द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम् 22

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 21

मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी

श्रीशठकोप स्वामीजी के वैभव का प्रकाश, श्रीभाष्य से

आळ्वारों के दिव्य पासुरों से प्रेरित, श्रीभाष्य का मङ्गलश्लोक, भगवान् श्रियः पति श्रीनिवास के लिये समर्पण तो है ही पर इसके साथ साथ यह स्वयं शठकोप स्वामीजी के लिये सहृदय समर्पण है और उनकी उपाधि है । श्रीभाष्य मङ्गलश्लोक को दूसरे दृष्टिकोण से अगर समझा जाये तो यह श्लोक श्रीशठकोप स्वामीजी को समर्पित होता है ।  यह कैसे इस लेख मे आप के लिये प्रस्तुत है :-

अखिल-भुवन-जन्म-स्थेम-भङ्गादि-लीले :

अखिल-भुवन-जन्म-स्थेम-भङ्गादि:

स्वयं भगवान् है | वह ही सृष्टि के निर्माण, पालन-पोषण, और प्रलय के कारक है | तेन-सह-लीला-यस्य — इसका अर्थ है वह, जो इस भगवद्-लीला मे भगवान् के साथ क्रीडा करता हो अर्थात् स्वयं शठकोप स्वामीजी | अतैव, उपरोक्त वाक्य शठकोप स्वामीजी का गुणगान है | श्री शठकोप स्वामीजी ऐसे सृष्टिकारक भगवान् के साथ क्रीडा करते है |  

 

 

भगवान् से क्रीडा करने का उल्लेख स्वयं शठकोप स्वामीजी अपने

एन्नुडैय पन्दुन् कळलुम् तन्दु पोगुनम्बी ” 

विळैयाडपोदुमिनेन्नप्पोन्दमै

इन पासुरों मे किये है | इन संयुक्त शब्दों का अलग चुनाव एक और अर्थ दर्शाता है :- भुवन-जन्म-स्थेम-भङ्गादि-लीलः अखिलम् यस्य | भुवन-जन्म-स्थेम-भङ्गादि: सर्व कारण कारक भगवान् स्वयं है | ऐसे भगवान् किसके सर्वस्व है ? शठकोप स्वामीजी के | आप श्री स्वयं अपने

उण्नुन्चोरु परुगुनीर् तिन्नुम् वेट्रिलैयुम् एल्लाम् कण्णन्

पासुर मे यही दर्शाते है  | हमारे जैसे भौतिकवादियों के लिये जीनेके लिये, संवृद्धि के लिये, और भौतिकानन्द के लिये बहुत वस्तुएँ है | पर श्री शठकोप स्वामीजी के लिये ये सभी उनके प्रिय प्रियतम भगवान् श्री कृष्ण ही है |

विनित-विविध-भूत-व्रात-रक्षैक-दीक्षे :-

निश्चित है, भगवान् ही सभी के रक्षक है | परन्तु, एक भक्त के दृष्टिकोण से, भगवान् की सम्पूर्ण प्राप्ति ही सर्वस्व नही है | जैसे एक शिशु को, माता के प्रति प्रेम है, पर माता के स्थन को पाने की चाहना उसमे सर्वाधिक है | इसी प्रकार एक शरणापन्न भक्त के लिये सर्वाधिक चाहना भगवान् के दि्वय चरणकमल के प्रति है जो भक्त के लिये केन्द्रबिन्दु है |

भगवान् के दि्वय चरणकमल का निज वास शठारि या शठकोप के नाम प्राचीन मन्दिरों मे सुप्रसिद्ध है जो श्री शठकोप स्वामीजी के नाम पर ही रखा गया है | अतैव, भगवान् के दि्वय चरणकमल और श्री शठकोप स्वामीजी अभिन्न है | क्योकि भक्त अपनी रक्षा के लिये भगवान् के चरणकमलों का आश्रय लेते है, अत: यह स्पष्ट रूप से शठकोप स्वामीजी की उपाधि है |

