श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
श्री पराशर भट्टर और आळ्वार
श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की परम्परा मे, स्वामी श्री पराशर भट्टर, एक प्रसिद्ध एवं निपुण व्यक्तित्व है | उनका सम्प्रदाय एवं परम्परा मे ज्ञान अतुलनीय है और इस विषय मे आपकी प्रवीणता तो स्वामी रामानुजाचार्य से तुल्य है | यही एक मात्र कारण है कि स्वामी रामानुजाचार्य का निर्णय “श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्र की व्याख्या” श्रीपराशर भट्टर करे | आप श्री की “विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र व्याख्या” “श्रीमद् भगवद्गुणदर्पण ” के नाम से सुप्रसिद्ध है | आप श्री की व्याख्या पूर्णतया आळ्वार के दिव्य वचनों से बद्ध है | व्याख्या का विस्तार को देखते हुए, हम इस छोटे से लेख मे विस्तृत रूपेण, आप श्री और आळ्वार के दिव्य प्रबन्ध की समान्ता को दर्शा नही सकते |
अतैव हम केवल श्रीरङ्गराजस्तव का उद्धरण ही देखेंगे | आप श्री, श्री शठकोप सूरी की प्रशंसा करते हुए कहते है :::
ऋषिम् जुषामहे कृष्ण-तृष्णातत्त्वमिवोदितं |
सहस्रशाखां योद्राक्षीत् द्रामिडीम् ब्रह्म सम्हिताम् || (६)
श्री पराशर भट्टर, श्री शठकोप सूरी की तुलना ऋषि (साधु-सन्त) से करते है | श्री शठकोप सूरी एक और दृष्टिकोण से श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम का साक्षात् स्वरूप है | कहने के लिये जैसे श्री कृष्ण भक्ति और श्री शठकोप सूरी अभिन्न है अर्थात् दोनों का एक ही स्वरूप है | श्री पराशर भट्टर कहते है कि असंख्य वेद शाखाओं का सार को, श्री शठकोप सूरी ने तमिल भाषा मे प्रकाशित किया |
तेरहवें श्लोक मे, आप श्री कहते है :::
अमतम् मतम् मतमतामतम् स्तुतम् परिनिन्दितम् भवति निन्दितम् स्तुतम् इति रङ्गराजमुदजूघुशत्-त्रयि
उपरोक्त श्लोक का पूर्व भाग (प्रथम भाग) उपनिषद् वाक्य “यस्यामतम् तस्य मतम् …” का सीधा अनुसरण करता है | (जो) यह सोचता है कि ब्रह्म ज्ञेय है, (वह) असल मे ब्रह्म को जानता नही है | (जो) यह सोचता है कि ब्रह्म अभी भी अज्ञेय है, वह सत्य मे ब्रह्म को जानता है |
श्लोक के अगले भाग मे श्री पराशर भट्टर कहते है, भगवद् स्तुति करना निन्दा है और निंदा करना स्तुति है | यह विषय उपनिषद् मे कहीं भी वर्णित नही है, तो यहाँ यह कैसे आप श्री ने बताया ? इसका उत्तर आळ्वार अनुगृहीत दिव्य प्रबन्ध ही है | आळ्वार (श्री शठकोपसूरी) पेरिय तिरुवन्दादि मे कहते है
“पुगळ्वोम् पळिप्पोम् पुगळोम् पळियोम्, इगळ्वोम् मडिप्पोम् मडियोम् इगळोम् ” |
यहाँ विशेष यह है कि श्री पराशर भट्ट इन दोनों भागों “त्रयि” से है | इससे यह सूचित किया जा रहा है कि श्री पराशर भट्ट, उपनिषद् एवं दिव्य प्रबन्धों को वैदिक श्रुति मानते है | यही विचार उनके १६वें श्लोक मे सुस्पष्ट रूप से दर्शाते हुए कहते है – ” स्वं संस्कृत द्राविड वेद सूक्तै: “ अर्थात् वेद कि सूक्तियाँ दो भाषाओं मे प्रकट हुई है |
२१वें श्लोक मे कावेरी नदी को उपद्रवी नदी मानते हुए एवं इसी भाव का रसास्वादन करते हुए ” दुग्धाब्धिर्जनको जनन्यहमियं “ कहते है जिसमे तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार के मधुर वचन ” तेळिविलाक् कलङ्गल् नीर्चूळ् तिरुवररङ्गं “ का सीधा अनुसरण करते है |
तिरुमङ्गै आळ्वार (परकाल सूरी) के सेवानुगृहीत श्रीरङ्ग मन्दिर के विभिन्न मण्डप, दुर्ग (मीनार), पथ इत्यादि की स्तुति एवं प्रार्थना ३६वें श्लोक मे उपलब्ध है ::
जितबाह्यजिनादिमणिप्रतिमा अपि वैदिकयन्निवरङ्गपुरे |
