श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
श्रीशठकोप स्वामी एवं कुरेश स्वामी (आळ्वार एवं आळ्वान)
श्रीकूरेश स्वामी द्वारा विरचित, अतिमानुष स्तव का तीसरा श्लोक भी आप श्री का आळ्वार के प्रति अत्यन्त प्रेम भावना को प्रकाशित करता है ::
श्रीमत् परान्कुश मुनीन्द्र मनोविलासात् तज्जानुरागरसमज्जनं अञ्जसाप्य |
अद्याप्यनारततदुत्तित रागयोगं श्रीरङ्गराजचरणाम्बुजं उन्नयामः ||
इस श्लोक का मुख्य पद ” श्रीरङ्गराजचरणाम्बुज उन्नयामः ” है और भगवान् श्रीरङ्गनाथ के दिव्य चरणों की ओर अंकित है | एक सामान्य कवि को भगवान् के चरणकमलों की लालिमा दर्शाने के लिये अनेकानेक कारण है जैसे उनके चरणों की कोमलता, या चरणकमल जो बहुत कोमल एवं नाजूक है, चलने या किसी अन्य क्रिया से ऐसे लालिमा से चिह्नित है |
हमारे प्रिय आळ्वान (कूरेश) स्वामीजी, (जो) कवियों और श्रीवैष्णवों मे अग्रगण्य चूडामणि है, भगवद् चरणों की लालिमा को एक अलग ही दृष्टिकोण देकर विशेष कारण प्रकाशित करते है | आप श्री कहते है कि श्री शठकोप स्वामीजी (के), (भक्तिसागर से आवृत) हृदय मन्दिर मे भगवान् के चरणों ने निवास प्राप्त कर (भगवान् के दिव्य चरणों ने), प्रेम का रङ्ग (लालिमा को) प्राप्त किया और भगवच्छरणों की यह लालिमा अभी भी ऐसे ही है |
भगवान् के प्रति श्री शठकोप स्वामीजी के प्रेम की तुलना मे कूरेश स्वामीजी का शठकोप स्वामीजी के प्रति प्रेम, बहुत ज्यादा एवं बडा है (सर्वश्रेष्ठ) | अतिमानुष स्तव का द्वितीय भाग जो श्रीकृष्ण भगवान् के दिव्य चरित्र पर आधारित है वह केवल श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य वचनों का सीधा अनुसरण है |
वकुळधरसरस्वतीविषक्त-स्वररसभावयुतासु किन्नरीषु |
द्रवति दृषदपि प्रसक्तगानास्विहवनशैलतटीषु सुन्दरस्य ||
उपरोक्त सुन्दरबाहु स्तव का बारहवाँ श्लोक का तात्पर्य यह है कि किन्नर स्त्रीयाँ जो तिरुमालिरुन्शोलै दिव्य देश के सुन्दरबाहु अर्चा भगवान् को पूजने आती है, वे अपने कौशलपूर्ण गान कला के माध्यम से श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य पासुरों का मधुर गान इस प्रकार करती है कि यह गान इन पासुरों के अर्थों से तालमेल खाती है | | इसके अतिरिक्त इन किन्नरों का यह गान इतना मधुर एवं रसपूर्ण है कि इस दिव्य देश के कठोर पत्थर भी गल (पिघल) जाते है | इस प्रकार से सभी चिदचित वस्तुएं पिघलकर नुपुरगङ्गा (सिलम्बरु) धारा के रूप मे बहती है | ऐसे दिव्य देश एवं श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति प्रेम भावानाओं को हमारे प्रिय कूरेश स्वामीजी ने बहुत अद्भुत रूप से इस श्लोक मे प्रकाशित किया है |
