श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः
“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9” पर हिन्दी में देख सकते है।
<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ३८)
७१) सिद्धान्त विरोधी – सिद्धान्त को समझने में बाधाएं – भाग – ३ (समापन भाग)
श्रीरामानुज स्वामीजी – श्रीपेरुमबदुर – वह जिन्होंने हमारे सिद्धान्त का प्रचार सही रीति से किया
हम इस विषय पर चर्चा जारी रखेंगे। इनमें से कई विषयों को जानने के लिये अधिक ज्ञान की आवश्यकता है जिसे हम शास्त्रों का सही अध्ययन करके प्राप्त कर सकते हैं। इस विषय के बारें में सम्पूर्ण वह गहरी समझ प्राप्त करने हेतु इन सिद्धान्तों को आचार्य के मार्गदर्शन में हीं अध्ययन करना उत्तम है।
- मोक्ष जिससे परमपदधाम में नित्य कैंकर्य का मार्ग प्रशस्त होता है की चाहना न करना बाधा है। पिछले भाग में हमने अस्थाई व गौण सांसारिक सुख से सम्बन्ध को त्यागने की आवश्यकता के विषय में देखा है। यहाँ मोक्ष को अनन्त व स्थिर परिणाम कहा गया है। ऐसे लक्ष्य प्राप्ति की इच्छा न रखना बाधा है। जैसे “मुक्तिर मोक्ष: महानंद:” में समझाया गया है कि मोक्ष असीम और परम आनन्द है। जिसको एक बार जन्म मरण से छुटकारा प्राप्त हो जाता है उसका फिर पुर्नजन्म नहीं होता है। अनुवादक टिप्पणी: चांदोग्य उपनिषद में घोषणा की गई है कि “न च पुनर आवर्त्तते, न च पुनर आवर्त्तते” – वापिस नहीं आना है। दो बार कहने से यह महत्त्वपूर्ण वार्तालाप यह सिद्धान्त ओर अधिक ताकतवर हो जाता है। भगवान कृष्ण गीता के ८.१६ में कहते है “अ ब्रह्मा भुवनाथ लोका: …” – ब्रह्म लोक से – सर्वश्रेष्ठ स्थान से न्यूनतम स्थान तक बारम्बार जन्म मरण होगा परन्तु जिसने मुझे प्राप्त कर लिया है उसके लिये इस भौतिक संसार में पुर्नजन्म नहीं है। यह विशिष्ट लक्षणों वाला परमपदधाम है – एक बार जीवात्मा वहाँ पहुँचते ही वह पूरी तरह पवित्र होकर और उसके ज्ञान का पूर्ण विस्तार होता है। इसलिये इस संसार में पुन: आने का कोई सम्भावना हीं नहीं है। परमपद में जीवात्मा कई स्वरूपों से भगवान के भांति भांति कैंकर्य निरत रहते है। इसे चांदोग्य उपनिषद में समझाया गया है “स एकता भवति, थ्रिता भवति …” – वों एक, तीन, आदि स्वरूप धारण कर सकता है। वहाँ इस तरह के परमानंद का कोई अन्त नहीं है और जीवात्मा का इस संसार में पुन: आने कि कोई संभावना नहीं है, वों भी ऐसे परमानंद का स्वाद चखने के पश्चात जो उसके लिये स्वाभाविक है। भगवान स्वयं जीवात्मा को वापिस संसार सागर में नहीं भेजेंगे क्योंकि उन्होंने जीवात्मा को परमपद में लाने के लिये बहुत परिश्रम किया है। इसलिये हमें भगवान के परमपदधाम में निरन्तर नित्य कैंकर्य की चाहना करनी चाहिये।
