अन्तिमोपाय निष्ठा २ – आचार्य लक्षण/वैभव

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

अन्तिमोपाय निष्ठा

<< आचार्य वैभव और शिष्य लक्षण – प्रमाणम

पिछले लेख (अन्तिमोपाय निष्ठा – १ (आचार्य वैभव और शिष्य लक्षण – प्रमाण)) में, हमने कई प्रमाणों को देखा जो आचार्य वैभव और शिष्य लक्षण के बारे में बताते हैं।

अब आचार्य वैभव पर अधिक जानकारी –

प्राचीन काल से सच्चे आचार्य की आश्रय लेने से पहले हर समय अंतहीन अंधेरे रात की तरह है और जिस दिन एक सच्चे आचार्य की आश्रय लेते हैं वोह एक सच्चा भोर है। इसे निम्नलिखित द्वारा समझा जा सकता है

  • “पुण्याम्भोज विकासाय पापध्वान्त क्षयाय च; श्रीमान् आविरभूत्भूमौ रामानुज दिवाकरः” – जिस तरह सूरज को देखने पर कमल खिलता है, हमारे पाप और अंधेरापन गौरवशाली सूरज “श्री रामानुज” के शुभ प्राकट्य पर स्वतः खत्म हो गए।
  • “आदित्य राम दिवाकर अच्युत बानुक्कळुक्कुप् पोगात उळ्ळिरुळ् नीन्गि, सोशियात पिऱविक्कडल् वर्रि, विकसियात पोतिल् कमल मलर्न्ततु वकुळ भूषण भास्करोदयत्तिले” (आचार्य हृदय – श्री राम और कृष्णावतार के उपस्थिति मे  भौतिक संसार का वह अंधेरा / की वह अज्ञानता जो नष्ट नहीं हुई, वह श्री शठकोप स्वामी (वकुळाभरण) के शुभ प्राकट्य पर स्वतः खत्म हो गए ।

इस प्रकार आचार्य के प्राकट्य को संसार (भौतिक संसार) में अंतहीन अंधेरे को हटाने का कारण बताया गया है। ऐसा कहा जाता है कि जैसे ही भागवतों की दयालु दृष्टि किसी पर पड़ती है, यह अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने में सभी बाधाओं को दूर कर देगी और व्यक्तियों को स्वयं को संसार से छुटकारा पाने के लिए अन्य प्रयासों की आवश्यकता नहीं होगी। वे लोग जो आचार्य की दया का उद्देश्य हैं, भले ही महान पापी रहे हों, उनके सभी कर्म पूरी तरह से आचार्य के आश्रय लेने के पल में नष्ट हो जाएंगे और पूरी तरह से शुद्ध हो जाएंगे और अन्ततः श्रीमन् नारायणन् के दिव्य धाम परमपद को प्राप्त करेंगे ।

इसे निम्नलिखित संदर्भों से और समझा जा सकता है ः

अार्ति प्रबन्ध – ४५

नारायणन् तिरुमाल् नारम् नाम् एन्नुम् मुऱै
आरायिल् नेन्जे अनादि अन्ऱो – सीरारुम्
आचारियनाले अन्ऱो नाम् उय्न्ददु एन्ऱु
कूचामल् एप्पोऴुदुम् कूऱु

हे मन ! भगवान् श्रीमन नारायण और हमारे (जीवात्मा) का संबंध अनन्त (नित्य) हैं – हमारे आचार्य के दिव्य निर्देशों से हमें (जीवों को) इस संबंध-ज्ञान का आभास हुआ और हम प्रबुद्ध हुए । इसलिए, हमें हमेशा निरभीकता से आचार्य की ओर कृतज्ञता के साथ आभारी होना चाहिए।

श्रीवचन भूषण – सूत्र ४०८ और ४०९

उण्डपोतोरु वार्त्तैयुम् उन्ऩातपोतोरु वार्त्तैयुम् चोल्लुवार् पत्तुप्पेरुण्डिरे,

अवर्गळ् पासुरम् कोण्डन्ऱु इव्वर्त्तम् अऱुतियिडुवतु

ऐसे १० आऴ्वार हैं जो भगवत् अनुभव होने पर भागवतों की महिमागान करते हैं, लेकिन जब कोई भगवत् अनुभव नहीं होता है तो उन्हे दण्ड देते हैं (चरम दुःख के कारण जो अलग होने से बाहर आता है)। आचार्य वैभव उन आऴ्वारों के शब्दों के माध्यम से स्थापित नहीं होता है।

