वरदराज भगवान् आविर्भाव कि कहानी १२ – २

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

वरदराज भगवान् आविर्भाव कि कहानी

<< भाग १२ – १

स्वयं को वेगवती में परिवर्तन करके, क्रोधित सरस्वती कोप में  ब्रह्मा के वेल्वी को नाश करने कि इच्छा से तीव्र गति से आ रही थी ।

नदी सुक्तिका, कनका, सुप्रा, कम्पा, पेया, मंजुला और चंदवेगा (चंडवेगा) (वेगावती की सात शाखाओं) के जल के साथ तीव्र जल धारा में बह रही थी I माना जाता है कि इस नदी ने वेगावती नाम अर्जित किया क्योंकि इसके प्रवाह की गति गंगा से अधिक है।

सभी चिंतित और डर गए थे, अगली प्रक्रिया क्या है यह निर्णय लेने में असमर्थ थे। अनुमान लगाने में  भी असमर्थ थे कि क्या हो सकता है, वे भय भीत रहे, उनकी आंखें भय प्रकट कर रहीं थी।

“मनिमाडंगल सूल्नतलगाय (सूळन्तळगाय) कच्छी ” वेगवती निगलने जा रहीं थी – काँची जो हवेलीयों और महलों से सजाए गए इस सुंदर शहर को। यह विचार हर किसी के मन आ रहा था। निराशा में अपने हाथों को दबाते हुए, वे निराश्रय होके असहाय रूप में खड़े थे।

ब्रह्मा लोगों से पूछताछ कर रहे थे कि सरस्वती कितनी दूर थी और कितनी तेजी से आ रहीं हैं।

प्रवाह की गति यथार्थ रूप से प्राप्त किया गया और ब्रह्मा को यही सूचित किया गया।

वेगवती १० योजन (लगभग ९० मील) दूर में हैं और तेज़ी से बह रहीं थी।

ब्रह्मा ने हस कर कहा “जब तक आपने गणना करके मुझे व्यक्त किया, तब तक नदी ४ योजनों को पार कर दिया होगा और तेजी से आ रहीं होंगी।

बीजगिरी के नीचे से गति को नापना हमारे साधनों से परे है।

असुरों द्वारा प्रलोभित और भटकाके,

“सयंजसालम् सपुरम्सनागासल गान्नम।
सदेव ऋषि गंदर्वम् क्शेत्रम् सत्यव्रतापितम् ।
वेगेन स्रोतसो ग्रुह्य पूर्वाब्दिम् प्रविचाम्यहम॥”

वेगवती छील कर तेज़ बहाव से यागशाला, स्थानीय, शहर, पर्वत, वन, देवताओं, ऋषि, गंधर्व और शेष बचे सभी को समुद्र में मिलाने के लिए निश्चित थीं।

ब्रह्मा ने भगवान से दया की मांग की। अपने भक्तों को, प्रसन्नता और खुशी से अभय प्रदान करने के आदी, भगवान ने पुन: वेल्वी की रक्षा के लिए अपना मन बना लिया।

हसथिगिरि (हस्तिगिरि) के पश्चिम में, बीजगिरी के नीचे शयन आसन में सर्वशक्तिमान ने एक बांध की तरह नदी को रोका, उनके शीर्ष और पादांगुलि क्रमशः दक्षिण और उत्तर की तरफ इशारा करते हुए।

उनका सम्मानित नाम शयनेसन है जिसका अर्थ है भगवान शयन आसन में यानी, पळ्ळिकोण्डान्।

आश्चर्यजनक रूप से यह शहर भी वही नाम धारण करता है। बीजगिरी के नीचे स्थित निवास पळ्ळिकोण्ड (लेटा हुए शयनासन में) के नाम से जाना जाता है।

एक बांध के रूप में मार्ग में भगवान को देख कर भी बिना झिझक और घबराहट के वेगवती एक जंगली नदी की तरह निगल रही थी। परंतु निश्चित रूप से उनका अहंकार और क्रोध कम हुआ होगा।

वास्तव में भगवान को रास्ते में एक बांध के रूप में देखकर, वह शांत हुई और सांत्वना मिली। वेगवती भगवान् के चरणों कि ओर आगे बड़ी जो निरंतर ठंडे तुलसी द्वारा अलंकृत हुए रहते हैं, जैसे एक बछडे की तलाश में माँ गाय कि याद दिलाति है।

“क्शीयन्ते सास्य कर्माणि तस्मिन् द्रुश्टे परावरे” (मुण्डख उपनिषद).

