वेदार्थ संग्रह: 1

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

वेदार्थ संग्रह

मङ्गलाचरण श्लोक

यह परम्परागत अनुशीलन है आचार्यो को अपने शिक्षा या ग्रन्थ रचना के प्रारम्भ करने से पूर्व भगवान् एवं स्वाचार्य का मङ्गलाचरण श्लोक प्रस्तुत करें । इसी प्रकारेण प्रपन्न प्रिय भगवद् रामानुजाचार्य स्वामी अपने पहले ग्रन्थ में ऐसे दो मङ्गलाचरण श्लोक प्रस्तुत कर (पहला भगवान् के प्रति और दूसरा स्वाचार्य के प्रति) ग्रन्थ का प्रारम्भ करते है ।

अशेष चिदचिद् वस्तु शेषिणे शेषशायिने ।

निर्मलानन्त कल्याण निधये विष्णवे नमः ।।

पहिले प्रार्थना में श्रीरामानुज स्वामीजी अपने आप को भगवान विष्णु को समर्पित करते है जो वेदों के mool है। भगवान कृष्ण गीताजी में इसका निश्चय करते है (सर्वे: वेदै: अहमेव वेद्य:) [ मैं, स्वयं हीं सभी वेदों के जरिये जाना जाता हूँ ] क्योंकि भगवान विष्णु वेदों के मुख्य संदेश है श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हीं को समर्पित होते है। इस समर्पण को अपने ग्रन्थ में शामिल कर वें उनकी प्रार्थना का गान करके अपने सभी शिष्यों को भगवान विष्णु को समर्पित होने को कहते है। एक हीं श्लोक से वें वेदों के तत्त्वों का प्रभाव करते और शिष्यों को मार्गदर्शन देते है।

भगवान विष्णु तिरुमला में वेंकटेश रूप में

भगवान विष्णु के तीन गुण है:

[i] अशेष – चिद् – अचिद् – वस्तु – शेषिन्

बिना कोई अपवाद के वह हम सब के स्वामी है। अस्तित्वों के जो वे स्वामी है उसमे चेत और अचेत दोनों शामिल है। वें संवेदशील और असंवेदशील के स्वामी है। हम यह साफ रूप से अपने अनुभव से देख सकते है कि सभी संवेदशील और असंवेदशील कई सम्बन्धियों द्वारा हीं शासन किया गया है। वह स्वतन्त्र नहीं है। उन्हें उनका राज्य उनके कानून अनुसार प्राप्त होता है। इसलिये सभी संवेदशील और असंवेदशील कोई उच्च सिद्धान्त के दास है। इसलिये उन्हें शेषभूत कहा जाता है। जो स्वतन्त्र है जो उनका स्वामी है उन्हें शेषी कहा जाता है।

[ii] शेषशायिन

वह आदिशेष पर विराजमान होते है। आदिशेष भगवान विष्णु के अनन्त भक्त है। क्योंकि वें इस संसार से सदा मुक्त है उन्हें नित्य सूरी कहते है। यह गुण यह बताता है कि भगवान का अधिकार सच्चा सम्बन्ध है जो नित्य जन जैसे आदिशेष द्वारा अनुभव किया गया है। इस परिस्थिति में इस संसार बन्धन से मुक्त आदिशेष भी  भगवान की सेवा करते है जो उनके स्वामी है। इससे यह संदेश जाता है कि इस आलौकिक परिस्थिति में सभी जन अपना सम्बन्ध भगवान से समझते है। इस सम्बन्ध को शेष-शेषी सम्बन्ध कहते है।

इस पहिले वर्णन से श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान विष्णु और सभी जन के मध्य सच्चा सम्बन्ध बताते है वैसी ही जैसे एक स्वामी और दास के मध्य में। दूसरे वर्णन से वह यह समझाते है कि इस संसार से वही मुक्त होता है जो इस सम्बन्ध को समझ सकता है।

पर क्या वह स्थिति जिसमे अन्य के अधिकार में रहना कोई दुःख का प्रतिरूप तो नहीं ?? फिर वह ऐसे अनुभव (विचार) को विलम्ब करने का प्रयास करेगा जब तक अन्य का आधिपत्य (अन्य के आधिपत्य (स्वामित्व) में रहना) स्वीकृत न हो ।