- मुमुक्षु को लौकिक संसार में रुचि होना बाधा है। मुमुक्षु यानि जो मोक्ष कि चाह करता है। श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा रचित तिरुविरूत्तम के प्रथम पाशुर में वर्णन किया गया है “इन् निन्र नीर्मै इन याम उरामै” – मैं इस संसार में फँसे होने की मेरी अभी की स्थिती को सहन नहीं कर सकता क्योंकि इस लौकिक संसार में जीवन के लिये मुझे अरुचि होनी चाहिये। ऐसी स्थिती से बाहर आने के लिये हमें परमपद प्राप्ति कि इच्छा होनी चाहिये। इसे “संसारत्तिल अडिक्कोधिप्पु” – ऐसे समझाया गया है यानि भौतिक संसार में रहना यानि गरम रेत पर चलाने के समान है। अनुवादक टिप्पणी: जब कोई गरम रेत पर चलते हुये फँस जाता है तो वह बड़ी आतुरता से छाया की ओर देखता है। संसार को गरम रेत और परमपदधाम को ठंडी छाव से तुलना की गयी है। स्वयं भगवान को ऐसे समझाया गया है “वासुदेव तरुछ्छाया” – वसुदेव छाँव देनेवाला वृक्ष। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पड़ी के ११६ सूत्र (द्वय प्रकरणम का पहला सूत्र) में श्रीवैष्णव लक्षणम को समझाते है। कई लक्षणों में एक को चिन्हित करते हैं कि श्रीवैष्णवों को परमपदधाम पहुँचकर नित्य कैंकर्य करने का पूर्ण विश्वास होना चाहिये। इसके साथ उस लक्ष्य की पूर्ति के लिये निरन्तर लालसा होनी चाहिये। हम जिस अवस्था में हैं उसीमे हीं संतुष्ट नहीं होना चाहिये और आनन्दपूर्वक अपना जीवन निर्वाह करना चाहिये। बजाय इसके कि इस भौतिक संसार से मोक्ष पाने की निरन्तर लालसा होनी चाहिये ताकि परमपदधाम में निवास कर भगवान का नित्य कैंकर्य कर सकें। ऐसी चाहना न होना ही बाधा है।
- यह न समझकर कि हमने जो कुछ भी प्राप्त किया है वह हमारे कर्मों का फल है जो अस्थायी आर नगण्य व तुच्छ है और ब्रह्म सकारात्मक है के विषय में जानने की इच्छा न रखना बाधा है। कर्म साध्य फलम – हमने यज्ञ, याग्य, आदि से जो कुछ प्राप्त किया है जैसे कि सांसारिक धन, स्वर्ग, आदि का सुख। यह अस्थाई हैं – हमारे पुण्य समाप्त होते ही यह समाप्त हो जायेंगे। वे शाश्वत नहीं हैं। परमपदधाम की निरन्तर कैंकर्य के आर्शिवाद से तुलना की जाये तो यह सब नगण्य, तुच्छ है। ऐसे सांसारिक आनन्द की कमियों को जानते हुये भी यदि कोई भगवान के नित्य कैंकर्य की चाहना नहीं करता है तो उसकी यह बहुत ही दयनीय दशा है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान कृष्ण भगवद्गीता के ८.१५ श्लोक में समझाते हैं कि “मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयम शाश्वतम् …” – मुझे प्राप्त करके जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते जो दुख और शाश्वत का घर है, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है। इस भौतिक संसार में चाहे पाताल लोक हो, ब्रह्म लोक हो, जन्म, मृत्यु, बीमारी, बुढ़ापा, आदि रहेंगे। इन चार समस्याओं के रहते दु:ख की सम्भावना रहती है। अत: हमें तुच्छ सांसारिक पहलुओं से सम्बन्ध त्याग कर परमपदधाम में भगवान का नित्य कैंकर्य और अपना लक्ष्य केन्द्रित करना चाहिये।
- यह न जानना कि नारायण जिसे नारायण अनुवाकम प्रगट किया गया है वे ही ब्रह्म नाम से जाने जाते हैं बाधा है। नारायण सूक्त में देखा जाता हैं कि “नारायण परम ब्रह्म तत्वम नारायण: परा: नारायण परोज्योति: आत्मा नारायण: परा:”। यहाँ श्रृति में घोषणा की गई है कि सर्वश्रेष्ठ भगवान जो नारायण है वही परब्रह्म हैं जिनके बराबर कोई नहीं है। इसका सभी को अध्ययन करना चाहिये और समझना चाहिये।