प्रिय आळ्वान ” मरण्गुळम् इरण्गुम् वगै मणिवण्णा एन्ड्रु कूवुमाल् “ पासुर पद को याद करते है | ऐसे भव्य एवं प्रेममय पासुर को प्रकट करने वाले श्रीशठकोपसूरी के पासुर कठोर पत्थरों को पिघला देते है | सामान्य जन की बात ही क्या करें ? ऐसे पासुर तो सभी जनों के लिये मुक्तिदाता है और निश्चित रूप से मुक्ति देने का सामर्थ्य रखते है |
आळ्वान अन्कित करते हुए कहते है कि इनके पासुर तो केवल इस भूमण्डल के मनुष्य ही नही गाते अपितु समस्त लोकों के जन गाते है जब वे सभी भगवद् आराधना करते है | इस प्रकार से, आळ्वान श्रीशठकोपसूरी के वैभव का रसास्वादन अपने अन्दाज़ मे करते है |
वरदराजस्तव (५९) मे, आळ्वान ऐसे दिव्य स्थानों का वर्णन करते है जहाँ भगवान् के चरणों ने आनन्दपूर्वक निवास प्राप्त किया है | इस सूची मे, वे कहते है ” यश्च मूर्धा शठारे: “ अर्थात् श्रीशठकोपसूरी का मस्तक भगवान् के चरणों का आनन्दपूर्वक निवास स्थान है |
असल मे सत्य यह है कि आळ्वान के प्रत्येक स्तव, श्रीशठकोपसूरी के दिव्य पासुरों पर ही आधारित है | परन्तु उदाहरनार्थ आप सभी के लिये यह तुलना प्रस्तुत की जा रही है |
अनुवादक टिप्पणी :: जो इच्छुक प्रपन्न इनके अर्थों को यथार्थ भाव मे समझना चाहते है वो कृपया श्रीमान उभय वेदान्त कांची स्वामी अनुग्रहीत भावुक सुन्दर व्याख्या का अवश्य पठन करे जो आळ्वान एवं श्रीशठकोपसूरी के प्रत्येक शब्दों की तुलना को दर्शाती है |
आळ्वान के पुस्तक का नाम | आळ्वान के शब्द | श्रीशठकोपसूरी के शब्द | तुलनात्मक भाव |
श्रीवैकुण्ठ स्तव (७) | ऊर्ध्वपुंसां मूर्धनि चकास्ति | १) तिरुमालिरुन्चोलै मलैयेतिरुप्पार्कडले एन्दलैये !!!
२) एननुच्चियुळाने |
श्रीशठकोपसूरी कहते है : जिस प्रकार अन्य दिव्यदेशों मे भगवान् श्रीमन्नारायण अपने दिव्यचरणों को इङ्गित करते हुए खडे है ठीक उसी प्रकार भगवान् उनके मस्तक पर खडे है | उनका यह भी कहना है कि भगवान् महान सन्तों (जैसे शठकोपसूरी) के मस्तक पर खडे रहते है | |
श्रीवैकुण्ठस्तव (१०) | प्रेमार्द्र-विह्वलितगिर: पुरुष: पुराण: त्वाम् तुष्टुव: मधुरिपो ! मधुरैर्वचोभि: | १) उळ्ळेलामुरुगि कुरल् तळुत्तु २) ओळिन्देन्वेवारावेत्कै नोय् मेललावियुळ्ळुलर्थ३) आरावमुदे ! अडियेनुडलम् निन्पालन्बाये नीरायलैन्दु करैय वुरुककुगिन्ड्र नेडुमाले |
आळ्वार अपनी वाणी एवं हृदय मे कोमलता का कारण भगवद्प्रेमानुभव बताते है |
कूरेश स्वामी भी ऐसे स्वभाव के बारे मे कहते है जो भूतकाल के महान् आचार्य (जैसे आळ्वार) मे है और जिनके शब्द भगवद् अनुराग (प्रेम) से कोमल है | |