उपर बतायी हुई विरोध का आधा उत्तर दिया जा सकता है यह देखकर कि वह सम्बन्ध सच्चा है और अत: यह तब भी काम करता है जब कोई इसे समझता भी न हो। इसलिये इस सम्बन्ध से बचने का कोई राह नहीं है। इस विरोध का पूर्ण उत्तर इस तरह बताया गया है कि भगवान का स्वामी होना कष्ट भोगने का रूप नहीं है परन्तु  परमानंद है। इसे श्रीरामानुज स्वामीजी तीसरे वर्णन में कहते है।

[iii] निर्मलाकान्त कल्याण निधिः

भगवान विष्णु पवित्र और समाप्त न होने वाले शुभ के स्वामी है। इस तरह वह अनूठे है। नित्य जन भी उनके स्थिर कृपा उनके द्वारा हीं प्राप्त करते है। बाकि जन कम नियत और दुख प्राप्त करते है। चेतन वस्तु (सकल जीव) संसार के तीव्र प्रभाव के सङ्ग से मलिन एवं अधोमुख होता है। पर भगवान् तो विशुद्ध सत्त्व है। भगवान् कभी भी कलंकित नही हो सकते है। उनके विभिन्न अवतार अकलंकित, दोष रहित एवं दिव्य है। वह पारलौकिक तो है ही अपितु मोक्षदाता भी है (सभी जीवों को मोक्ष प्रदान कर सकते है)। भगवान् ऐसे असीमित दिव्य शक्तियों से युक्त है जिनसे वह मोक्षदाता व मोक्षप्रदायक के रूप में प्रकाशमान है। अतः यह स्पष्ट है कि हम उसके (भगवान् के) प्रति समर्पित हो और मोक्ष प्राप्त करें।

भगवान् चूंकि कलंक रहित व दिव्य शक्तियों से युक्त व पूर्णतया शुद्ध व अतिशयोक्ति सुन्दरता से युक्त है, भगवान् श्री विष्णु का यह अनुभव बहुत आनन्दप्रद है। इस प्रकार जीव भगवान् विष्णु के साथ अपने निज व नित्य सम्बन्ध को समझकर भगवान् के प्रति समर्पित हो, तब वह जीव सुख व आनंद का अनुभव करता है। उनका स्वामित्व व आधिपत्य अपने आप मे आनन्दमय है। भगवान् अपने स्वामित्व का प्रभाव किसी भी जीव पर जोर जबरदस्ती से नही करते। परन्तु, आध्यात्मिक ज्ञानाभिज्ञ जीव जैसे सन्त महापुरुष यथार्थ रूपेण भगवदानुभव करते है और इस अनुभव के प्रभाव से भगवद् प्रेम से पूरित रहते है। भगवद् सेवाभाव का प्रादुर्भाव ऐसे प्रेम युक्त भगवदानुभव से होता है। अतः ऐसे भगवान् का अभिमत व सोद्देश्य की सेवा करने से, जीव आनन्द व परिपूर्ण तृप्ति प्राप्त करता है। भौतिक संसार का सम्बन्ध अनित्य एवं बहुत दुःखद है। भगवान् विष्णु का जीव से सम्बन्ध निज एवं नित्य व आनन्दमय हैं।

उनका असीमित अतिशय शुभ उनका सर्वश्रेष्ठ उत्कृष्टता है। वह अपने प्रभुत्व मे भी दोष युक्त नहीं है। किसी भी कला मे वह प्रवीण है | उनका शासन या कानून उनके प्रयास के अनुसार लागू नही है | उनका कानून बहु खूबी से लागू है | ऐसी प्रवीणता मे मोक्ष एवं उद्धार की आशा निहित है |

ऐसे सकल गुण युक्त भगवान् आदि पुरुष श्री विष्णु है | न तो वह दुर्लभ है न तो बहुत दूर है | वह सवत्र विद्यवान है, और विष्णु शब्द का यही अर्थ है | वह चित अचित (चेतन और अचेतन) वसतुओं मे व्याप्त और उपलब्ध है | वह सर्वत्र व्यापक होते हुए भी , (वह) कलङ्क रहित एवं पारलौकिक है जैसे सूर्य के किरणों से प्रकाशवान कीचड़ सूर्य को कलङ्कित नही कर सकता |  

अत: हम ऐसे विष्णु को समर्पित हैं |

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/28/vedartha-sangraham-1-english/

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