- यह न समझना कि शास्त्रों के कर्म भाग स्वयं भगवान ने ही प्रतिस्थापित किया है जिसे सबको पालन करना चाहिये – बाधा है। वेदों को दो भागों में बाँटा गया है। कर्म भाग हमें यागम (त्याग), यज्ञम (पूजा), आदि समझाता हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। आज्ञा कर्म – नित्य, नैमित्तिक कर्म। यह नित्य / नैमित्तिक कर्म हमें करना चाहिये। अकारणे प्रत्यवायम – जब ऐसे कर्म नहीं किये जाते हैं तो वह पाप कि ओर ले जाता है। एक और प्रकार का कर्म है काम्य कर्म – यह वैकल्पिक है और सामान्यता सांसारिक लाभ कि ओर केन्द्रित है। हम अपने नित्य कर्म यह संकल्प के साथ करते है “श्री भगवद आज्ञा भगवत कैंकर्यं रूपं” – कर्म जो भगवद आज्ञा है और भगवद कैंकर्य का एक अंश है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवरवरमुनि स्वामीजी वेदों के दो भाग करने के तत्त्व को समझाते हैं – श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी द्वारा रचित श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के पहले सूत्र पर व्याख्या में पूर्व भाग और उत्तर भाग को समझाते हैं। वे आगे कहते हैं कि पूर्व मीमांसा (जैमिनी सूत्रम) के साथ में “अथातो धर्म जिज्ञासा” उत्तर मीमांसा (वेद व्यास ब्रह्म सूत्रम) जो “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” से प्रारम्भ होता है। इसलिये पूर्व भाग में कर्मानुष्ठान द्वारा भगवान की विविध पूजा पद्धत्ति को समझाने पर केन्द्रित किया गया हैं और उत्तर भाग में ऐसे भगवान जिनकी पूजा की जाती है उनके गुणों को समझाया गया है। तैत्रीय उपनिषद में भी यह दर्शाया गया हैं कि “स आत्मा, अङ्गान्यन्या देवता:” – सभी देवता भगवान के अंश है और भगवान द्वारा अनवरत हैं। इसे जानने के लिये विद्वान जन स्वयं को कर्मानुष्ठान से भगवान की पूजा में व्यस्त रखते हैं (स्वयं भगवान की आज्ञा द्वारा)। इस विषय पर उनकी व्याख्या वास्तव में विस्तृत है – परन्तु यह सुन्दर विश्लेषण / प्रस्तुति अपने सत सम्प्रदाय के मूलभूत सिद्धान्त जिसे आचार्य के सही मार्गदर्शन में अध्ययन करने की आवश्यकता है।
- यह न जानना कि वेदों के ब्रह्म भाग भगवन के स्वरूप, रूप, गुण, वैभव, आदि को विस्तार से समझाता है और भगवान को पूर्णत: प्राप्त करने में समाप्त होता है – बाधा है। ब्रह्म भाग – उपनिषद है। यह भगवान श्रीमन्नारायण के सच्चे स्वभाव, रूप, गुण, अवतार, आदि को समझाता हैं। स्वरूप का अर्थ सच्चा स्वभाव है – सर्वश्रेष्ठ, अन्तर्यामी, आदि। रूप का अर्थ है भगवान के दिव्य स्वरूप की सुन्दरता, मृदु स्वभाव, आदि। गुण में उनके सभी पवित्र लक्षण शामील है – गुण जो उनके श्रेष्ठता को दर्शाता है जैसे ज्ञान, शक्ति, आदि और गुण जो उनके सादगी जैसे मिलनसार, मातृत्व की तरह सहिष्णुता आदि। वैभव, आदि – उनके अवतार, अपार सम्पत्ति, आदि शामील हैं। एक बार यदि कोई इनको (स्वरूप, रूप, गुण, वैभव, आदि) समझ जाता हैं तो स्वयं उसमें भगवतप्राप्ति की लालसा जागृत होती है और वह उन्हें प्राप्त करने के तरीकों कि खोज करता है। अनुवादक टिप्पणी: यहाँ ब्रह्म भाग में उपनिषद और ब्रह्म सूत्र शामील हैं। वेदान्त सूत्र एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण साहित्य है जो ब्रह्म के लक्षणों को स्थापित करते हैं। बोधायन ऋषि ने सर्व प्रथम ब्रह्म सूत्र की व्याख्या की थी जिसे काश्मीर में सुरक्षित रखा गया था। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी की इच्छा पूर्ति के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की स्थापना के लिये इस सूत्र की विस्तृत व्याख्या लिखने की प्रतिज्ञा की थी। इस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकुरेश स्वामीजी के साथ काश्मीर तक प्रयाण किया और बोधायन वृत्ति ग्रन्थ लेकर पुन: श्रीरंगम की ओर प्रस्थान किया। कुछ बदमाशों ने जब इस विषय के बारें में सुना तो उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी का पीछा किया और उनसे ग्रन्थ को पुन: छीन लिया। श्रीरामानुज स्वामीजी बहुत दु:ख और शोक में डूब गये, लेकिन श्रीकुरेश स्वामीजी ने उन्हें बताया कि जब आप विश्राम कर रहे थे उस समय आपने सम्पूर्ण ग्रन्थ को कंठस्थ कर लिया है। वे श्रीरंगम लौट आते हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीकुरेश स्वामीजी की सहायता से श्रीभाष्य (ब्रह्म सूत्र पर विस्तृत व्याख्या) ग्रन्थ कि रचना किये। श्रीरामानुज स्वामीजी पुन: काश्मीर जाते हैं और वहाँ सरस्वती देवी शारदा पीठ में उनका हर्षोल्लास के साथ स्वागत करती हैं। वे श्रीरामानुज स्वामीजी से श्रीभाष्य स्वीकार कर उसका अवलोकन करती हैं। साहित्य की महान स्पष्टता को देखकर वे अति प्रसन्न होकर श्रीरामानुज स्वामीजी को “श्री भाष्यकार” की उपाधि से सम्मानीत करती हैं। उपनिषद के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी ने अलग से कोई व्याख्या नहीं लिखी हैं। श्रीवेंकटेश भगवान के सन्मुख उन्होंने स्वत: वेदार्थ संग्रह पर व्याख्या प्रस्तुत किया। इस वेदार्थ संग्रह में वें विशेषकर उपनिषद के ऐसे पहलुओं पर ज़ोर देकर समझाया है जिन्हें अद्वैत गलत तरीके से पेश करते हैं। कुछ व्याक्यांश जैसे “तत्वमसी, अहं ब्रह्मासमी, आदि” अद्वैती गलत तरीके से समझाते है और ऐसे व्याक्यांश बहुत साफ तरीके से, सही सन्दर्भ के साथ और कई प्रमाणों के माध्यम से श्रीरामानुज स्वामीजी ने वेदार्थ संग्रह में समझाया हैं। इस तरह भगवान के अद्भुत पहलुओं को श्रीरामानुज स्वामीजी की रचनाओं के जरिये मूल तरीके से बिना किसी संशय भ्रम के हम समझ सकते हैं।