अवर्गळैच् चिरित्तिरुप्पार् ओरुवरुन्ण्डिऱे;

अवर् पासुरम् कोन्ण्डु इव्वर्त्तम् अऱुतियिडक्कडवोम्

वहां मधुरकवि आऴ्वार हैं जो अन्य आऴ्वारों पर हंसते हैं क्योंकि वह सदैव श्री शठकोप स्वामि की महिमागान करने में स्थित हैं। हम उनके शब्दों का उपयोग करके आचार्य वैभव स्थापित कर रहे हैं।

अनुवादक टिप्पणी: मधुरकवि आऴ्वार कन्निनुम् शिरुत्ताम्बु के अन्तिम पासुरम् में घोषित करते हैं कि जो लोग उनके (मधुरकवि आऴ्वार) शब्दों में विश्वास करते हैं और भक्ति के साथ श्री शठकोप स्वामी के दिव्य वचनों का पालन करते हैं, वह सभी श्रीवैकुण्ठ (परमपद) को अवश्य देखेंगे ।

मधुरकवि आळ्ळवार, श्री शठकोप स्वामि, नाथमुनि – कांचीपुरम
श्री शठकोप स्वामी और श्री रामानुज – आऴ्वार तिरुनगरी

अनुवादक टिप्पणी: अगले (लंबे) अनुच्छेद में, लेखक श्री शठकोप स्वामी के श्री रामानुज पर शब्दों की तुलना मधुरकवि आऴ्वार के श्री शठकोप स्वामी पर शब्दों से करता है। इस तुलना से हम खुद आसानी से आचार्य की महिमा को समझ सकते हैं जो भगवान् से भी अधिक है । प्रकाशित ग्रन्थ में, यह अनुच्छेद पूर्ण नहीं है और यह अभिज्ञात है कि अनुच्छेद का शेष भाग मूल प्रतिलिपि में गायब है।

परमाचार्य श्री शठकोप स्वामि के शब्द श्री मधुरकवि आऴ्वार के शब्द
         अप्पोऴुतैक्कप्पोऴुतु एन् आरावमुतम्  –

पल के पल बाद, भगवान् मेरा दिव्य अमृत है

तेन्कुरुकूर् नम्बि एन्ऱक्काल् अण्णिक्कुम् अमुतूरुम् एन् नावुक्के  –

जिस क्षण मैं श्री शठकोप स्वामी का नाम का उच्चारण करता हूं, यह नाम मेरे लिए अमृतमय है

मलक्कु नावुडैयेन् –

मेरी हर्षित जिह्वा है (एम्पेरुमान् की महिमा गान करने से)

नाविनाल् नवित्तु इन्बमेय्तिनेन् –

श्री शठकोप स्वामी की महिमा की बात करके और आनंदित हो गया

अडिक्कीऴ् अमर्न्तु पुगुन्तेन् –

तिरुवेकटमुडैयान् के कमल चरणों का आश्रय लिया

मेविनेन् अवन् पोन्नडि मेय्म्मैये  – वास्तव में श्री शठकोप स्वामी के स्वर्ण चरणों पर आत्मसमर्पण कर दिया
कण्णनल्लाल् देय्वमिल्लै –

कण्णन् एम्पेरुमान् की तुलना में कोई अन्य भगवान् नहीं है

देवु मत्तरियेन् –

मैं श्री शठकोप स्वामी के अलावा किसी भी भगवान् को नहीं जानता

पाडि इळैप्पिलम्  –

मैं भगवान् की दिव्य महिमा का गान करना कभी नहीं छोड़ूंगा

पाडित्तिरिवने  –

मैं श्री शठकोप स्वामि की महिमा का गान हमेशा चारों ओर घूमते हुए करुंगा

इन्गे तिरिन्तेर्क्किऴुक्कुर्रेन् –

इस दुनिया के लोगों ! इसी दुनिया में भगावन् की पूजा करने में आपकी क्या हानि है?

