अन्तिमोपाय निष्ठा – ४ – एम्पेरुमानार् की दया

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

अन्तिमोपाय निष्ठा

<< शिष्य लक्षण

पिछले लेख (अन्तिमोपाय निष्ठा ३ – शिष्य लक्षण) में, हमने एक सच्चे शिष्य के गुणों को देखा। हम इस लेख में हमारे पूर्वाचार्यों के कई घटनाओं का क्रम जारी रखेंगे।

एक बार, आन्ध्रपूर्ण (वडुग नम्बि) श्रीरामानुाजाचार्य (एम्पेरुमानार्) के लिए दूध उबाल रहे थे। उन दिनों श्रीरंगनाथ (नम्पेरुमाळ्) का उत्सव चल रहा था । उत्सव के दौरान, श्रीरंगनाथ (नम्पेरुमाळ्) को अति सुन्दरता से अलङ्कृत किया जा रहा था । जुलूस के हिस्से के रूप में मठ (आश्रम) के प्रवेश द्वार पर श्री रंगनाथ (नम्पेरुमाळ्) एवं उनकी सवारी पहुंची । आये हुए श्रीरंगनाथ (नम्पेरुमाळ्) का मङ्गलाशासन श्रीरामानुाजाचार्य (उडयवर्) ने बाहर आकर किया और तत्पश्चात् आन्ध्रपूर्ण (वडुग नम्बि) को बुलाया – वडुग! (आन्ध्रपूर्ण!) । कृपया बाहर आएं और श्रीरंगनाथ (एम्पेरुमान्) का दर्शन करें। यह प्रसिद्ध है कि, आन्ध्रपूर्ण (वडुग नम्बि) ने जवाब दिया, “दासन् ! अगर मैं आपके भगवान् के दर्शन लेने के लिए बाहर आता हूं, तो मेरे भगवान् के लिए दूध उबल जाएगा। इसलिए, मैं अभी बाहर नहीं आ सकता”। हमारे जीयर् (मामुनिगळ् (श्री वरवरमुनि)) ने आर्ति प्रबन्ध के ११ वें पासुर में आन्ध्रपूर्ण (वडुग नम्बि) के जैसी निष्ठा के लिए प्रार्थना कीः

उन्नै ओऴिय ओरु देय्वम् मट्रऱिया
मन्नुपुगऴ्शेर् वडुगनम्बि – तन्निलैयै
एन्ऱनक्कु नी तन्दु
एदिराशा एन्नाळुम् उन्ऱनक्के आट्कोळ् उगन्दु

हे यतिराज! (हे श्री रामानुज!) कृपया मुझे गौरवशाली आन्ध्रपूर्ण (वडुग नम्बि) के उसी निष्ठा के साथ आशीर्वाद दें जो आपके अलावा किसी अन्य भगवान् को नहीं जानते थे और मुझे आपकी सेवा में खुशी से पूरी तरह व्यस्त रहने देते हैं।

हमारे जीयर् (मामुनिगळ् (श्री वरवरमुनि)) अक्सर इन ३ सिद्धांतों / घटनाओं को उद्धृत करते हैं। इनमें से, दूसरी घटना को एक आचार्य से ठीक से सुना जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए।

