श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी
हिंदी अनुवाद – कार्तिक श्रीहर्ष
तिरुप्पावै जीयर
तिरुवरङ्गत्तमुदानार् श्रीरामानुज स्वामीजी को
”चूडिक्कोदुत्तवल् तोल्लरुऴाल् वाऴ्गिन्द्र”
से प्रसंशा करते हैं । स्वामी रामानुजाचार्य केवल श्रीआण्डाल अम्माजी के स्वाभाविक कृपा बल से जीवन व्यतीत कर रहे थे ।
श्रीरामनुज स्वामीजी ”तिरुप्पावै जीयर” के नाम से भी प्रख्यात है और यह नाम तिरुप्पावै के १८ पासुर से जुडी एक घटना के कारण हुआ ।
क्या यह संभव है कि हम श्रीरामानुज स्वामीजी पर हुए तिरुप्पावै का असर देख सकते है ?
आईये आपके लिये कुछ उदाहरण उद्धृत है :
पहला उदाहरण :
भगवद्-गीता के तीसरे अध्याय मे, भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमन्नारायणभावनाभावित कर्म मे संलग्न की बात करते
हुए कहते है :
यद्-यद् आचरति श्रेष्ठ: तत्-तद् एवेतरो जन: ।
स यत्-प्रमाणम् कुरुते लोकस्-तद्- अनुवर्तते ॥ भ.ग – ३.२१
प्रथम् दृष्टिकोण से यह श्लोक बहुत ही सरल एवं स्पष्ट सा महसूस होता है । यह श्लोक उन महापुरुषों के अनुशासन की महत्ता का वर्णन करता है जिन्हे श्रेष्ठ माना गया है । जो संस्कृत भाषा जानते है वे इस श्लोक
का अर्थ सरलता से समझ जायेंगे । इस श्लोक के दूसरे भाग का अर्थ विशलेषण करते हुए भगवद्पाद शंकराचार्य कहते है
”स: श्रेष्ठ: यत् प्रमाणम् कुरुते – लौकिकम् वैदिकम् वा, लोक: तत् अनुवर्तते – तदेव प्रामाणिकीकरोति इति अर्थ:” ।
चाहे भौतिक या आध्यात्मिक विषय हो, आम व्यक्ति वही प्रमाण का अनुसरण करता है जो श्रेष्ठ पुरुषों का निर्णय है । अर्थात्
आम व्यक्ति के लिये वही प्रमाण होगा जो श्रेष्ठ पुरुषों का निर्णय है ।
श्रीआनन्दतीर्थ कुछ इस प्रकार से समझाते है :
”यद्-वाक्यादिकम् प्रमाणीकुरुते – यदुक्त प्रकारेण तिष्ठत् इति”।
अर्थात् व्यक्ति श्रेष्ठ पुरुषों के अभि-निर्धारित या अभिप्रमाणित वचनों के बुनियाद पर जीवन व्यतीत
करता है ।
उपरोक्त व्याख्याओं मे दोनों आचार्यों ने ”यत्-प्रमाणम्” शब्द को विभाजित किया ।
कृपया गौर करे, कैसे श्रीरामानुज स्वामीजी अपने गीता-भाष्य मे एक विशिष्ट व्याख्या देते है । वो इस शब्द
को विभाजित नही करते अपितु उसे एक ही संयुक्त बहुव्रीहि शब्द मानते है ।
श्रेष्ठ : – कृत्स्नशास्त्रज्ञातृतया अनुष्ठानातृतया च प्रथित: ।
एक श्रेष्ठ व्यक्ति या महान् व्यक्ति वह है जो सभी शास्त्रों मे पूर्णतया निपुण हो और जो अपने अटूट
अवगुणरहित अनुशासन के लिये सुप्रसिद्ध है ।
यद्याचरति तत्तदेव अकृत्स्नविज्-जना अपि आचरति
आम व्यक्ति, जो शास्त्रों मे निपुण नही है, वो श्रेष्ठ जनों का आचरण करते है ।
अनुष्ठीयमानम्-अपि कर्म श्रेष्ठो, यत्-प्रमाणम् – यद्-अङ्गयुक्तम् अनुतिष्ठति, तद्-अङ्गयुक्तम्- एव-अकृत्स्नविल्-
लोको-अनुतिष्ठति ।
