द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम् 19

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 18

मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी

आराधन में दिव्य प्रबन्ध

हालाकि आल्वारों और आचार्य के उनके आरुलिच्चेयल (दिव्य प्रबन्ध) के प्रति भक्ति के लिये उनके कार्यों से कई दृष्टांत दिये जा सकता है और विद्वान और सांसारिक लोगों के लिए मंदिरों में इन आल्वारों के पदों को गाने से बढ़कर और कुछ भी नहीं है और भगवान कि सवारी के साथ इन पदों को गाते जाने का चलन है।

जब भगवान कि सवारी के सामने प्रार्थना (श्रद्धा) कि धुन से दिव्य प्रबन्ध का पाठ करके माहौल को शुद्ध करते है तब यह अवलोकन करने का दृष्य है। हमारे आचार्यों की यह धारणा है की आल्वारों के पद भगवान को प्रिय है इसिलीये हमारे आचार्यों ने यह रीति स्थापित की और समय समय पर उसे पुन: प्रचलित किया। कोई अवसर ऐसा नहीं
जाता जब उनके पदों को नहीं गाया गया हो। इस रीति के ऊंचे भाव के कारण दिव्य प्रबन्ध का कैंकर्य श्रीवैष्णवों के लिये प्रेममय हो जाता है।

आल्वारों और दिव्य प्रबन्ध का स्थान और उनकी उपयुक्ता मंदिर कि पुजा के लिये हमारे आचार्यों ने निरंतर उन्नत किया है। इस सिद्धान्त को आचार्य हृदयं में श्री आज़्हगिया मनवला पेरूमाल नयनर ने स्थापित किया। श्रीवेदान्त देशिक स्वामीजी भी मंदिरों और सवारीयों में आल्वारों के पदों के गाने कि रीति को सही बतलाकर आचार्यों के लिए यही प्रस्ताव रखते है। जो हमारे आचार्यों ने आल्वारों के पदों के प्रति जो अनगिनत व्याख्या को प्रदान किया है वह उन पदों के प्रति गहरा वर्णन प्रगट करते है। श्रीवैष्णवता- विशिष्टाद्वैत की प्रणाली प्रबंध पाठ कि महक आचार्यों से प्रगट होती है जो की उनके श्वास से निकलती
है और यह संदेश प्राप्त होता है यह कहने के लिये है, यह अतिशययोक्ति नहीं है।

तिरुवरंगत्तू अमुधनर

श्रीरामानुज स्वामीजी जैसे आचार्य के लिये भी जिनके कार्य लगभग संस्कृत मे है और संस्कृत वेदान्त कि तरफ विवरण करने के लिये अनुकूल है, उनकी व्याख्या और उनकी जीवनी कि लघुकथा जो दिव्य प्रबंध और गुरु परम्परा व्याख्या मे है उसे हम दिव्य प्रबंध पाठ के साथ सम्बन्ध प्रकट कर सकते है। तिरुवरंगत्तू अमुधनर एक समकालीन और श्री रामानुज स्वामीजी के (और श्री कुरेश स्वामीजी के) शिष्य, यह पता लगाते है कि सबसे पहिले अपने स्वामी कि उनके पाण्डित्य की किर्ति और आल्वारों के पदों के अनुभव इन दोनों का सम्बन्ध वह पवित्र साधुओं के साथ रखते थे।

इसलिये यह प्रश्न के बाहर है कि श्रीवैष्णव जन जो आचार्य के शिक्षा के अनुरूप रहते है उनको
भगवान का कैंकर्य करते समय दिव्य प्रबन्ध के पदों का गान करते रहना चाहिये। पदों को गाने
के पीछे ,उनके जीवन की सुधारना को सूचित करके उनका मान बढाता है और उनको स्वरूपानुरूप रहने के लिए आगे बढाता है (जो आत्मा का सच्चा स्वरूप है)।