  • जो भौतिक रूप से केंद्रित है वह एक अच्छे डॉक्टर के करीब रहेगा (यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसके शरीर की अच्छी देखभाल हो रही है)। जो आध्यात्मिक रूप से केंद्रित है वह एक अच्छे आचार्य के करीब रहेगा (यह सुनिश्चित करने के लिए कि आत्मा की अच्छी देखभाल हो रही है)।
  • एक बार, श्रीकलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) ने अपने प्रिय शिष्य श्री कृष्ण पाद (वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै) को एक विशेष कार्य में अपनी पत्नी की सहायता करने का निर्देश दिए। कुछ समय बाद, नम्पिळ्ळै ने पूछा “कृष्ण! तुमने मेरे कार्य के बारे में क्या सोचा (तुम्हे एक काम में मेरी पत्नी की सहायता करने में शामिल करने के लिए)?”। श्रीकृष्णपाद (वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै) ने जवाब दिया “मुझे हमेशा लगता है कि मैं आप दोनों (आप और आपकी पत्नी) के नियंत्रण में हूँ?” (अनुवादक का टिप्पणी: जैसे हम जीव श्रीरंगनायकी-तायार् (श्रीजी) और श्रीरंगनाथ (एम्पेरुमान्) के नियंत्रण में हैं यथारूपेण (मै) श्रीकृष्णपाद आप दोनों के अधीन में हूँ ।) प्रवृत्त जवाब सुनकर श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) बहुत खुश हो जाते हैं और उल्लेख करते हैं कि सच्चे शिष्य इस तरह का व्यवहार करेंगे। (अनुवादक का टिप्पणी: अन्य संप्रदाय के विपरीत हम हमेशा श्रीमहालक्षमी और श्रीमन्नारायण की पूजा करते हैं – यह हमारे सम्प्रदाय का एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है)।
  • एक बार, पिळ्ळै लोकाचार्य अपने शुद्धमति महिला शिष्य से पंखा सेवा करने को बोलते हैं, क्योंकि वहां का वातावरण उष्ण (उमस) से भरा हुआ था। वह पूछती है, “क्या आपका यह दिव्य शरीर इससे प्रभावित होगा और क्या आपको पसीना आएगा?”। पिळ्ळै लोकाचार्य कहते हैं, “हां – इसे (शरीर को) पसीना आएगा। यहां तक कि भगवान् को भी पसीना आता है, नाचियार् तिरुमोऴि १२.६ में आण्डाळ् देवी कहती हैं ‘वेर्त्तुप् पसित्तु वयिऱचैन्दु’. इस प्रकार, वह उपयुक्त रूप से आण्डाळ् के शब्दों का उपयोग करके बताते हैं ताकि उस (शिष्य) का विश्वास बिखर ना जाए। (अनुवादक का टिप्पणी: हमें अपने आचार्य के शरीर को दिव्य के रूप में मानना चाहिए, तब भी जब वह इस दुनिया में जीवित हो – ना केवल शारीरिक/भौतिक। साथ ही यह लीला के हिस्से के रूप में भगवान् के दिव्य शरीर की तरह इसमे पसीना आता है। पिळ्ळै लोकाचार्य एक उचित प्रमाण उद्धृत करके खूबसूरती से इस सिद्धांत को समझाते हैं)।

श्री रामानुज (उडयवर्) के समय के दौरान, यज्ञमूर्ति नामका एक महान अद्वैत विद्वान था (जो अंततः सत्सम्प्रदाय मे दीक्षा ग्रहण कर देवराजमुनि (अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्) का दास्य नाम स्वीकार कर सत्सम्प्रदाय के विशेष आचार्य के रूपमे प्रतिष्ठित हैं)। उनके (यज्ञमूर्ति) बहुत सारे शिष्य थे और उन्होंने शास्त्र के कई हिस्सों को सीखा था। वह अपने शिष्यों के साथ अपने कई साहित्यिक कार्यों को लेकर श्री रंगम में गर्व से आते हैं। उन्होंने वाद-विवाद के लिए श्री रामानुज (उडयवर्) को चुनौती दी और वाद-विवाद शुरू हो गया। वाद-विवाद पूरे १७ दिनों तक चलता है और १८वें दिन तक वाद-विवाद में यज्ञमूर्ति का ही गौरवशाली जयपताका लहर रहा था । दोनों पक्ष उस दिन के वाद-विवाद को रोकते हैं और यज्ञमूर्ति खुशी से जाते हैं। श्री रामानुज (उडयवर्) अपने मठ पर लौटते हैं, श्री रंगनाथ (पेररुळाळन्) का तिरुवाराधन करते हैं और उनके उपर चिंतित (परेशान) हो जाते हैं। वह श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) से कहते हैं “सभी के साथ, आपने यह स्थापित किया है कि आपका स्वरूप, रूप, गुण, धन, आदि शास्त्र के अनुसार सत्य हैं; लेकिन अब मेरे समय के दौरान, यदि आप झूठे लोगों के माध्यम से उन्हें नष्ट करना चाहते हैं (जो बताते है कि सबकुछ माया-झूठा है), तो आप आगे बढ़ें और इसे करें “। फिर वह प्रसाद को स्वीकार किए बिना योग (नींद) में जाता है। उनके (श्री रामानुज) सपने में, श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) प्रकट होकर कहते हैं “मैंने आपके लिए एक योग्य शिष्य की व्यवस्था की है; आप सिद्धांतों की व्याख्या उससे करें। (जैसा कि यामुनाचार्य (आळवन्दार्) द्वारा किया जाता है) और वह स्वीकार करेगा और आपका शिष्य बन जाएगा”।