- परमपद में नित्य सेवा कैंकर्य ही अन्तिम लक्ष्य है यह न मानना बाधा है। भगवान श्रीमन्नारायण के निकट पहुँचना ही परमपुरुषार्थ (श्रेष्ठ लक्ष्य) है। इस लक्ष्य में भगवद अनुभव सर्व प्रथम कदम है। ऐसा अनुभव हमें प्रीति के मार्ग में अग्रसर होकर भगवान के अद्भुत गुणों को समझाते हैं। ऐसा प्रेम हमें उनके कैंकर्य जो उनके आनन्द के लिये हो की ओर आगे बढ़ाता है। अनुवादक टिप्पणी: जैसे “अकिञ्चितकरस्य शेषत्व अनुपपत्ति:” में कहा गया हैं – किसीके दासत्व का सच्चा स्वभाव छोटे छोटे कैंकर्य कर अनवरत रख सकते हैं। वेदान्त हमें दासत्व के सही स्वरूप में रहकर मोक्ष प्राप्ति समझाते हैं। शेषत्व आत्मा का मुख्य गुण हैं। वह शेषत्व हमें भगवान के आनन्द के लिये निस्वार्थ कैंकर्य के मार्ग पर अग्रसर करता है। इस अन्तिम लक्ष्य के विषय में कोई दूसरा ज्ञान केवल एक मिथ्याबोध है।
- साम्यापत्ति (जीवात्मा का ब्रह्म के बराबर स्तर तक पहुँचना) सामरस्यम (समान आनन्द होना) कि इंद्रिय को प्रगट करता है, यह न जानना बाधा है। श्रृति में मोक्ष को “परमं साम्यमुपैती”, “सोस्नुते सर्वान्कामान सहब्रह्मणा”, आदि ऐसे समझाया गया है। विशेषकर भगवान, नित्यसूरीगण और मुक्तामा में समान ज्ञान और आनन्द होता हैं। फिर भी भगवान स्वामी है और जीवात्मा उनके दास हैं। अनुवादक टिप्पणी: जीवात्मा के लिये भगवान के चरण कमलों तक पहुँचना ही वास्तविक आर्शिवाद है। वह जो भगवान के निकट पहुँचता है उसे साम्यापत्ति मोक्ष से आर्शिवाद प्रदान करते है जिसे श्रीपरकाल स्वामीजी अपने पेरिया तिरुमोझी में इस तरह पहचानते हैं – “थम्मैये ओक्क अरुल चेयवर” – भगवान मुक्तामा को अपने गुण प्राप्ति का आर्शिवाद प्रदान करते हैं। साम्यापत्ति मोक्ष का अर्थ मुक्तामा भगवान कि निर्हेतुक कृपा से आठ गुण प्राप्त करना हैं। यह गुण भगवान में पूर्णत: हैं। इन आठ गुणों से भी आगे कुछ गुण जैसे श्रिय:पति, शेष सायित्वम (वह जो आदि शेष पर विश्राम कर रहा हो), उभय विभूति नाथम (नित्य विभूति और लीला विभूति के निर्वाहक), आदि भगवान में हीं हैं। आठ गुण हैं: अपहठपाप्म – सभी पापों से मुक्त, विजरा: – बुढ़ापे से मुक्त, विमृत्यु: – मृत्यु से मुक्त, विशोक: – दु:खों से मुक्त, विजिगत्सा: – भूख से मुक्त, अपिपासा: – प्यास से मुक्त, सत्यकामा: – सभी इच्छा पूर्ण करने योग्य, सत्य संकल्प: – कोई भी कार्य पूर्ण करने योग्य।
- यह कल्पना करना कि स्वरूप ऐक्यम (परमात्मा और जीवात्मा का मिलन) है बाधा है। जैसे पहले समझाया गया है कि अद्वैत जन ऐसा भ्रम फैलाते हैं कि जीवात्मा ही ब्रह्म बनते है।
- यह न जानना कि इस संसार चक्र से छूटने के पश्चात भगवान के कैंकर्य के लिये कई स्वरूप धारण करते हैं और इस भ्रम में रहना कि इस संसार चक्र से छूटने के पश्चात कोई स्वरूप / शरीर नहीं रहता है – यह बाधा है। हमें यह समझना चाहिये कि मुक्तात्मा के लिये कैंकर्य हीं अन्तिम लक्ष्य है। कैंकर्य करने हेतु जीवात्मा को एक शरीर या रूप कि आवश्यकता है। श्रीसरोयोगी स्वामीजी मुदल तिरुवन्दादि के ५३वें पाशुर में समझाते है “शेन्राल् कुडैयाम् इरुन्दाल् शिङ्गशनमाम् निन्राल् मरवडियाम्…” – जब भगवान भ्रमण करते है तो आदिशेषजी छत्र का रूप धारण करते हैं, जब वें बैठते हैं तो आदिशेषजी सिंहासन का रूप धारण करते हैं, जब भगवान खड़े हो जाते हैं तो आदिशेषजी खड़ाऊ का रूप धारण करते हैं, आदि। इस तरह आदिशेषजी (जो नित्यसूरी