द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम् 18

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 17

मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी

मनोहरता (प्रसन्नता) के भिन्न भिन्न अनुभव

श्रीमद् भगवद्गीता के १०वें अध्याय का ९वां श्लोक कहता हैं कि

“मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् |
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||”

इसका सरल अनुवाद यह हैं कि “जो मुझे अपने विचारों में भी सहता हैं, जिनका जीवन मुझसे बन्धा हैं, एक दूसरे को मानसिक तौर से उठाते हैं। वह हमेशा मेरे बारें में ही चर्चा करेंगे और संतुष्टि और खुशी प्राप्त करते हैं।”

यह स्तुति साफ तौर से भागवतों के बीच प्रेम को प्रकट करता हैं और उनके एक दूसरे के प्रति वास्तविक प्रभाव जिसका परिणाम तृप्ति और खुशाल जीवन हैं। पारलौकिक भागवतों के साथ जुडने कि जरूरत को आचार्यों ने उपदेश किया हैं और सत्संग के महत्त्व को भी ज़ोर देकर और उपदेश किया हैं।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपदेश रत्नमाला के अन्त में यह समझाते हैं कि हर कोई उनके सत्संग से उनके स्वभाव में लीन हो जाते है। हमें पारलौकिक भागवतों का हीं सम्बन्ध रखने ने के लिये कहा गया हैं।

हालाकि इन सब पदों में श्री रामानुज स्वामीजी के व्याख्या के गुण ही दिखते हैं। गीताजी के अंतिम पद – तुष्यन्ति च रमन्ति च – बहुत चित्तार्कषक हैं। साधारणत: अनुवाद करना जैसे संतुष्टि और आनन्द इन दो शब्दों में कहने लायक कुछ भी नहीं हैं।

इन दोनों पदों में क्या बहुमूल्य जोड़ा गया हैं जो इसे एक में नहीं बता सकते? श्री शंकराचार्यजी समझाते हैं “तुष्यन्ति – परितोसम-उपयांति, रमन्ति – रतिम च प्राप्नुवंति, प्रियसंगत्या इव” [तुष्यन्ति आनन्द कि प्राप्ति हैं। रमन्ति इच्छा वस्तु कि प्राप्ति हैं।] आनन्द और इच्छा वस्तु कैसे प्राप्त होगी उसे विस्तृत नहीं किया हैं। श्री माधवाचार्यजी ने इस पर कोई विस्तृत व्याख्या नहीं कि हैं।

श्री रामानुज स्वामीजी द्वारा कि हुई टीका अनूठी हैं और जो गीता के पदों के समान है उन शब्दों का वर्णन करते हैं। स्वामीजी कि व्याख्या हैं

वक्तारह तद्वचनेन अनन्यप्रयोजनेन तुश्यंती|

श्रोतारश्चा तच्छ्रवेनेना अनवधिकातिसयप्रियेना रमन्ते|

जो व्यक्ति भगवान के बारें में बोलता है वह बोलने से ही संतुष्ट हो जाता हैं और कोई दूसरे उद्देश से नहीं। जो व्यक्ति सुनता हैं उसे भगवान के बारें में सुनने से अधिक खुशी मिलती हैं और इसके जरिये अपार आनन्द की प्राप्ति होती हैं।

यह स्पष्टीकरण सुन्दर हैं क्योंकि स्तुति के पदों मे वह शब्द मिल जाते है। कृष्ण ने कहा था

“बोधयंतह: परस्परम”

वह एक दूसरे को जगाते है (मेरे बारे मे)। उन्होंने यह भी कहा था

“मां नित्यं कथायंतह:”

वह हमेशा मेरे बारें में कहते हैं। इस आपसी समझ के संवाद में एक सुनने का कार्य करता हैं और दूसरा कहने का कार्य करता हैं। वह यह कार्य एक दूसरे से बदलते रहते हैं। इसके परिणाम स्वरूप वही लोग भगवान के बारें में बोलने का आनन्द एक पात्र में लेते हैं और दुसरी तरफ भगवान के बारें में सुनने का आनन्द दूसरे पात्र में लेते हैं। श्री वेदांत देशिक स्वामीजी इसे तात्पर्य चंद्रिका में इस तरह समझाते हैं

“कथानश्रवनयोह एकस्मिन्नेवा कालभेदेन संभावितत्वात”

कहना और सुनना दोनों कार्य अलग समय पर एक हीं व्यक्ति के है।

हालाकि श्रीगीताजी के पदों में, यह श्री रामानुज स्वामीजी की टीका की योग्यता को आसानी से जाँच सकते है इसीलिए यह पुंछना योग्य हैं कि इस अनुवाद को स्थापित करने के लिये यथार्थता में टीकाकार को किसने अधिकार दिया। इस अनुवाद कि यथार्थता आल्वार श्री भक्तिसार स्वामीजी के सीधे अनुभव से प्राप्त होता हैं। नान्मुगन तिरुवंदादि में आल्वार कहते हैं

“तरित्तिरुंदेंन आगवे वाशित्तुम केट्टुम …. पोक्किनेन पोदु”

“तेरिक्कै” यानि “तेरिविक्कै” या कुछ कहना – तुष्यन्ति। “केट्टुम” यानि सुनना – रमन्ति। “पोक्किनेन पोदु” यह बताता हैं कि यह उनका नित्य व्यापार हैं – लगातार प्रेम – मां नित्यं कथयन्तश्च। उसी पद में आल्वार कहते हैं “तरित्तिरुंदेंन आगवे” – मैं इसीसे जीवित हूँ- मच्चिता मद्गतप्राणा। श्री रामानुज स्वामीजी मद्गतप्राणा को इस तरह अनुवाद करते हैं माया विना आत्मधारनं-अलभमानाह: -जो मेरे बिना रह नहीं सकते।

इस तरह श्री भक्तिसार स्वामीजी के पद हमें श्री रामानुज स्वामीजे के गीता के पद के अनुवाद की नींव देते हैं। गीता पद का अर्थ हैं “मेरे भक्त (जैसे श्री भक्तिसार स्वामीजी) मेरे बिना रह नहीं सकते और इसलिये में हमेशा उनके विचारों में रहता हूँ। ऐसे भक्त निरन्तर मेरे बारें में चर्चा करके हमेशा एक दूसरे को बतलाते हैं। बोलनेवाला बोलने का आनन्द लेता हैं और सुनने
वाला सुनने का आनन्द लेता हैं।” यह सुन्दर अनुवाद केवल श्रीरामानुज स्वामीजी को आया क्योंकि वें हमेशा निरन्तर आल्वारों के शब्दों को स्मरण करते रहते थे।

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/16/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-18-english/

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