तिरितन्तागिलुम् देव पिरानुडैक् करियकोलत् तिरुवुरुक् काण्बन् नान् –

दोबारा, मैं इस दुनिया में नित्यसूरि के नेता के दिव्य रूप को देखूंगा (पूजा) – माधुरकवि आऴ्वार, जो एक आचार्य निष्ठावान हैं, वह स्वयं एम्पेरुमान् की पूजा करते है क्योंकि वही उनके आचार्य को प्रसन्नता देता है।

उरिय तोण्डन् –

भगवान के सेवकों का एक उचित सेवक

नम्बिक्काळुरियन् –

श्री शठकोप स्वामी का एक उचित सेवक (जो भगवान् के सेवक हैं)

तायाय्त् तन्तैयाय् –

भगवान् ही मेरे मात और पिता हैं (मेरे प्रति प्यार और स्नेह से भरे हुए)

अन्नैयाय् अत्तनाय्  –

श्री शठकोप स्वामि मेरे मात और पिता हैं (मेरे प्रति प्यार और स्नेह से भरे हुए)

आळ्गिन्ऱान् आऴियान्  –

भगवान् जो दैवीय सुदर्शन चक्र धारी है वही मेरे नियंत्रक है

एन्नैयाण्डिडुम् तन्मैयान् –

श्री शठकोप स्वामी ही मेरे नियंत्रक है

कडियनाय्क् कन्जनैक् कोन्र पिरान् –

भगवान् वह व्यक्ति है जिसने कंस को मार डाला और मुझ पर बहुत एहसान किया (आऴ्वार यहां दिखाते है कि भगावन् द्वारा अन्य भक्तों पर किए गए किसी भी एहसान को स्वयं पर एहसा किया ऐसे मानना चाहिए)

सडगोपन्  –

श्री शठकोप स्वामी जिन्होंने “सडम” नामक अज्ञानता को बाहर निकाला जो हमारे जन्म के दौरान हमें कवर करता है।

याने एन्तनते एन्रिरुन्तेन् –

मैं अहंकार और ममकार से भरा था

नम्बिनेन् पिरर् नन् पोरुळ् तन्नैयुम् नम्बिनेन् मडवारैयुम् मुन्बेलाम्  –

मैं सोच रहा था कि आत्मा मेरा है (समझने की बजाए यह भगवान् की संपत्ति है) और सोच रहा है कि मेरे लिए महिलाएं आनंद लेने के लिए हैं)

एमरेऴेऴुपिरप्पुम् मासतिरितुपेत्तु –

भगवान् द्वारा मुझे कई जन्मों के लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद दिया गया है

इन्ऱु तोट्टुम् एज़्हुमैयुम् एम्पिरान्  –

श्री शठकोप स्वामी अब से कई जन्मों के लिए मेरे भगवान् है

एन्नाल् तन्नै इन्तमिऴ् पाडिय ईसन्  –

भगवान् ने मेरे शब्दों के माध्यम से स्वयं का महिमागान किया है

निन्ऱु तन् पुगळ् एर्ऱ अरुळिनान्  –

श्री शठकोप स्वामी ने मुझे आशीर्वाद दिया ताकि मैं उनेकी महिमागान कर सकूं

ओट्टुमो इनि एन्नै नेगिऴ्क्कवे  –

क्या भगवान मुझे अपने निष्ठा से गिरने की इजाजत देंगे? (नहीं)

एन्ऱुमेन्नै इगऴिलन् काण्मिने –

श्री शठकोप स्वामी मुझे अपने निष्ठा से कभी गिरने नहीं देंगे?

मयर्वऱ मतिनलम् अरुळिनन्  –

भगवान् ने मुझे दिव्य दोष रहित ज्ञान का आशीर्वाद दिया

एण्डिसैयुम् अऱिय इयम्बुकेन् ओण्तमिऴच् चटगोपन् अरुळैये –

मैं सभी दिशाओं में श्री शठकोप स्वामी (मुझे दोष रहित ज्ञान का आशीर्वाद दिया है) की दिव्य दया का प्रचार करूंगा