(“क्षीयांते सास्य कर्माणि तस्मिन ध्रुषटे परावरे” (मुण्डक उपनिषद))

हमारे सभी पाप और दोष निश्चित रूप से गायब हो जाते हैं, जिस क्षण हम भगवान का एक झलक दर्शन पाते (जागरूक होना) है जो हर किसी के अन्तरंग में निवास करते हैं I

सरस्वती कुछ हद तक शांत हुई और अपनी गति बढ़ा दी। कारण केवल भगवान् के चरणों का स्पर्श करने की इच्छा से हि नहीं, बल्कि संपूर्ण शरीर का स्पर्श करने, जो अपने प्रवाह को रोकने के लिए रास्ते में बांध के रूप में थे ।

मुस्कुराते हुए, पळ्ळिकोण्डान् ने पास आने कि प्रतीक्षा की।

आज भी, वह इस प्रसिद्ध पवित्र स्थान में रंगनाथ के रूप में स्थित हैं। भगवान इस प्रशंसित स्थान पर हमें अपनी कृपा बरसाते हैं जहां पाधिरी व्रक्ष स्थानीय के पसंदीदा (स्थानीय व्रक्ष) व्रक्ष है।

इस उच्च स्थान पर, भगवान अम्बरीष के लिए प्रत्याक्ष हुए थे। यहां पवित्र सरोवर  व्यास पुष्करिनी के नाम से जाना जाता है।

शालग्राम से अलंकृत, भगवान शयन मुद्रा में स्थित हैं जो आकर्शक और मनोहर है।

सरस्वती शीघ्रता से बांध को पार कर गयी। हालांकि भगवान वहा एक बंद के रूप में लेटे हुए थे, परंतु उन्होंने भगवान् का सत्ता कि परवाह नहीं किया, उपेक्षित करके, भिगोकर उतावले से भगवान् को पार कर गयी। परंतु वे उत्तेजित नहीं हुए।

इसके विपरीत, वह उनके इच्छा को धीरे से महसूस कर मुस्कुराये। वह गंगा पर सर्वोच्चता अर्जित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही थी। गंगा को “दिव्य नदी” का गौरव दिया गया है  हालांकि गंगा को केवल भगवान के आदरणीय चरण स्पर्श का मौका मिलता है।

परंतु मुझे उन्हें  सिर से लेकर चरणों तक स्नान करने का गौरव है । अतः मैं महान हूँ, ये सोचके उल्लसित हो गयी। उन्होंने पीछे लेटे हुए भगवान को एक सम्मानित दृष्टि से देखा।

उनकी तेज धारा से, आभूषण और मालाओं से अलंकृत भगवान् का शरीर मैला, अस्तव्यस्त हो गया और सुस्पष्ट नहीं थे। परंतु फिर भी शोभा और सौंदर्य उनके साथ थे।

शब्दों की देवी एक और बार उनका स्पर्श अनुभव करना चाहती थी।

कुछ पल पहले, वह मन से प्रसन्न थी कि उन्हें पूर्ण रूप से स्नान कराने का सम्मान मिला है जबकि गंगा केवल उनके पवित्र चरणों  को स्पर्श कर सकती हैं। तो फिर से उनका भौतिक संपर्क का आग्रह क्यों है?

उचित प्रश्न है! सरस्वती को यह मन में था। यह सच है कि वे गंगा के प्रति ईर्ष्या से उत्तेजित थी और उनके स्पर्श के लिए संघर्ष करना चाहती थी। परंतु एक बार जब आप उनकी प्रार्थना करते हो, तो उनकी प्रशंसा करने फिर से एक तीव्र तृष्णा आपको अभिभूत होता है। वे स्पर्श (आराधना) की तीव्र इच्छा से उत्तेजित थी और प्रतिफल से अनजान होकर उनसे स्पर्श केवल आनंद के लिए, इस अनुभव को खुद एक इनाम के रूप लिया,  जागरूक होके अहसास प्राप्त किया कि उसके साथ संपर्क ही इस कार्य का फल है I

फिर भगवान ने आज के कावेरीप्पाक्कम के पास “तिरुपारकडळ” स्थान पर एक बांध के रूप में विश्राम किया।

(आज भी, शयन मुद्रा में दर्शन ले सकते हैं। यह उन्होंने स्वयं को पुण्डरीक महर्षि को दर्शन दिये। और यही पुण्डरीक पुष्करिनी है।)

वेगवती को उन्हें पुनः स्पर्श करने का आशीर्वाद मिला। वे तनिक धीमी हो गईं। वे अपने भाग्य के बारे में सोचके प्रसन्न थी। उसके बाद, उनके मन में कुछ दमक उठा और खुद पे शर्मिंदा हुई।

पळ्ळिकोंडा और तिरुपारकडळ दोनों स्थलों पर वे झुकी परंतु प्रार्थना नहीं की थी। वे इस पर शोकत थी।

उन्होंने याचना किया कि “यास्यामि सालाम् देवेच तत्र मे देहि दर्सनम्” से आग्रह किया – कि उन्हें भगवान का दर्शन दिया जाए। उनके मन को महसूस करने के बाद, भगवान ने उनकी इच्छा प्रदान करने का विकल्प चुना।

कहा पे?

हम प्रतीक्षा करे?

अडियेन श्रीदेवी रामानुज दासी

Source – https://srivaishnavagranthamwordpress.com/2018/05/21/story-of-varadhas-emergence-12-2/

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