 

श्रुति-शिरसि-विदीप्ते :

श्रुति शिरसि – वेदान्त है | श्रुति-शिरसि-विदीप्त: – वेदान्त सार से भलिभाँति परिचित या वेदान्त सार का वेत्ता है | श्री शठकोप स्वामीजी वेदान्त सार भगवान् से सदैव अभिज्ञ है | अतैव यह उन्ही की उपाधि है |

वेद स्वयं श्री शठकोप स्वामीजी की उद्घोषणा करता है – ” तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवांसस्-समिन्धिते “ |  विप्र शब्द आल्वार के लिये है जैसे ” ना शूद्रा भगवद्भक्ता विप्रा भागवतास्मृताः “  – भगवद् भक्त शूद्र होने पर भी मोहित एवं शोकार्त नही होता है | वह विप्र (बुद्धिमान) होता है क्योंकि वह यह जानता है की वह भगवान् का केवल साधन है | ” पण स्तुतौ “ के अनुसार, विपन्यव: आल्वार का, भगवद्गुण-स्तुति करने का विशिष्ट गुण है | भगवद्-गुण गान करने वाले भक्तों कि शृण्खला मे, श्री शठकोप स्वामीजी का स्थान सबसे अलग एवं विशिष्ट है |

उनकी बराबरी का कोई भी नही है – ” तेविर्चिरन्द तिरुमार्कुत्तक्क तैवक्कविग्नन् “ | जागृवंश शब्द यहाँ सदैव जागरूकता गुण को दर्शाता है | श्री शठकोप स्वामीजी सदैव भगवद्-तत्तव के विषय मे जागरूक है, जहाँ तहाँ देखो सर्वस्व भगवान् ही नज़र आते है, भगवदानुभव ही उनकी जीवीका है | आप भौतिकवाद जैसी कठोर अन्धकार मे ऊंघते भी नही जिसमे साधारण जीव बिना किसी सफलता के, सात्त्विकता के लिये निरन्तर उत्प्रेरित है | आप श्री के लिये, भौतिक भोग्य सुन्दर अपसराओं के विभिन्न आकर्षण, अनाकर्षण सा नजर आता है, क्योंकि आपके श्री नेत्र, इस जगत् के विभिन्न वस्तुओं मे, एक ही तत्त्व याने परम परात्पर परमात्मा का कारण स्वरूप – “कारण कर्ता, पोषण कर्ता और विशुद्ध सत्य” को देखते है | भौतिकवाद के सुखों से उन्मद स्थिति ही अजारुक अवस्था है और दिव्य भगवदानुभव से उत्प्रेरित चिरस्थायी जारुकता ही अभिज्ञता है |   

कण्णारक्कण्डु कळिवदोर् कादलुट्रर्क्कुम् उण्डो कण्कल् तुङ्जुडले ” |

श्रीभाष्य और वैदिक श्लोक का सम्बन्ध समिन्धते शब्द मे है | यह ” प्रज्वलित कुआँ ” का अभिग्रहण विदीप्ते शब्द मे है | श्रीभाष्य के इस श्लोक मे उपसर्ग (वि) शब्द, वैदिक श्लोक के उपसर्ग (सम्) शब्द का कार्य करता है |

ब्रह्मणि :

ब्रह्मण शब्द ” बृह ” मूल धातु से उत्पादित है जिसका अर्थ है सभी पहलूओं मे महान् | श्री शठोप स्वामीजी की महान्ता यह है कि सक्षात् परब्रह्म श्रीमन्नारायण उनकी मुठ्ठी (हिरासत) मे है |  अतः आप श्री भगवान् से भी श्रेष्ठ है और यह आपकी ही उपाधि है | आप श्री अपने पेरिय तिरुवन्दादि मे कहते है – ” यान् पेरियन् नी पेरियन् एन्पदनै यार् अरिवार् “ | यहाँ ब्रह्मण शब्द पेरियन् शब्द का पर्यायवाची शब्द है |

