द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम् 12

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 11

श्री पेरुमाळ कोईल महामहोपाध्याय जदगाचार्य सिंहासनाधिपति उभय वेदान्ताचर्य प्रतिवादि भयंकर श्री अणंगराचार्य स्वामीजी के कार्य पर आधारितII

अवतार प्रयोजन

भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण केहते हैं

”परित्राणाय साधूनां विनाशाया च दुष्कृताम।

धर्मसंस्थापनार्थय सम्भवामि युगे युगे॥”

अच्छाई कि रक्षा के लिये, बुराई कि नाश के लिये और धर्म कि स्थापना के लिये मैं हर युग में अवतार लेता हूँं।

यह सवाल कर सकते हैं कि यह सब करने के लिये क्यों भगवान को अवतार लेना पडता हैं? वह सर्वशक्तिमान हैं। वह कभी विफल नहीं होंगे। केवल अपने इच्छा से वोह जो भी चाहते हैं वह सम्पूर्ण कर सकते हैं। क्यों इस संसार में लोगों के बीच में अवतार लेना उनके लिये आवश्यक है? इन शक्तिशाली भगवान के लिये विभव अवतार लेने कि जरुरत क्या है?

श्री आदि शंकराचर्य जी
श्री माधव जी

श्री आदि शंकराचर्य जी कि व्याख्या इस प्रशन का उत्तर नहीं देती हैं। श्री माधव जी कि व्याख्या में यह समझाया गया हैं कि भगवान को यह सब अपनी अभिलाषा पुर्ण करने के लिये अवतार लेने कि अवश्यकता नहीं है। हालाकि ब्रहम सुत्र के प्रस्ताव के अनुसार यह दुनिया उनके खेल के लिये उत्प्पन हुई है – ”लोकवत्तु लिलाकैवल्मं” वोह खेल के लिये अवतार लेते हैं।

गीता के मूल पद के अनुसार श्री माधवजी के व्याख्या इसको न्याय नहीं करता हैं। परन्तु भगवान कृष्ण यह स्पष्ट कहते हैं कि वह अच्छाई कि रक्षा आदि के लिये अवतार लिये हैं जो इस वर्णन को पूरी तरह नकार देते हैं और एक दूसरा कारण केवल एक खेल के लिये देते हैं। यह एक निन्दा कि बात हैं कि गीता के पद को यह कहकर खण्डन कर देना कि अवतार का उद्देश केवल एक खेल हैं। और दृष्टान्त देने वाले ब्रह्म सूत्र संसार के उद्देश का व्यवहार करता हैं परन्तु वर्तमान पद अवतार के उद्देश का व्यवहार करता हैं। इसलिये ब्रह्म सूत्र को अवतार के उद्देश से उपर नहीं किया जा सकता।

ब्रह्म सूत्र के अंतरधिकरना में “अंतस्तदधर्मोंपदेशात” (१-१- २१) में यह समझाते हुए श्री रामानुज स्वामीजी गीता का इस
पद का प्रमाण देते हैं। स्वामीजी तब लिखते हैं

“साधवों ही उपासकाह; तत्परित्राणामेवोद्देस्यं;

अनुसंगिकस्तु दुस्क्र्ताम विनासह संकल्पमात्रेनापि तदुपपत्तेः”

अवतार का मुख्य उद्देश हैं उपासक या आसक्त भक्त कि रक्षा करना। दुष्ट का ध्वंस दुसरी बात हैं क्योंकि केवल उनके ईच्छा से यह तो भगवान के अवतार लिये बिना भी हो सकता हैं । स्वामीजी के पद यह सुझाता हैं कि अगर भगवान को केवल दुष्ट को मारना हैं तो वह तो केवल अपने ईच्छा से हीं कर सकते हैं। परन्तु उनके भक्तों कि रक्षा हेतु वह स्वयं अवतार लेते हैं। अवतार का उद्देश साधुपरित्राण हैं।