ऐसे अनुसरणीय चाल-चलनों मे, आम व्यक्ति उन चाल-चलनों का अनुसरण करता है जो चाल-चलन श्रेष्ठ जनों
ने अभ्यास किया है ।
देखिये ”यत्-प्रमाणम्” शब्द की व्याख्या मे कितना भेद है और यह प्रत्यक्ष एवम् सुस्पष्ट है । श्रीरामनुज स्वामीजी की व्याख्या विशिष्ट एवम् उपयुक्त है । उस सन्दर्भ मे जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्तिगत चाल-चलन की महत्ता दर्शा रहे है, यहाँ उपयुक्त होगा कि कर्म एवम् कर्म करने का भाव (सारांश) कितना महत्त्वपुर्ण है । यहाँ यथार्थ भाव यानि सार्थक विचार यह नही होगा कि श्रेष्ठ जन द्वारा निर्देशित एवम् अभिप्रमाणित प्रमाण, आम जन अवश्य उसका अनुसरण करेंगे । इसका कारण यह है कि इस पूरे अध्याय मे निर्दिष्ट रूप से सही प्रमाण का समर्थन करने की चर्चा नही हुई है । यहाँ ऐसा कोई प्रश्न उठा ही नही कि कौन सा प्रमाण अर्जुन के लिए ग्राह्य अर्थात् स्वीकार है । यहाँ केवल प्रश्न चाल-चलन (कर्म) का है । अत: श्रीरामनुजस्वामीजी इस शब्द का अर्थ चाल-चलन (कर्म) के तत्त्व भाव को दर्शाते है । अर्जुन, ऐसा व्यक्ति (भक्त) है, जो आम जनता के लिए प्रशंसनीय है, अत: अपने कर्म एवम् कर्म-अव्यय के प्रति सदैव सचेत रहना पडेगा । पूरी दुनिया वही अनुसरण करेगी जो अर्जुन किया और साथ-साथ मे जैसे अर्जुन ने किया ।
यह सारार्थ श्रीरामानुजस्वामीजी तिरुप्पावै से दर्शा रहे है । तिरुप्पावै के २६वें पासुर मे, आण्डाल अम्माजी कहती
है –
‘‘मेलैयार् सेव्यनङ्गल् वेण्डुवन केट्टियेल्”.
यहाँ ”वेण्डुवन”; शब्द ”यत्-प्रमाणम्” शब्द से परस्पर संबन्धित है ।
कहने के लिये शास्त्रों मे बहुत सारे अनुशासन उद्धृत है, जो प्रामाणिक माने जाते है । लेकिन ज्ञानी जन
शास्त्रों मे सभी अनुशासन का पालन नही करते । वो वही अनुसरण करते है जो अनिवार्य है और जिसके न
करने से ग्लानि हो सकती है ।
अनुसरणीय नियम कुछ इस प्रकार से है :
क्रियमानम् न कस्मैचित् यद्-अर्थाय प्रकल्पते ।
अक्रियावदनर्थाय तत्तु कर्म समाचरेत् ॥
वो वही कर्म-अव्ययों का पालन करते है जिनके ना करने से हानि होति है अपितु वो कर्म-अव्ययों का पालन
नही करते जो केवल फायदे के लिये हो । एक संयासि कदाचित् भी अश्वमेध यज्ञ के अग्नि को जलाने वाली प्रक्रिया नही करता । क्योंकि यह संयासी के लिये निषेद है ।
चाहे तिरुप्पावै या गीता मे, भाव यह व्यक्त किया जा रहा है कि साधारण कर्म एवम् विशेष कर्म सामान्य जन
के लिए अनुरूप एवम् उचित है क्योंकि श्रेष्ठ जन इन कर्मों का अनुसरण करते है । अत: श्रेष्ठ जनों का चाल-
चलन, जो शास्त्रों मे निपुण है और अनुशासन मे नित्यरत है, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/12/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-14-english/
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