हैं – नित्य मुक्त जीवात्मा) छत्र, खड़ाऊ, सिंहासन, आदि रूप धारण कर कई कैंकर्य करते हैं। उसी तरह मुक्तात्मा भी कई रूप लेकर बहुत कैंकर्य करते हैं। कैसे कोई बिना शरीर के कैंकर्य कर सकता हैं? अनुवादक टिप्पणी: इस पाशुर की व्याख्या में श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी बहुत ही सुन्दर ढंग से समझाते हैं कि श्रीअम्माजी और श्रीमन्नारायण के मुखोल्लास के लिये श्रीआदिशेष कोई भी रूप धारण करते हैं। वे और कहते हैं कि इस पाशुर में केवल आदिशेषजी कि चर्चा हुई है परन्तु सभी जीवात्मा का परमपद में यहीं होता है जिसे उपलक्षणम (उदाहरण / बराबरी) कहते हैं। चांदोग्य उपनिषद में इन प्रमाणो को देख चुके हैं “स एकता भवति, थ्रिता भवति …”।
- मुक्ति का अर्थ अर्चिरादि मार्ग से जाना (वह राह जो अर्चि से प्रारम्भ होता है) जो अन्त में परमपद को पहुँचाता है और जीवन मुक्ति (इस जीवन और संसार से मुक्ति पाना) से भ्रम होना – यह न मानना बाधा है। सच्चा मोक्ष / मुक्ति का अर्थ इस संसार के जन्म मरण के चक्र से मुक्ति पाना, परमपद पहुँचना, भगवान परवासुदेव का अनुभव करना और अनन्तकाल तक उनका कैंकर्य करना और उनका पूर्ण मुखोल्लास के लिये बिना किसी त्रुटि के निरन्तर सेवा करना। जीवात्मा (जो मुक्त हो गया हो) मृत्यु के समय अपना शरीर त्यागकर अर्चिरादि मार्ग से जो प्रकाशित राह हैं स्वयं भगवान उसकी मदद करते है और परमपद पहुँचाते हैं। इस अन्तिम दशा को “मुक्तिर मोक्ष: महानंद:” कहते हैं – सुखद मोक्ष। श्रीशंकराचार्यजी के अद्वैत सिद्धान्त में, वेदान्त के वाक्यों का अध्ययन करना व समझना जैसे कि “तत्वमसि” और समझना कि मैं ही ब्रह्म हूँ और उसे ही मुक्ति मानते हैं। अद्वैत सिद्धान्त अनुसार इसी जीवन में मोक्ष की प्राप्ति होती है। परन्तु ऐसी समझ अस्पष्ट व भ्रम करनेवाली है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति के पाशुर में अर्चिरादि मार्ग को समझाते है “सूळ्वीसुम्बणीमुगिल”। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी “अर्चिरादि” नामक रहस्य ग्रन्थ में अर्चिरादि मार्ग व परमपद में सुखद अनुभावों को विस्तार से समझाते हैं। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी स्वयं मुमुक्षुप्पड़ी के २७वें सूत्र में दर्शाते हैं कि परमपद में भगवान का कैंकर्य करना, जो हमारा अन्तिम लक्ष्य है इसे “प्रमेय शेखर” और “अर्चिरादि गति” (उनके १८ रहस्य ग्रन्थों में से २ ग्रन्थ) में समझाया गया है। श्रीनायनार बताते हैं कि श्रीशठकोप स्वामीजी अपनी दिव्य भावनाओं से भगवान को तिरुमोगुर आप्तन ऐसा कहते है जिसका अर्थ भगवान जो जीवात्मा के अर्चिरादी गति में साथ हो – राह जो जीवात्मा को मोक्ष भूमि कि ओर ले जाता है। आप्तन का अर्थ विश्वसनीय व्यक्ति – उनमें विश्वास करना चाहिये कि वे हमें परमपदधाम को सुरक्षित पहुँचायेंगे।