श्रीनिवासे :

अब कोई यह कह सकता है, भाई यहाँ तक सभ ठीक है पर तुम निश्चित रूप से श्रीनिवास श्री शठकोप स्वामी ही है यह नही कह सकते | श्रिय: पतित्वम् – यह विशिष्ट उपाधि केवल भगवान् की ही है और किसी अन्य की नही हो सकती | आपकी यह तार्किक बुद्धि को अब स्थगित कर दीजिये |

हालांकि श्रिय:पतित्वम् श्री भगवान् की ही विशिष्ट उपाधि है और इसमे कोई सन्देह भी नही है, अतः घबराहिये मत | पर, श्री शठकोप स्वामीजी सहित अन्य भी श्रीनिवास है ऐसा पूर्वाचार्यों का कथन है जैसे :

१) लक्ष्मणो लक्ष्मी सम्पन्नः :: लक्ष्मण लक्ष्मी सम्पन्न है

२) स तु नागवरः श्रीमान् :: गजेन्द्र, हाथियों का राजा, श्री सम्पन्न है

३) अन्तरिक्षगतः श्रीमान् :: श्री सम्पन्न, विभीषण, ने वायु मार्ग यात्रा किया

उपरोक्त उदाहरणों मे श्री शब्द के विभिन्न अर्थ है | श्री लक्ष्मण के विषय मे, श्री शब्द धन (दौलत) को दर्शाती है जो भगवान् की सेवा का स्वरूप धारण करती है | गजेन्द्र के विषय मे, श्री शब्द गजेन्द्र के शुद्धता धन को दर्शाती है, जिसके माध्यम से, गजेन्द्र ने केवल एक कमल फूल समर्पित करने लिये भगवान् को आर्द्र भाव से पुकारा जब वह अत्यन्त पीड़ा मे था | विभीषण के विषय मे, श्री शब्द उनके विशुद्ध ज्ञान को दर्शाती है, जिससे उन्होने महा विश्वास से भगवच्छरणागति की | असल मे, यही धन-दौलत का चरम चिरस्थायी (नीङ्गाद शेल्वम्) स्वरूप है जो श्रीवैष्णव सम्प्रदाय मे मान्य है | 

श्री शठकोप स्वामीजी के विषय मे, व्याख्याकार इनकी तुलना उन सभी श्रीमानों से करते है पर साथ मे साक्षात् श्री महालक्षमी अम्माजी से भी करते है | श्री शठकोप स्वामीजी श्रीनिवास है क्योंकि उनमे उपरोक्त वर्णित उन भक्तों के चिरस्थायी श्री गुण है या फिर आप श्री भगवद्गुणारूपी जगज्जननी श्री महालक्ष्मी अम्माजी के विशिष्ट गुण सम्पन्न है |

(वेदवल्ली तायार्) (परान्कुश नायकी)

यह चर्चा स्पष्ट रूप से बुद्धियुक्त भाषा शैली का प्रयोग है, जिसमे भगवद्रामानुजाचार्य भगवदानुभव के आन्चल मे शठकोपानुभव का रसपान कर रहे है | इसी कारण, श्रीतिरुवरङ्ग स्वामीजी (अमुदानार्) अपने रामानुज नूट्ट्रन्दादि पासुरों मे कहते है – ” मारन् अडि पणिन्दु उय्दवन् “ जो भगवद्रामानुजाचार्य का मुख्य उपाधि है |

श्री शठकोप स्वामीजी के पासुरों का प्रभाव श्रीभाष्य के अन्त तक देखा जा सकता है | अक्षरश: यह सत्य है जो आप और हम सभी यह देख सकते है |

वेदान्त सूत्र का अन्तिम सूत्र है : ” अनावृत्तिस्-शब्दात् | अनावृत्तिस्-शब्दात् ” |