मणिमण्डपवपगणान् विदधे परकालकविः प्रणमेमहि तान् ||
चूंकि मण्डप, दुर्ग एवं पथ, पूरी तरह से ऊर्ध्वपुण्ड्र एवं शङ्ख-चक्र से चिह्नित है, इसी लिये आप श्री “वैदिकयन्निव” कहते है | इन्ही चिह्नों की वजह से मण्डप, दुर्ग एवं पथ मे उपयोगित सामग्री वैदिकीय हो गयी है |
चन्द्र पुष्करिणी के पूर्व छोर मे जिन आळ्वारों का निवास स्थान है उनका वैभव गान ४१वें श्लोक इस प्रकार से श्री पराशर भट्ट स्वामी करते है :
पूर्वेण तां तद्वदुदारनिम्न प्रसन्न शीतशयमग्ननाथाः |
पराङ्कुशद्याःप्रथमे पुमांसो निषेदिवांसो दशमांदयेरन् ||
इस चन्द्र पुष्करिणी तटस्थ वृक्ष का वर्णन करते हुए श्री पराशर भट्ट कहते है :
पुन्नागतल्लजम-अजस्र-सहस्र-गीतिसेकोतथ-दिव्य-निजसौरभमामनामः | (४९)
कहा जाता है कि यह तटस्थ वृक्ष सहस्र गीति के मधुर सुगन्ध (सौगन्ध) (महक) रस का नि:स्त्रवण करता है क्योंकि इसी तटस्थ वृक्ष की छाया मे, अनन्य श्रीवैष्णव सहस्र गीति के गूढ एवं निगूढतम अर्थों का रसास्वादन करते थे | इस वैभव एवं सौन्दर्य युक्त वर्णन मे, श्री पराशर भट्ट श्रीवैष्णव दिनचर्या -” दिव्य प्रबन्ध का पठन पाठन एवं आळ्वार श्रीसूक्तियों का सत्सङ्ग – अर्थानुसन्धान एवं भगवद् विषय प्रतिपादक वार्तालाप” भी दर्शाते है |
कुळशेखर आळ्वार, भगवान् श्रीरङ्गनाथ के समक्ष स्थित परिस्थिति के परिणामस्वरूप विकसित भाव का वर्णन करते हुए कहते है : कडियरङ्गत्तु अरवणैयिल् पळ्ळिकोळ्ळुम् मायोनै मनत्तूणे पट्रिनिन्ड्रु एन्वायारवेन्ड्रु कोलो वाळ्तुनाळे ” अर्थात् भगवान् श्रीरङ्गनाथ के दिव्य एवं सुन्दर नेत्रों से रसपूर्ण एवं सुगन्धित प्रवाह, आपके समक्ष स्थित भक्त को इस प्रकार हिला देती है कि वह अपने पैरों पर एक चित्त होकर खड़ा नही हो पाता | ऐसे दिव्य अनुभूति का निरन्तर अनुभव करने के लिये भक्त को “मणत्तून्” स्तम्भ का आलिङ्गन कर सहारा लेना पडता है | इस भाव का प्रकाशन आप श्री ५९वें श्लोक मे करते हुए कहते है :
शेषशयलोचनामृत नदीरयाकुलितलोलमानानाम् |
आलम्बमिवामोदस्तम्भद्वयम् अन्तरङ्गमभियामः ||
कृपया गौर करे :: श्री पराशर भट्ट स्वामीजी “मणत्तून्” शब्द का सीधा अनुवाद “आमोदस्तम्भ” से करते है |
७८वें श्लोक मे आप श्री कहते है, भगवान् श्रीरङ्गनाथ का मानना है कि उनके प्रिय भक्त श्रीशठकोप सूरी के दिव्य प्रबन्धों के शब्द, उनके निज निवास स्थान का प्रत्यक्षीकरण है |
(वटदल-देवकीजठर-वेदशिरः कमलास्थन शठकोपवाग्वपुषि रङ्गगृहे शयितम्)
९१वें श्लोक मे आप श्री, श्री शठकोप सूरी के दिव्य भाव (मुडिच्चोदियाय् उनदु मुगच्चोदि मलर्न्ददुवो) को पुनरुद्धार कर प्रकाशित करते है | (किरीटचूडरत्नराजिराधिराज्यजल्पिका | मुखेन्दुकान्तिरुन्मुखं तरङ्गितेव रङ्गिणः |)
११६वें श्लोक मे, “त्रयो-देवास्-तुल्यः” श्री शठकोप सूरी के
“मुदलान् तिरुवुरम् मूण्ड्रेन्बर्, ओन्ड्रे मुदलागुम मून्ड्रुककुम् एन्बर्”
पासुर का सीधा अनुवाद है |
श्री पराशर भट्ट एवं श्री शठकोप सूरी के शब्दों की समतुलना आगे दिखाना केवल अपने को मूर्ख साबित करने का प्रतीक है | श्री पराशर भट्ट के शब्द श्री शठकोप सूरी के दिव्य वचनों के परिपूर्ण सुगन्धरूप से विकसित है जिससे जिज्ञासु को लगता है कि आळ्वार का प्रभाव इनके कार्यों मे है | जो इनके कार्यों अर्थात् ग्रन्थों के शब्दों का रसास्वादन अनुभवी व्याख्याओं सहित करते है, वह निश्चित रूप मे धन्य है |
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/25/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-27-english/
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