श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी
मुख्य पहचानकर्ता
हर एक जीव का स्वभाव तत्त्व ज्ञान की पूछताछ करना हैं। सभी मत और परम्परागत प्रथा वाले
लोगों के लिए यह महत्त्वपूर्ण है। बहुत से सम्बन्ध में प्रत्येक जीव के स्वभाव अलग अलग
प्रणाली के मध्य में विचलन और मतभेद कि बात होती हैं। इस लेख में हम श्री रामानुज
स्वामीजी द्वारा जीव के मुख्य पहचानकर्ता के बारें में देखेंगे जो जीव का पक्षसमर्थन करने वाले
हैं।
हमारे बहुमूल्य साहित्य में जिसमें शुरों के कार्य जैसे श्री कलिवैरिदास स्वामीजी और श्री
पेरियावाचण पिल्लै शामील हैं और आचार्य जैसे श्री लोकाचार्य स्वामीजी के गूढ साहित्य जो श्री
रामानुज स्वामीजी के जीवन में अक्सर होनेवाली घटना कि तरह हैं।
श्री कलिवैरिदास स्वामीजी
श्री रामानुज स्वामीजी के आध्यात्मिक प्रवेश मार्ग में एक प्रश्न आता हैं। जीव कि स्थापना ज्ञान
और आनन्द के भण्डार से हुई हैं। जीव भगवान का दास हैं ऐसा ठहराया जाता हैं। इन दोनों में
कौन पूर्ण योग्य जीव को पहचानता हैं?
इसका उत्तर जानते हुए भी स्वामी ने यह निश्चय किया कि इस सवाल का निर्णय उनके आचार्य
श्री गोष्ठीपूर्ण स्वामीजी को ही निश्चय करने देते है उस पूछे हुए प्रश्न की महत्वता उनके शब्दों
के कारण अधिक मूल्यवान हो जाती हैं। वह अपने विख्यात शिष्य श्री कुरेश स्वामीजी को नम्बी के पास जाने को कहते हैं और सही समय पर यह प्रश्न पुछने के लिये कहते हैं।
श्री गोष्ठीपूर्ण स्वामीजी
श्री कुरेश स्वामीजी अपने आप को उपस्थित करने के लिये ६ महिने तक प्रतीक्षा करते हैं और फिर सवाल पुछने पर नम्बी सिर्फ यह उत्तर देते हैं “अड़िएनुल्लान उदलुल्लान”। यह सहस्त्रगिती
का (८.८.२) एक भाग हैं। श्री स्वामीजी यह उत्तर लेकर वापस आ जाते है। यह उत्तर से यह प्रतिपादित होता है की इन दोनों मे से “भगवान का दास” यह संज्ञा जीव के स्वरूप को ज्यादा अच्छी तरह से दर्शाति है। “अड़िएनुल्लान उदलुल्लान” इस उत्तर मैं “अडिएन” नामक शब्द से हम यह समझ सकते हैं।
आल्वारों के पदों में कहीं जगह में आडिएन शब्द आता हैं। क्यों नम्बी ने केवल सिर्फ इसी भाग
को चुना? क्या वह आकस्मिक हैं? आल्वार “तिरुविरुत्तम” के आरंभ में यह कहकर शुरू करते हैं
“अडिएन सेय्युम विन्नप्पमे”। जहाँ से वह भाग लिया गया था उस पद में पहला शब्द “अडिएन”
हैं। नम्बी का चुनने का क्या महत्त्व हैं?