श्री रामानुज (उडयवर्) स्वप्नावस्था से उठते हैं और दिव्य सपने के बारे में आश्चर्य करते हैं। वह प्रसन्न होते हैं और विभिन्न प्रमाणों पर ध्यान करते हैं। रामानुज नूट्रन्दादि ८८ “वलिमिक्क चीयमिरामानुशन् मऱै वादियराम् पुलिमिक्कतेन्ऱु इप्पुवनत्तिल् वन्दमै”  – जिस प्रकार प्रगट शक्तिशाली सिम्ह, जंगल मे भरे दुष्ट बाघों का नाश करता है, ठीक उसी प्रकार शक्तिशाली सिम्ह रूपी श्रीरामानुज के प्राकट्य (अवतरण) ने इस दुनिया मे भरे दुष्ट दिमागी प्रचारकों का नाश कर दिया (शुद्ध) । अगली सुबह, श्री रामानुज (उडयवर्) एक विजयी शेर की तरह वाद-विवाद सभा-भवन में चलते हैं। श्री रामानुज (उडयवर्) के आनंदमय रूप को देखते हुए, यज्ञमूर्ति भ्रमित हो जाते हैं और सोचते हैं कि “कल जब वह वापस जा रहे थे, तो वह उदास थे और अब वह बहुत प्रभावशाली है – यह कोई मानवीय कार्य नहीं है। इसमें एक दिव्य हस्तक्षेप होना चाहिए “और श्री रामानुज (उडयवर्) के कमल पैर पर गिर जाते हैं। श्री रामानुज (उडयवर्) पूछते हैं “यह क्या है? क्या आप आगे वाद-विवाद नहीं करना चाहते हैं? ” यज्ञमूर्ति जवाब देते हैं, “जब श्री रंगनाथ (पेरिय पेरुमाळ्) खुद आपको प्रकट करते हैं और आपका मार्गदर्शन करते हैं, तो मुझे लगता है कि श्री रंगनाथ (पेरिय पेरुमाळ्) और आपकी उच्चता के बीच कोई अंतर नहीं है। इसलिए, अब मैं आपकी उपस्थिति में अपना मुंह खोलने के लिए योग्य नहीं हूं। कृपया मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें और मुझे आशीर्वाद दें “। श्री रामानुज (उडयवर्) बहुत खुश हो जाते हैं और उन्हें नाम देते हैं “(देवराज मुनि ) अरुळाळा पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्” (पेररुळाळन् के नाम और उनके नाम का संयोजन), उन्हे आशीर्वाद देते है (श्रीवैष्णव सन्यास आश्रम) और उन्हे रहने के लिए एक बड़ा आश्रम (मठ) भी देते हैं। श्री रामानुज (उडयवर्) कहते हैं, “आप पहले से ही सभी शास्त्र जानते हैं। सभी बंधनों (संलग्नक) को पूरी तरह से छोड़ दें और श्रीमन्नारायणन् के चरणकमलों को देखें। मुझे आपको बहुत कुछ समझाना नहीं है; आप और आपके शिष्य विशिष्टाद्वैत दर्शन शास्त्र पर चर्चा करते हुए अपना समय आनन्दपूर्वक बिताए। “देवराज मुनि (अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्) आभार व्यक्त कर स्व-आश्रम (मठ) में रहना शुरू करते है।

श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) – श्रीपेरुम्बूतूर्, देवराज मुनि (अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार् )- तिरुप्पाडगम्

