार लेते हैं | वे उन महात्माओं को अपना सात्क्षात्कार दर्शन को दिलाते हैं | अपने कार्यों से, अपने गुणों से, अपने दिव्य रूप से उनका पोषण करते हैं | भक्ति बीज का उत्पन्न और उस भक्ति सस्य का विकास उनके अवतार से सिद्ध होता है | ऐसे करने से वे आप को, सनातन धर्म को, जगत में स्थापित करते हैं |
आचार्य की महिमा
इस भाष्य द्वारा, श्रीरामानुजाचार्य गीता के वास्तविक हृदय को याद रखते हुए, सभी जनों को आल्वार जैसे आदर्श भक्तों का परिचय दिए हैं | भक्ति ही गीता का तात्पर्य है और आचार्य यह याद रखते हुए साधु शब्द भाष्य में महान भक्तों की व्याख्या आल्वारों के स्वभाव कथन से किए हैं | ऐसे करने से, गीतार्थ और आल्वारों की महिमा साथ साथ गोचर बनता है |
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/04/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-6-english/
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