अनावृत्ति: शब्द का अर्थ है — जीव मोक्ष पाने के बाद इस भौतिक जगत मे वापस नही आता | जीव का अप्रतिगमन का कारण “शब्दात्” है अर्थात् क्योंकि वेद (शास्त्र) ने ऐसा कहा है | शास्त्र कहता है – न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते | एक मुक्त जीव का भौतिक जगत् मे पुनरागमन नही होता |

उपरोक्त सूत्रार्थ, एक ज्ञानरहित सूखे और हटधर्मी के लिये यह विश्वसनीय है पर भगवद्रामानुजाचार्य के लिये नही जो अभिज्ञ वेदान्ती ही नही, अपितु (जो) भावयुक्त संशोधित धर्मशास्त्री और चैतन्य तत्तव वेत्ता है | अन्य व्याख्याकारों की तुलना मे, एक उचित सन्देह (प्रश्न) पूछते है — कि क्यों शास्त्र भगवान् पर बाध्य है ? विभिन्न वेदान्त तत्तवों मे, चाहे परब्रह्म और जीव के विभिन्न विचार क्यों न हो, असल मे सबसे बडा प्रश्न है  क्यों मोक्ष प्राप्त करना सहनीय है ?

एक अद्वैतवादि के लिये, समस्या का स्वरूप यह है कि परब्रह्म, (जो) पूर्व स्थिति मे अविद्या से दूषित है, वह मोक्ष के उपरान्त कैसे अदूषित होता है ? और अगर परब्रह्म पहले से अदूषित है तो “बहुत सारे” नही बन सकता | ऐसा कोई उपाय भी जिससे निर्मलता प्राप्त हो, क्योंकि परतत्त्व प्रक्षेत्र मे परब्रह्म ही है | अगर वापसी केवल सम्बन्धपरक प्रक्षेत्र का शाब्दिक प्रयोग है,  फिर यह ब्रह्मसूत्र और वेदान्त को अपमानित करता है | ब्रह्मसूत्र रचनाकार ने यही सोचा कि यह सूत्र चरम सूत्र होगा जो यह सूचित करता है कि एक जीव का भौतिक जगत् मे वापसी निश्चित रूप से सन्देहास्पद है, परन्तु इस सन्देह का समाधान स्वयं वेद शास्त्र की उद्घोषणा है | उपरोक्त तथ्यानुसार, सूत्र रचनाकार, अद्वैतवाद के तथ्य प्रमाण यानि अनधिकृत परब्रह्म जो इस सन्देह को वर्जित करता है से स्वीकृत नही है | द्वैतावादी को भी, जो पूर्णतया परब्रह्म को स्वतन्त्र मानता है, यह सन्देह उचित क्योंकि स्वतन्त्र परब्रह्म वेद के एक वाक्य से बाध्य नही हो सकते है और वह जीव का भौतिक जगत् मे पुनरागमन करने मे पूर्ण रूप से सक्षम है और स्वतन्त्र है |

विशिष्टाद्वैतवादी के लिये, यह प्रश्न (सन्देह) का होना ना तो अनुचित है ना तो वर्जित है ना तो इसका समाधान कठिन है, क्योंकि जीव (आत्मा) सदैव परब्रह्म का ही साधन है, चाहे जीव इसे माने या ना माने | जीवात्मा मे इतना तादात्म्य है कि यह पुनरागनम प्रश्न जितना (उसके लिये) विचारणीय है, उतना ही विचारणीय स्वयं ब्रह्मसूत्र के व्याख्याकार भगवद् वेद व्यास को है, पर ऐसे पृथक (विभिन्नाम्श) भाव से नही, कि स्वतंत्र परब्रह्म के मद्देनजर  “गैर वापसी” से संघर्ष करना | (जीवात्मस्वरूप में इतनी भिन्नता स्वीकृत है कि उसके पुनर्गमन-प्रश्न ब्रह्मसूत्रकर्ता  से  विचार योग्य माना गया है । पर इतनी भिन्नता नहीं कि परमेश्वर के निरंकुश स्वातंत्र्य के कारण इसके मुक्तिदशा में  पुनराव्रत्तिराहित्य का समाधान देने में संघर्ष हो।) क्योंकि जीवात्मा परब्रह्म परमात्मा का साधन है, तो वापसी इस अन्धकारमय अज्ञानमय जगत् की सोच है, अर्थात् प्रकृति के तीन गुणों के मोह मे होना | “गैर वापसी” ज्ञानकारक मोह-नाशक भगवदानुभाव के दिव्य अनुभूति से इस मोह से दूर रहना है |