- प्रपन्नों के इस जीवन के अन्त में उनके कर्म नष्ट हो जाते हैं, उसका सूक्ष्म शरीर जीवात्मा के संग जाता है और विरजा नदी में स्नान करने के पश्चात पूर्ण रूप लेता है और इसमें सन्देह करना बाधा है। हालाँकि भगवान कि कृपा से किसी के कर्म (सद्कर्म / अपकर्म) उसके जीवन के अन्त में मिट जाता है और अर्चिरादि मार्ग द्वारा आगे बढ़ता है तथापि जीवात्मा का सम्बन्ध अचित से पूरी तरह नष्ट नहीं होता है क्योंकि उसका सूक्ष्म शरीर अब तक जीवात्मा के साथ जुड़ा रहता है। यह सब भगवान के संकल्प मात्र से होता है। परमपद की सीमापर एक दिव्य नदी है विरजा। जैसे हीं जीवात्मा इस नदी में स्नान करता है भगवान जीवात्मा का “अमानवन” के रूप में हाथ पकड़कर ऊपर उठा लेते हैं। भगवान के इस कृपा के स्पर्श से सूक्ष्म भौतिक शरीर पूर्णत: कट कर अलग हो जाता है तब तक जीवात्मा का इस भौतिक संसार से सम्बन्ध रहता है। “भौतिक पहलुओं के सम्पूर्ण नष्ट होने से उसकी अज्ञानता भी पूरी तरह से नष्ट हो जाती है” और इसके बाद ही जीवात्मा के पूर्ण ज्ञान का विस्तार हो जाता है। अनुवादक टिप्पणी: स्थूल शरीर – पंच भूतों (पाँच तत्त्व – भूमि, जल, हवा, अग्नि और आकाश) से बना हुआ है। सूक्ष्म शरीर – मन, वासना / रुचि यह हमें अपने पिछले अनुभव से प्राप्त होता है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आचार्य हृदय के १०४वें चूर्णिकै के अपनी व्याख्या में बड़ी सुन्दरता से समझाते है। यह चूर्णिकै बड़ी सुन्दरता से यह स्थापित करता है कि कैसे भगवान जीवात्मा जो इस संसार में पूर्णत: डूबा हुआ है को परमपद प्राप्ति कर वहाँ कैंकर्य के लिये कष्ट सहते हैं। इस चूर्णिकै में नायनार एक किसान का उदाहरण देते हैं कि कैसे किसान मेहनत कर अपनी मन पसन्द फसल तैयार करने के लिये कष्ट उठाना पड़ता है। इस पहलू को उसी चूर्णिकै में आगे श्रीनायनार समझाते हैं कि “सूक्ष्मवोट्टुम नीरिले कलुवि” – वें समझाते है “जैसे धान कि गंदगी को निकालने के लिये जल का प्रयोग होता है” उसी तरह श्रीविरजा नदी के पवित्र जल से जीवात्मा को स्नान कराकर उसके सूक्ष्म शरीर को निकाल देते हैं। यहाँ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एक सुन्दर प्रश्न करते हैं – जब जीवात्मा के सम्पूर्ण कर्मों को निकाल देते हैं तो फिर सूक्ष्म शरीर में वासना, (भौतिक इच्छाओं के कण) आदि का क्या आवश्यक है? इसका वें स्वयं जवाब देते हैं कि यह भगवान का एक संकल्प मात्र है कि जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को विरजा नदी तक ले जाना है और जीवात्मा का वहाँ तक जाने के लिये एक शरीर की आवशयकता होती है। इसलिये स्वयं भगवान ही जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को विरजा नदी तक पहुँचने तक रखते हैं। इस सिद्धान्त को स्थापित करने हेतु श्रीवरवरमुनि स्वामीजी पूर्वाचार्यों कि आज्ञाओं को प्रस्तुत करते हैं। जैसे कि जीवात्मा विरजा नदी में स्नान करता है उसका सूक्ष्म शरीर धुल जाता है और अमानवन भगवान स्पर्श मात्र से वह आध्यात्मिक शरीर का स्वरूप धारण करता है (उसी चूर्णिकै में श्रीनायनार स्वामीजी ने भी इसे समझाते है)। यहाँ श्रीएरुम्बी अप्पाजी के पाशुर को स्मरण करना चाहिये “मन्नुयिरगाल इंगे