सुन्दरबाहु स्तव (१०) | प्रेमार्द्र-विह्वलितगिर: पुरुषा: पुराण: त्वां तुष्टुवुः मधुरिपो !! मधुरैर्वचोभि: | श्रीशठकोपसूरी
अ) ब) |
श्रीशठकोपसूरी कहते है कि नित्य सूरियों, भगवान्, भगवद्-भक्तों को, उनके दिव्य शब्द कितने मधुर और आस्वादनीय है | श्रीकूरेश स्वामीजी कहते है श्रीशठकोपसूरी जैसे सन्तों के दिव्य वचन और शब्द मधू की तरह मधुर है | |
सुन्दरबाहु स्तव (४) | उदधिगमन्दाराद्रि
मन्थन-लब्ध-पयोमधुर-रसेन्द्राह्वसुधा-सुन्दरदो: परिघम् |
श्रीगोदा अम्माजी मन्दारम् नाट्टि यन्द्रु मधुरक्कोळुञ्चारु कोण्ड सुन्दरत्तोळुडैयान् |
यथार्थ अनुवाद (क्षीरसागर मन्थनलीला को बताने वाले श्लोक) |
सुन्दरबाहु स्तव (५) | शशधरिङ्खन् आध्यशिखम् | श्रीशठकोपसूरी
मदितवळ्कुडुमि मालिरुञ्चोलै |
यथार्थ अनुवाद |
सुन्दरबाहु स्तव (५) | भिदुरित-सप्तलोक-सुविशृंखल-शङ्ख-रवम् | श्रीशठकोपसूरी
अदिर्कुरल् चङ्गत्तु अळगर् तम् कोयिल् |
यथार्थ अनुवाद |
सुन्दरबाहु स्तव (८) | सुन्दरदोर्दिव्याज्ञा …
पूरा श्लोक |
पेरियाळ्वार् (श्रीविष्णुचित्त स्वामी)
करुवारणम् तन्पिडि … तन् तिरुमालिरुञ्चोलैये |
यथार्थ अनुवाद |
सुन्दरबाहु स्तव (१६, १७) | प्रारूढ श्रियम् आरूढ श्री: | श्रीगोदा अम्माजी
एरु तिरुवुडैयान् |
यथार्थ अनुवाद |
सुन्दरबाहु स्तव (४०) | पूरा श्लोक | आळ्वार (श्रीशठकोप स्वामीजी) कोळ्किन्द्र कोळिरुळै चुकिर्न्दित्त मायन् कुळल् |
यथार्थ अनुवाद |
सुन्दरबाहु स्तव (49) |
पूरा श्लोक | श्रीगोदा अम्माजी
कळिवण्डेङ्गुम् कलनदार्पोल् .. मिळिरनिनद्रु विळैयाड तिरुमङ्गै अळ्वार मैवण्ण नरुण्कुङ्जि कुळल्पिन्ताळ मगरन् चेर् कुळैयिरुपाडिलन्गियाड |
श्रीकूरेश स्वामीजी का यह श्लोक श्रीगोदा अम्माजी और श्रीतिरुमङ्गै आळ्वार के दिव्य पासुरों से उत्पन्न अनुभवों का सार सङ्ग्रह है | |
सुन्दरबाहु स्तव(५५) |
पूरा श्लोक |
श्रीगोदा अम्माजी चेङ्कमल नाण्मलर्मेल् तेनुकरुमन्नम्पोल् ..चङ्करैया |
यथार्थ अनुवाद |
सुन्दरबाहु स्तव (६२ & ६३) |
पूरे श्लोक |
शठकोप स्वामी :
तण्डामरै चुमक्कुम् पादप्पेरुमानै |
श्रीकूरेश स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी के पासुर के चुमक्कुम् पद का दिव्य अनुभव एवं महत्ता का अनुभव करते है | |
सुन्दरबाहु स्तव (९२) |
पूरा श्लोक |
तिरुमङ्गै आळ्वार्
निलैयैडमेङ्गुमिन्ड्रि |
भावार्थ : कूरेश स्वामी का श्लोक का छन्द तिरुमङ्गै आळ्वार् के पासुर के छन्द से तुल्य है | |
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/24/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-26-english/
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