अरुळुडैयवन् –

भगवान दयालु है

अरुळ्कण्डीर् इव्वुलगिनिल् मिक्कते-

श्री शठकोप स्वामी की दया पूरी दुनिया की तुलना में अधिक है

पेरेनेन्ऱु एन् नेन्जु निऱैयप् पुगुन्तान्  –

भगवान् ने मेरे हृदय में प्रवेश किया और घोषित किया कि वह कभी नहीं छोड़ेंगे

निर्कप्पाडि एन्नेन्जुळ् निऱुत्तिनान् –

शास्त्र के सार को समझाकर (भागवत-शेषत्व – भागवतों की सेवा) दृढ़ता से, उन्होंने हमेशा के लिए मेरे हृदय  पर कब्जा कर लिया

वऴुविला अडिमै चेय्य वेण्डुम् नाम् –

हमें सभी अलग-अलग संभावनाओं में हमेशा के लिए निर्दोष रूप से भगवान की सेवा करनी चाहिए

आट्पुक्क कातल् अडिमैप् पयनन्ऱे –

भृत्यता से उत्पन्न प्यार / प्रेम श्री शठकोप स्वामी के प्रति शाश्वत दासयता है

पोरुळल्लात एन्नैप् पोरुळाक्कि अडिमै कोण्डाय् –

भगवान् ने मुझे अज्ञानता की स्थिति से ज्ञान स्थिति में स्थानांतरित कर मुझे अपनी सेवा में संलग्न किया

पयनन्ऱागिलुम् पान्गल्लरागिलुम् चेयल् नन्ऱागत् तिरुत्तिप् पणि कोळ्वान् –

भले ही मैं किसी भी चीज़ के लिए उपयुक्त नहीं हूं, श्री शठकोप स्वामी मुझे शुद्ध कर मुझे अपनी सेवा में संलग्न किया

आरद कादल् –

भगवान् की ओर इस दास को प्रेम कभी खत्म नहीं होता

मुयल्गिन्रन् उन्तन् मोय्कऴर्क्कन्बैये –

मैं आपके कमल चरणों की ओर प्रेम / लगाव विकसित करने की कोशिश कर रहा हूं

कोलमलर्प्पावैक्कन्बागिय एन् अन्बेयो –

मैं भगवान के लिए प्रिय हूं
(जो श्री महालक्ष्मी के लिए प्रिय है)

तेन्कुरुगूर्नगर् नम्बिक्कन्बनाइ –

मैं श्री शठकोप स्वामी के लिए प्रिय हूँ जो आऴ्वार तिरुनगरि के नियंत्रक है

उलगम् पडैत्तान् कवि  –

महान कवि

मदुरकवि –

मीठा(मधुर) कवि

उरैक्कवल्लार्क्कु वैकुन्तमागुम् तम्मूरेल्लाम् –

उन लोगों के लिए जो तिरुवाय्मोऴि पढ़ते हैं, जहां वे हैं, वह स्थान श्रीवैकुण्ठ (परमपद) में परिवर्तित हो जाएगा

नम्बुवार्पति वैकुन्तम्काण्मिने –

वह जो विश्वास करता है और आचार्य निष्ठा के मेरे शब्दों का पालन करता है, श्रीवैकुण्ठ (परमपदम) पहुंचेंगे

 

अनुवादक टिप्पणी: निम्नलिखित उपधारा मे पिळ्ळै लोकाचार्य के श्रीवचनभूषण दिव्य शास्त्र के विविध सूत्रों के माध्यम से आचार्य के गुणों और आचार्य की महानता को दर्शाया है जिसको श्रीमद्वरवरमुनि की अभूतपू्र्व व्याख्या के माध्यम से समझ सकते है।