अडिएन शब्द का इस्तेमाल दूसरे प्रसंगों में कोई अकेले जीव को विशेष निर्देश नहीं करता।
उदाहरण पर “अडिएन सेय्युम विन्नप्पमे” के विषय में विन्नप्पमे या विनंती केवल एक संगठित
जीव के लिए संभव है और ना की पवित्र जीव के लिए। इसलिये ऐसी स्थिति मे संगठित जीव
के संबंधीत “अडिएन” यह शब्द का अनुसंधान करना आवश्यक हैं। ऐसी घटनाए जीवों के
पहचानकर्ता के लिए अपने आप को पूर्ण ऋण नहीं करते जीव के सच्चे स्थिती में संगठित जीव
के आगे यह विश्लेषण के लिये सही है। दूसरी जगह के लिये जहां “अडिएन” शब्द आता हैं
समान पंक्तियाँ विवाद के लिये लि जा सकती हैं। आल्वार सहस्त्रगिती के ८.८.२ में आडिएन
शब्द एक महत्त्वपूर्ण प्रसङ्ग में इस्तेमाल करते हैं।
सबसे पहिले हम इन शब्दों का अर्थ समझेंगे। इस पद में आल्वार भगवान को जीव का प्रवेशक कहते हैं “अड़िएनुल्लान” और शरीर के प्रवेशक “उदलुल्लान”। क्योंकि यह भगवान के प्रवेशक के
बारें में बात कर रहे हैं उनके आत्मा और सांसारिक दुनिया के प्रवेशक के बारें में यहाँ लाया गया हैं। यह दर्शाता हैं कि आत्मा का भाव संगठन करना बहुत मुश्किल हैं। “उदलुल्लान” शब्द का प्रयोग पवित्र आत्मा का मूल तत्त्व यह दर्शाने के लिये “अडिएन” शब्द के अर्थ को भेद करता है।
“अडिएन” पर निर्भर न होकर तात्पर्य का अर्थ बताने के लिये “उदल” शब्द शरीर को खुद पर प्रबंध करते हैं।
और यह इस वृतांत में चुप्पी का मूल्य मालुम पड़ता हैं। आल्वारों का “नां” से “अड़िएन” को अधिक महत्त्व देना नम्बी का उद्देश सार्थक करता हैं। क्योंकि आत्मा का अर्थ भी “मैं” हीं है तो “नां” शब्द का उपयोग भी माननीय हैं। तदापि सम्बन्ध में छोटों का महत्त्व दूसरे योग्य व्यक्ति का आल्वारों को “अड़िएन” शब्द प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहन करता हैं। यह जीव के मुख्य पहचानकर्ता के उपर लगे भ्रम को स्पष्ट करता हैं।
हालाकि जो घटना बताई गयी और समझायी गयी हैं संतोषजनक हैं और कोई दूसरा प्रमाण भी हैं कि यह सत्य हैं? क्या श्रीरामानुज स्वामीजी इस दृष्टांत को कोई दूसरे कार्य में बताये हैं? नहीं तो यह घटना एक उपयोगी रचना के तरह बीत जाती है। इसको कोई उच्च महत्व नही मिलता।
श्रीरामानुज स्वामीजी इस अवस्था को केवल एक जगह नहीं लेते परन्तु हर जगह वह
श्रीगीताभाष्य के यह शब्द “ज्ञानिन” और “ज्ञानवान” का सामना करते हैं। हालाकि श्रीशांकराचार्यजी
किसीको इस तरह समझाते हैं जैसे “विष्णों तत्त्ववित” (वह जिसे श्री विष्णु का सत्य पता हैं)
श्रीरामानुज स्वामीजी के शब्द “भगवद शेषतैकरस” आत्मस्वरूपवित – ज्ञानी”। एक प्रकाश डालने
वाला व्यक्ति वह हैं जो यह समझ जाता हैं कि आत्मा का स्वभाव तो भगवान का दास बनकर
रहने में हैं। श्री रामानुज स्वामीजी हमें बताते हैं की “जीवात्मा का मुख्य स्वरूप भगवान का दास होना” है
यह बात “जीव का ज्ञानी होना” इस बात से अधिक श्रेष्ठ है। यह बात आल्वारोंके “अड़िएन” को
“नां” (मैं) से अधिक महत्त्व देने का समर्थन करती है।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/14/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-16-english/
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