स्वामीजी का सुझाव स्पष्ट रूप से यह प्रश्न उठाता हैं कि साधुपरित्राण उसी अभिलाषा से स्थापित नहीं किया जा सकता जैसे दुस्क्र्तविनासना। जिन्हें सहस्त्रगिती का ज्ञान न हो वह इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते यह ध्यान दिये बिना कि कब तक वह स्वामीजी के जो विचारों में डुबी हुई उन पंक्तियां को ऐसे ही ताकते रहेंगे। अगर वह केवल श्रीभाष्य के शब्दों के अर्थों का वर्णन करता हैं तो शिक्षक का कार्य आसान होता हैं। उसको इसमें गहराई से जाने कि आवश्यकता नहीं हैं। अगर कोई विद्यार्थी तुरन्त यह प्रश्न पुंछे तो उसे केवल यह उत्तर प्राप्त होगा कि “स्वामीजी ने स्वयं इसकी घोषणा कि थी। तुम कौन हो उनके शब्दों पर प्रश्नकरनेवाले?”। और इस उपदेश (डांट) के साथ श्रीभाष्य कालक्षेप सफल और उसका पूर्ण हो जाएगा। इस प्रश्न का उत्तर तो वहीं जान सकते हैं जिन्होंने सहस्त्रगिती का अध्ययन किया हैं और जो आल्वार, रामानुजाचार्य और जीयर तिरुवडिगले शरणं का पात्र हैं। यह उनकी हीं कृपा हैं कि श्री कांची स्वामीजी अपने आप को यह सत्य जान लिये ऐसा समझते हैं और यह उनकी कृपा हैं कि हम उस रहस्य को अनुभव कर पा रहे हैं। आगे बढ़ने से पहिले हम सब उन्हें आल्वार, रामानुजाचार्य और जीयर तिरुवडिगले शरणं और श्री कांची स्वामीजी तिरुवडिगले शरणं ऐसा धन्यवाद देते हैं।

सहस्त्रगिती ३-१- ९ में ऐसा हैं,

“मलुङ्गाद वैन नुदिया शक्करनल वलत्तैयाय

तालाङ्गादल कलिरलिप्पान, पुल्लूरन्दु तोन्रिनैये

मलुङ्गाद ञानमे पडैयाग मलर उलगिल

तोलुम्बायारक्कलित्ताल उन शुडर च्चोदि मरैयादे”

इस पद के तीसरी पंक्ति “मलुङ्गाद ञानमे” में भगवान के अपराजित संकल्प ज्रान हैं – भगवान कि श्रेष्ठ इच्छा। आल्वार यह समझाते हैं कि क्यों भगवान को अवतार लेना आवश्यक हैं साधु परित्राणाय के लिये। तोलुम्बायारक्कलित्ताल उन शुडर च्चोदि मरैयादे – “अगर आप अवतार लेकर अपने भक्तों कि रक्षा नहीं कर सकते तो आपकी दिप्तमान कीर्ति मुरझा जायेगी। आपकी कीर्ति चमकेगी अगर केवल आप अपने भकतों को बचाने के लिये उतरेंगे”। अगर भगवान अपने शब्दों पर रहेंगे और जीवों का केवल अपने इच्छा से रक्षा करेंगे तो वह भगवान के उपर कलंक होगा। यह उनकी शुभ और किर्ती के गुण को बताता हैं जो प्यार से अपने शिष्यों पर बरसाता हैं और उनकी रक्षा करता हैं। यह वह कारण हैं जिससे साधू परित्राणाय केवल इच्छा से नहीं काम करती हैं। अगर वह केवल इच्छा से होती तो वह बहुत बड़ा कलंक भगवान पर लगाती। परन्तु वह निर्दोष हैं। इसलिये वह हमेशा साधू परित्राणाय के लिये अवतार लेंगे। युगे युगे साधूनां परित्राणाय सम्भवामि। यह निस्संदेह हैं। फिर भी एक प्रश्न उठाया जा सकता हैं।

यह सब विवाद आनंददायक हैं परन्तु क्या इन सब को प्रमाण दे सकते हैं कि किस तरह भगवान रक्षा करते हैं? हमारे
आल्वार प्रमाणों के भूषणों कि शिखा हैं और वह भगवान कि आज्ञा बिना एक शब्द भी नहीं उच्चार करेंगे। सहस्त्रगिती का पद का पहिला भाग इसका इसका प्रमाण देता हैं-

तालाङ्गादल कलिरलिप्पान, पुल्लूरन्दु तोन्रिनैये”।

श्री गजेंद्र आचार्य को बचाने के लिये भगवान स्वयं गरुडजी पर विराजमान होकर अपने नित्य विभूति से दौड़ते हुये आये। मगरमच्छ को वह आसानी से अपने धाम से भी मार सकते थे। परन्तु यह उनके यश को शोभित नहीं करता कि अपने भक्त श्री गजेंद्र आचार्य कि अपने धाम से हीं रक्षा करना। अत: उन्होंने अवतार लिया।

(हम आगे अगले भाग में गजेंद्र मोक्ष के बारें में चर्चा करेंगे।)

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/10/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-12-english/

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