पिळ्ळै ळोकाचार्य, श्रीमदवरवरमुनि – श्रीपेरुम्बूदूर
  • सूत्र ३०८  – जब एक आचार्य निर्देश देते हैं जो शिष्य के कल्याण पर केंद्रित है, तो उन्हे स्वयं के स्वरूप, शिष्य और फल को गलत नहीं समझना चाहिए। इस तरह की गलतफहमी से आचार्य की कुल विफलता होगी।
  • सूत्र ३०९ – स्वयं के स्वरूप का गलतफहमी का मतलब है कि “मैं आचार्य हूं” (स्वयं को सोचना चाहिए कि वह अपने आचार्य का शिष्य है)। शिष्य की गलतफहमी का अर्थ है “वह मेरा शिष्य है” (उन्हे सोचना चाहिए कि शिष्य उनके आचार्य के शिष्य है)। परिणाम को गलत समझने का मतलब है कि परिणाम भौतिकवादी है, शिष्य का उत्थान, भगवत कैङ्कर्य में शिष्य को संलग्न करना और इस संसार में होने के दौरान खुद के लिए अच्छी संगति है।
  • सूत्र ३१० – जबकि आचार्य को ऊपर वर्णित परिणाम पर विचार नहीं करना चाहिए, यह स्वाभाविक रूप से होगा। शिष्य की इच्छा से (जिसे आचार्य की भौतिक जरूरतों के लिए काम करना चाहिए) भौतिक/ शरीर की जरूरतें पूरी की जाएंगी। भगवान् की इच्छा से, शिष्य का उत्थान किया जाएगा। आचार्य की इच्छा से, भगवत् कैङ्कर्य शिष्य के माध्यम से होगा। शिष्य के आभार से, वह इस संसार में होने के दौरान लगातार आचार्य की संगति में संलग्न रहेंगे।
  • सूत्र ३११ – असली परिणाम (शिष्य भगवान् के मङ्गलाशासन (भगवान् के कल्याण के प्रति देखना) मे संलग्न रहना) आचार्य की इच्छा से होगा। भगवान् की इच्छा और वास्तविक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर अर्थात् दूसरों को भगवान् के मङ्गलाशासन में संलग्न करने से आचार्यत्व स्वयं स्थापित हो जायेगा।
  • सूत्र ३१२ – जब तक आचार्य-शिष्य का संबंध उपरोक्त नियमों का पालन नहीं करता है, तब तक आचार्य और शिष्य दोनों इस तरह के सम्बोधन करने के योग्य नहीं है।
  • सूत्र ३१३ – आचार्य को अपने शिष्य की ओर दया होना चाहिए और अपने स्वयं के आचार्य की ओर परिपूर्ण निर्भरता।
  • सूत्र ३१४ – आचार्य से दया प्राप्त करके शिष्य की सत्य प्रकृति की स्थापना की जाएगी और आचार्य की सच्ची प्रकृति को उनके आचार्य पर पूर्ण निर्भरता दिखाकर स्थापित किया जाएगा।
  • सूत्र ३१५ – सच्चा आचार्य वह है जो अर्थों के साथ तिरुमन्त्र, द्वयमहामन्त्र और चरम श्लोक का उपदेश करता है।
  • सूत्र ३१६ – जो लोग भगवान् की महिमा करने वाले मन्त्र को निर्देश करते हैं, फिर भी भौतिक लाभों पर ध्यान केंद्रित करते हैं वो आचार्य होने के योग्य नहीं होते हैं। (अनुवादक टिप्पणी: बाद के सूत्रों मे समझाया गया है कि तिरुमन्त्र के अलावा भगवान् के अन्य मन्त्र पूर्ण नहीं हैं और भगवत् कैङ्कर्य के अंतिम बेदखल पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित नहीं करता हैं – यह मुमुक्षुप्पडि में भी स्पष्ट रूप से समझाया गया है)।
  • सूत्र ३२८ – आचार्य को शिष्य के उत्थान पर ध्यान देना चाहिए।
  • सूत्र ३३३ – आचार्य को शिष्य के स्वरूप (आत्मा) को पोषित करना चाहिए।
  • सूत्र ३३५ – शिष्य की शारीरिक जरूरतों को पोषित करना एक असली आचार्य की प्रकृति के विरुद्ध है।
  • सूत्र ३३७ – आचार्य को अपनी खुद की संपत्ति का उपयोग करके अपनी शारीरिक जरूरतों का ख्याल रखना चाहिए (यानी, एक शिष्य को अपना सभी धन अपने आचार्य को दे देना चाहिए, यह सोचकर की ये सभी धन आचार्य का है)
  • सूत्र ३३८ – आचार्य को शिष्य की संपत्ति को स्वीकार नहीं करना चाहिए (यानी, यदि शिष्य स्वेच्छा से अपनी संपत्ति जमा नहीं करता है और सोचता है कि यह अभी भी उसका हैं, तो आचार्य को इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए)।
  • सूत्र ३३९ – अगर आचार्य इस तरह की संपत्ति स्वीकार करता है (जैसा कि पिछले सूत्र में बताया गया है), उसे एक जरूरतमंद / भिखारी के रूप में माना जाएगा।
  • सूत्र ३४० – चूंकि एक सच्चा आचार्य पहले से ही महान आध्यात्मिक धन के साथ संतुष्ट है, इसलिए वह इस तरह के धन को स्वीकार नहीं करेगा।
  • सूत्र ३४१ –  उनकी यह तृप्त प्रकृति की वजह से है, एक आचार्य होने की उनकी सच्ची गुणवत्ता उनके अंदर प्रकट होती है।