इसके बाद, श्रीवैष्णव और श्रीरंगम में आने वाले कुछ अन्य लोग स्थानीय लोगों से पूछताछ करते हैं “एम्पेरुमानार् का आश्रम (मठ) कहां है?” और स्थानीय लोग उन्हें वापस पूछते हैं “कौन से एम्पेरुमानार्?”। श्रीवैष्णव परेशान हो जाते हैं और पूछते हैं “हमने सोचा था कि हमारे संप्रदाय में केवल एक एम्पेरुमानार् है। क्या यहां दो हैं?”। स्थानीय लोग कहते हैं, “हां, एक श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) है और देवराज मुनि (अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्) भी है”। श्रीवैष्णव कहते हैं, “ओह! हमने दूसरे एम्पेरुमानार् के बारे में नहीं सुना है, हम श्री रामानुज (श्रीभाष्यकार) के बारे में पूछ रहे हैं”। स्थानीय लोग उन  श्रीवैष्णव को श्रीरामानुज (एम्पेरुमानार्) के मठ में ले जाते हैं। संयोग से, देवराज मुनि (अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्) इस वार्तालाप को सुनते हैं और सोचते हैं “ओह! क्योंकि हम श्री रामानुज (उडयवर्) से अलग मठ में रहते हैं, लोग मुझे श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) के तुल्य मानते हैं। मैंने अब एक गंभीर गलती की है “और बहुत चिंतित हो जाते हैं। वोह, अपने मठ को नष्ट करने का आदेश देते है, श्रीरामानुज (एम्पेरुमानार्) के मठ को जाकर, उनके चरणकमलों को पकडते हैं और उनसे पूछते हैं, “स्मरणातीत काल के लिए, मैं अहङ्कार से भरा था और आपका आश्रय नहीं लिया। लेकिन अापके चरणकमलों का आश्रय लेने के बाद, आप अभी भी मुझे एक अलग मठ में दूर रखा है। क्या यह हमेशा के लिए करने की योजना बना रहे हैं? ” श्रीरामानुज (उडयवर्) आश्चर्य करते हैं कि क्या हुआ और देवराज मुनि (अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्) पूरी घटना बताते हैं। श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) पूछते हैं “अब मुझे तुम्हारे लिए क्या करना चाहिए?”। देवराज मुनि (आरुळाळ पेरुमाल् एम्पेरुमानार्) कहते हैं, “आज से, आपको मुझे अपनी छाया, चरणकमलों की लकीर की तरह रखे और मुझे लगातार आपकी सेवा में व्यस्त करें”। श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) बाध्य करते हैं और उन्हे अपने मठ में एक जगह देते हैं और उसे हमारे संप्रदाय के सभी जटिल सिद्धांत बताते हैं। वह खुशी से श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) की सेवा के अलावा किसी और चीज के बारे में सोचे बिना वहां रहते हैं। श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) से जो सीखा है, उसके आधार पर, वो दो सुंदर प्रबन्ध ज्ञान-सार और प्रमेय-सार की रचना करते है जिसे किसी भी व्यक्ति को समझाया जा सकता है। वह उस प्रबन्ध के माध्यम से स्थापित करते हैं कि आचार्य शिष्य के लिए परम पूजा करने योग्य देवता हैं और उनके चरणकमल ही एकमात्र शरण हैं, “आचार्य जो शरणागति का मार्ग दिखाते हैं, शिष्य के लिए कुल शरण है”, “श्रीमन्नारायण स्वयं एक आचार्य के रूप में प्रकट होते हैं”, आदि। प्रज्ञ देवराज मुनि (आरुळाळा पेरुमल् एम्पेरुमानार्) ने इन सिद्धांतों को इन प्रबन्धों के रूप मे प्रकाशित किया और हमारे जीयर् (मामुनिगळ्) ने इन प्रबन्धों को स्वटीका द्वारा अति सुन्दरता से समझाया है।

अनुवादक का टिप्पणी: इस प्रकार हमने आन्ध्रपूर्ण (वडुग नम्बि) और देवराज मुनि (अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार्) के हृदय को शुद्ध करने में श्रीरामानुज (एम्पेरुमानार्) की निर्बाधक दिव्य दया को देखा और बदले में उनकी कुल निर्भरता और श्री रामानुज (एम्पेरुमानार्) की ओर परवशता को भी देखा।

जारी रहेगा…

अडियेन भरद्वाज रामानुज दासन्

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/06/anthimopaya-nishtai-4/

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

Leave a Comment