फिर भी विशिष्टाद्वैतीयों के लिये, परब्रह्म ही एक मात्र स्वतंत्र तत्त्व है और उनकी यह स्वतंत्रता जीवात्मा को बन्धित कर सकती है | भगवान् श्री कृष्ण भगवद्गीता मे  “मम माया” “मेरी माया” कहकर, यह दर्शाते है कि प्रकृति का खेल उनके अधीन मे ही हो रहा है | अब यहाँ एक और उचित प्रश्न उठता है — ऐसा क्या कारण या चीज़ है को भगवान् को अभिज्ञ जीवात्मा को फिर से अपनी माया के अधीन मे, करने से रोकता है ?

इस प्रश्न का उत्तर देने मे, भगवत्पाद श्रीरामानुज स्वामीजी केवल शास्त्रों के माध्यम से निश्चित नही करते अपितु तर्क से परे जाते है |  श्रीरामानुज स्वामीजी, क्यों शास्त्र ऐसा कहता है का तत्त्वमीमांसा कर, अपने स्वयं की विशिष्ट शैलि से, तत्त्वमीमांसा का कृत्रिम उत्पादन कर, वेदान्तसार और व्यवहारिक अनुभव को स्थापित करते है | वेदान्त, पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथायें, और दिव्यअनुभूति एक ही स्वर मे वेदान्त शिष्य के कानों मे गूँजते है

वेदान्त तत्त्व मीमांसा मे भगवान् और जीवात्मा को बाध्य रखने वाली प्रकार-प्रकारी (साध्य-साधन) भाव नहि अपितु साथ साथ मे सहज व्यवहार की दृष्टिकोण से प्रेमी-प्रेमिका का भाव भी है | परब्रह्म का जीवात्मा के साथ जो सहज सम्बन्ध भाव है वह कर्मवाच्य संबंधों के सैधान्तिक रूप से तो ज्ञेय है ही पर साथ साथ मे यह दो अभिज्ञ तत्त्वों का पारस्परिक अनुबन्ध से भी ज्ञेय है | यह अनुबन्ध चित् और परमात्मा का दिव्य आलिङ्गन है | यह प्रेममय अनुबन्ध और प्रेमतत्त्व का आलिन्गन है | भगवान् केवल कर्मवाच्य जीवात्मा से भिन्न पोषणकर्ता ही नही अपितु वह असाध्य प्रेमी है, जो जीव के लिये विभिन्न रूपों मे अवतरित होते है, और अपना प्रयास कभी भी नही छोडते | भगवान् स्वयं भगवद्गीता मे, अभिज्ञ जीवात्मा परम आप्त और प्रिय है | भगवान् स्वयं कहते है, ऐसे अभिज्ञ जीवात्मा का मिलना और दूढ़ना उनके लिये ही बहुत कठिन है |  यह शब्द पक्षपाती और सहनशील (निष्क्रिय) व्यक्तित्व का नही है | ये प्रेममय शब्द है | भगवान् कहते है — “स च मम प्रियः” — “वह मेरा प्रेम है, अन्य अभिलाषा के बिना” |