  • सूत्र ४२७ – भगवान् को आत्मसमर्पण करना उनके हाथ पकड़कर उनसे मदद करने के लिए अनुरोध करने जैसा है; एक आचार्य को समर्पण करना भगवान् के चरणकमलों को पकड़ना और उनसे मदद करने के लिए अनुरोध करना है। (यानी, उत्तरवर्ति सदा बेहतर है)।
  • सूत्र ४३० – भगवान् खुद एक आचार्य होना पसंद करते हैं।
  • सूत्र ४३१ – यही कारण है कि वह हमारे गुरु-परम्परा में प्रथमाचार्य (पहले आचार्य) बने और भगवद्गीता का निर्देश दिया और विभीषण की शरणागति स्वीकार कर ली।
  • सूत्र ४३२ – आचार्य ऋण को चुकाने में सक्षम होने के लिए, हमें एक और भगवान् और आध्यात्मिक / भौतिक संसारों का एक और संग्रह चाहिए। (चूंकि भगवान् और भगवान् की संपत्ति (दो संसार) आचार्य के नियंत्रण में है और जैसे ही आचार्य हमें उस के साथ आशीर्वाद देते है, उसे चुकाने में सक्षम होने के लिए, हमें उन दोनों के बराबर की आवश्यकता होती है – इसका मतलब है, हम वास्तव में कभी भी आचार्य द्वारा किए गए एहसानों को चुका नहीं सकते  के लिए)।
  • सूत्र ४३३ – भगवान् के साथ संबंध बंधन (विभिन्न जन्मों में संसार में हमारी निरंतर यात्रा) और मोक्ष दोनों का कारण है। आचार्य के साथ संबंध केवल मोक्ष का कारण है।
  • सूत्र ४३७ – जब आचार्य के साथ शिष्य का रिश्ता टूट जाता है, भले ही शिष्य ज्ञान और अलगाव से भरा हो, फिर भी अंत में कोई उपयोग नहीं होता है।
  • सूत्र ४३८ – जब एक महिला के पास मंगलसूत्र होता है (पति जीवित है), वह किसी भी गहने को पहन सकती है, लेकिन जब वह मंगलसुत्र (पति के मृत्यु के बाद) खो देती है, तो वो गहने केवल चिंता का कारण बनेंगे (क्योंकि वह उन्हें अब पहन नहीं सकती)।
  • सूत्र ४३९ – आचार्य संबंध के बिना, कोई भगवत् संबंध नहीं है।
  • सूत्र ४४३ – श्री कृष्ण पाद (वडक्कु तिरुवीदिप् पिळ्ळै) अक्सर उद्धरण देते हैं, “जीवात्मा जो सोच रहे हैं” मैं प्राचीन काल से “नियंत्रक हूं” और इस प्रकार भगवान् के पक्ष को खो दिया, अाचार्य दया ही मोक्ष का एकमात्र शरण है।
  • सूत्र ४४७ – आचार्य दया ही शिष्य के उत्थान का एकमात्र साधन है।
  • सूत्र ४६० – हमें निम्नलिखित प्रमाणों पर ध्यान देना चाहिए जो आचार्य अभिमान पर ध्यान केंद्रित करते हैं
  • नाचियार् तिरुमोऴि १०.१०नल्लवेन् तोऴि – यहां आण्डाळ् देवी घोषित करती हैं कि कण्णन् एम्पेरुमान् पेरियाऴ्वार के भगवान् हैं और यदि वह कण्णन् को लाते हैं तो वह उसे स्वीकार करेंगी
  • नान्मुगन् तिरुवन्तादि १८ – माऱाय दानवनै – यहां तिरुमऴिसै आऴ्वार उन लोगों की महिमा करते हैं जो पूरी तरह से नरसिम्ह भगवान् को आत्मसमर्पण कर चुके हैं और घोषणा करते हैं कि उन भक्तों को आत्मसमर्पण करना और उनकी दया प्राप्त करना सर्वोत्तम है।
  • स्तोत्ररत्न – अकृत्रिम चरणारविन्द – यहां यामुनाचार्य (अाळ्वन्दार) घोषित करते हैं कि भगवान् को उन्हें अपने ज्ञान / भक्ति के लिए स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके लिए नाथमुनि से संबंधित होना चाहिए जो अत्यंत प्रिय / श्री भगवान् (एम्पेरुमान्) से जुड़े हुए हैं।
  • पुराण श्लोक – पशुर्मनुष्यपक्षीवा – एक जानवर, मानव या पक्षी – जन्म के बावजूद (चाहे वह शास्त्र के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने योग्य हो य ना हो), श्री वैष्णव के साथ संबंध से सुलभता से परमपद प्राप्त करेंगे।
  • सूत्र ४६१ – आचार्य की दया प्रपत्ति के समान होती है – यह एक स्वतंत्र उपाय (प्रक्रिया) के साथ-साथ अन्य उपायों का समर्थन करने के रूप में कार्य करती है।
  • सूत्र ४६२ – भक्ति करने में असमर्थ व्यक्ति के लिए प्रपति है;  प्रपत्ति में असमर्थ व्यक्ति के लिए, आचार्य कृपा है।
  • सूत्र ४६३ – आचार्य कृपा पहले स्वयं के प्रकृति की वास्तविकता को स्थापित करेगी (यानी, हम भागवतों के भृत्य हैं); तो यह हमें केवल भगवान् / भागवतों को शरण के रूप में स्वीकार करने की वास्तविक समझ को पोषित करेगा; अन्ततः यह भगवान् / भागवतों के लिए हमें सच्चे कैङ्कर्य में संलग्न करेगा।