हालाकि सब क्षेत्र मे नहीं कहने वाले हैं। सब जगह हमें लोग मिलेंगे जो हमे अर्ध सत्य और षडयंत्र रचने वाले है। जब प्रणाली के सिद्धान्त को आगे रकते है, कुछ यह कहते है कि यह सिद्धान्त को कोई ग्रन्थ का प्रमाण नहीं है। सच्चाई में जो लोग यह बयान देते है वह इस ग्रन्थों के विश्लेषण के भेद से अपरिचित रहते हैं। परन्तु जब तक वह अपनी मनोहरकारक रचना से बाहर खिचता है तब तक कम शिक्षीत और सीधे-साधे जन अस्त-व्यस्त रहते है। और कुछ तो उनकी बातों पर पूर्ण विश्वास भी कर लेते हैं।

वेद और आगमा का विश्लेषण किये बिना एक वर्ग के लोग यह दावा करते हैं कि भगवान अर्चावतार में उनके ही रूप में है जिसके लिए कोई ग्रन्थ का आधार नहीं है। वह यह सोचते हैं कि वेदों के कुछ पद गाना ही काफी है। यह कोई पद्धति नहीं है हमारे सम्प्रदाय के आचार्यों कि। बिना सोचे समझे यह लिखना कि हमारे आचार्यों ने ऐसा क्यो कहा या किया यह सर्वनाश कि विधी के तरफ इशारा करता है।

इस व्यतिक्रम के लिये कारण हैं। हमारे आचार्यों की सुंदर प्रवृति के ऐतिहासिक प्रमाण होते हुए भी होते हुए भी न कहनेवालों ने दिव्य प्रबन्ध को भी बक्षा नहीं है। नहीं कहनेवाले यह दावा करते हैं कि हालाकि दिव्य प्रबन्ध मंदिरों में होता है और इसका ऐतिहासीक प्रमाण भी लिखा है फिर भी श्रीरामानुज स्वामीजी के कौन से भी ९ कार्यों में अपने शिष्यों को दिव्य प्रबन्ध गाने के लिये नहीं लिखा है।

ह गलत दोषारोपण हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी ने अपने कौन से भी ९ कार्यों में अपने शिष्यों को सीधा सम्बोधन नहीं किया। (ऐसा उपदेश उनके शिष्यों ने लिख के लिया और यह लेख आज के तारीख में भी उपलब्ध हैं।) एक ऐसा कार्य जहाँ हम कुछ उपदेश देख सकते है वह है नित्य ग्रन्थ – जो श्रीरामानुज स्वामीजी का अंतिम कार्य है। इस कार्य में श्रीरामानुज स्वामीजी ने भगवान कि सेवा कि विधी समाझायी है।

अगर श्रीरामानुज स्वामीजी सच में दिव्य प्रबन्ध के और झुके हुए होते तो उसे भगवान कि रोजमर्रा कि सेवा पद्धति में गाने के लिये शामिल करते थे या नहीं करते थे।

और सच मे उन्होंने किया।

दिव्य प्रबन्ध को “सेविक्किनिया सेंचोल” के नाम से जानते हैं। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति के (१०.६.११) में कहते हैं

“केतपारार वानवर्गल सेविक्किनिया सेंचोल”

इसका अर्थ यह हैं कि दिव्य प्रबन्ध सब को सुनने के लिये मधुर हैं। श्रीवैष्णवों को सुनने के लिए भी मधुर है। यह भगवान के कानों के लिये भी मधुर हैं।

श्री रामानुज स्वामीजी के विचार पूरी तरह श्रीसहस्त्रगीति से भीगे हुए थे नित्य ग्रन्थ में उसी नाम का प्रयोग करते थे। वह दिव्य प्रबन्ध को

“श्रीसुखा स्तोत्र अभिस्तुय”

कहकर बुलाते थे। इसलिये यह “स्तोत्र” है। यह कोई क्रम रहित स्तोत्र नहीं श्रीसुखा स्तोत्र हैं – वह बढाई जो कानो को सुनने में आनन्द देती है – सेविक्किनिया सेंचोल।

श्रीरामानुज स्वामीजी दिव्य प्रबन्ध को “आल्वारों के पद” नहीं कहते है। वह उन्हें आल्वारों द्वारा ही दिया हुआ नाम से बुलाते थे – श्रीसुखा स्तोत्र या सेविक्किनिया सेंचोल – स्वयं कि पदों पर पकड़ और उसकी रक्षा करना यह दोनों बात बताते थे ।

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/17/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-19-english/

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