सबसे परे, भगवद्पाद श्रीरामानुजाचार्य को यह प्रेरणा, श्री शठकोप स्वामीजी के दिव्य पासुरों से ही मिला है | कही भी, ऐसे भगवदालिङ्गन और भगवद्प्रेम की क्रीडा किया गया है, जैसे श्री शठकोप स्वामीजी के अनुभव मे खेला गया है |

श्री शठकोप स्वमीजी के इस अनुभव भार को तोलकर, भगवद्पाद श्रीरामानुजाचार्य लिखते है –

“न च परमपुरुष: सत्यसंकलपः अत्यर्थप्रियं ज्ञानिनं लब्ध्वा कदाचिद् आवर्तयिषि्यति” |

ऐसे परब्रह्म, परमात्मा, जिनका संकल्प अचूक है, कदाचित् भी कैङ्कर्य मोक्ष प्राप्त करने वाला ज्ञानी (अभिज्ञ) जीवात्मा को इस भौतिक जगत् मे वापस नही भेजेंगे, (जो) उनके पास अनेक और असंख्य वर्षों के बाद लौटा है, (जो) भगवान् का प्रिय है | संदर्भवाच्य यह ऐसी स्थिति है जहाँ आप भगवान् श्री कृष्ण से माखन को लौटाने की माङ्ग कर रहे हो | क्या भगवान् श्री कृष्ण यह देंगे ?

श्री शठकोप स्वामीजी, जीव को पाने ही चाहना और अनुभव करने मे भगवान् का भगवाद्-प्रेम है, यह ” एन्निल् मुन्नम् पारित्तुत्त तानेन्नै मुट्रप् परुगिनान् “ पासुर से दरशाते है |  सर्वप्रथम् कदम लेकर – ऐसे भगवद्-प्रेम मे भाग लेना (लेने का सौभाग्य प्राप्त करना), भगवान् ने मेरा पूर्ण अनुभव किया | इस पासुर का अर्थ कोई शाब्दिक तरीके से समझा नही सकता है पर यह केवल परिपूर्ण प्रेम रस मे निमग्न व्यक्तित्व वाला ही अनुभव कर सकता है | ऐसे जीव प्रेमी असुधार्य भगवान् अपने प्रेमिका (अभिज्ञ जीव) को वापस इस भौतिक जगत् मे भेजते नही |

भगवद्पाद श्रीरामानुजाचार्य अपने श्रीभाष्य का अन्त भी अनोखे और अलंकार रूप से करते है | आप श्री भगवान् के भगवद्गीता के श्लोक का उद्धरण कर कहते है – “वासुदेवस्सर्वमिति सा महात्मा सुदुर्लभ:” जिससे भगवान् स्वयं के श्रीमुख से भगवद्-प्रेम की व्युत्पत्ति करते है, जो भटके जीवात्मा के लिये तत्पर है | जैसे ही भगवान् ने उत्तरी द्वार से स्वधाम को पधारे तुरन्त दक्षिणी द्वार से श्री शठकोप स्वामीजी प्रकट हुए और कहे – ”उण्णुङ्चोरु परुगिनीर् तिन्नुम् वेट्रिलैयुम् एल्लाम् कण्णन् “ — भगवान् श्री कृष्ण ही मेरे सर्वस्व है | ऐसे दिव्य शब्द जो भगवान् श्री कृष्ण के श्री मुख से निकले, वह श्री शठकोप स्वामीजी का रूप धारण किया | इन सभी को मद्देनजर रखते हुए, भगवद्-पाद श्रीरामानुजाचार्य ने भगवान् श्री कृष्ण की दिव्य वाणी को उद्धृत कर अपनी व्खाख्या का समान्त किया |

देखिये किस प्रकार, श्री शठकोप स्वामीजी की अभिज्ञता और उनके पासुरों की जागरुकता, श्रीभाष्य की प्रशंसा करने मे कैसे अपरिहार्य है |

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/20/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-22-english/

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