अनुवादक टिप्पणी: उपर्युक्त अनुभाग केवल श्रीवचनभूषण दिव्य शास्त्र से उद्धृत सूत्रों का सरल अनुवाद है । अत्यधिक अनुशंसित राय यह है की विभिन्न सूत्रों के पूर्ण और निगूढ अर्थ को समझने के लिए  उचित आचार्य के श्रीमुखसे इन सूत्रों का श्रवण करें ।

पेरियवाचान् पिळ्ळै कहते हैं, “जो सहन करता है वो आचार्य नहीं है, जो स्वीकार करता है (भौतिक लाभ) आचार्य नहीं है, लेकिन वह जो शिष्य (शिष्य के कल्याण के लिए) को सही / नियंत्रित करता है, वह सच्चा आचार्य है”। वह आचार्य जो गलत रुचियों में रुचि रखता है उसका त्याग करना उचित है । इस तरह के आचार्य अनावश्यक / भौतिकवादी पहलूओं की व्याख्या / चर्चा करेंगे । आचार्य को जीवात्मा के उत्थान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए । आचार्य वह नहीं है जो स्वयं संसार के महासागर में डूब रहा है – इसके बजाय आचार्य वह है जो भगवत विषय (उचित अनुष्ठान-अभ्यास के साथ) में पूर्ण ज्ञान के कारण स्वयं को सुरक्षित रखता है और दूसरों को बचाने में मदद करता है। एक शिष्य के लिए, केवल एक असली आचार्य के दिव्य रूप पर ध्यान करना पर्याप्त है – उसे आचार्य से ज्ञान / निर्देश प्राप्त करने की भी आवश्यकता नहीं है। जैसे गरुड़ मन्त्र पर ध्यान करने से सांप के जहर से छुटकारा मिलेगा, ठीक वैसे ही अाचार्य के रूप का ध्यान करने से शिष्य को संसार के जहर से राहत मिलेगा । आचार्य को एक सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए जिसकी अनुरक्ति भौतिक संपदा, वासना, आदि मे कदापि नहीं है और जो  शिष्य में सच्चे ज्ञान को पोषित करता है।

अगला खण्ड शिष्य का वास्तविक स्वाभाव पर चर्चा करता है।

जारी रहेगा…

अडियेन भरद्वाज रामानुज दासन्

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/06/anthimopaya-nishtai-2/

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