मणवाल मामुनिवन पोन्नडियां सेंगमलप पोधुगलै उन्निच चिरत्ताले तीणडील अमानवनुम नम्मैक करत्ताले तिणडल कदन” – वह जो यहाँ दृढ़ता से हैं, वह जो निष्ठा से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरण कमलों को पकड़े हैं, अमानव अपने कर्तव्य से बाध्य होकर उनका स्पर्श करते हैं। इस पाशुर का पठन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी विरचित उपदेश रत्नमाला के अन्त में करते हैं।
- एक विस्मयपूर्ण भक्ति योग में रहना जो इस संसार चक्र से मुक्ति पाकर भगवान के पास जाने का साधन है और प्रपत्ति हीं भगवद्प्राप्ति का वास्तविक साधन है यह न मानना बाधा है। शास्त्र में मुक्ति (परमपद में नित्य कैंकर्य) के कई साधन बताये गये हैं। भगवद्गीता में समझाया गया है कि भक्ति योग जिसे शास्त्रों में भगवान तक पहुँचने के लिये सर्वश्रेष्ठ साधन बताया गया है। परन्तु यह भक्ति योग मूलत: जीवात्मा के स्वयं के परिश्रम पर निर्भर करता है फिर भी वह जीवात्मा के सही स्वभाव के विपरीत है जैसे कि स्वाभाविक लक्षण शेषत्व और पारतंत्रय आदि है। इसलिये हमारे आल्वारों और आचार्यों ने भक्ति योग ही उपाय है इसे अस्वीकार करके प्रपत्ति जो जीवात्मा के लिये सहज है को उपाय माना है। यह हमारे लिये उचित होगा कि हम अपने पूर्वाचार्यों के पद चिन्हों का पालन करें।
- प्रपत्ति शब्द सीधा भगवान कि ओर संकेत करता हैं इसे स्पष्ट रूप से न समझना बाधा है। प्रपत्ति शरणागति है – पूर्णत: भगवान के शरण होना और उनके हीं सहारे को मानना। हालाँकि ऐसे दिखता है कि “हमने” उन्हें पकड़ रखा है लेकिन यह सत्य नहीं है। शरणागति का वास्तविक अर्थ है “त्वमेव उपाय भूतो मे भव – इति प्रार्थना मति:” – यह प्रार्थना करने की मानसिक स्थिति है “आप केवल मेरा उपाय हो जाओं”। यानि प्रपत्ति में स्वयं भगवान उपाय हो जाते हैं। क्योंकि वें उपाय है हमारी यह सोच कि “मैं शरण हो रहा हूँ” उपाय नहीं हैं। वों एक हीं उपाय और उपेय हैं। अत: यह कहा जा सकता हैं कि प्रपत्ति हीं भगवान को दर्शाता हैं। अनुवादक टिप्पणी: गीताजी के चरम श्लोक में भगवान अर्जुन को आज्ञा देते हैं कि सभी धर्मों को त्याग कर सिर्फ मेरी शरण में आवो मैं तुम्हें सारी चिन्ताओं से मुक्त कर दूँगा। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पड़ी में इस चरम श्लोक को बड़ी सुन्दरता से समझाते हैं। यहाँ भगवान कृष्ण कहते “मामेकं शरणम्” – मुझे हीं सिर्फ उपाय मानो। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी “एक” शब्द की विस्तृत व्याख्या करते हैं। यहाँ वे पहचानते हैं कि “एक” शब्द प्रमाणित करता है कि केवल शरणागत होना उपाय नहीं है और भगवान ही उपाय हैं। हमारे सत सम्प्रदाय के इस सूक्ष्म सिद्धान्त को समझना कि यह सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण है। कई सूत्रों में “एक” को विस्तार से समझाया गया है। इस सिद्धान्त को अच्छी तरह से समझने के लिये हमें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मुमुक्षुप्पड़ी के कालक्षेप के सुन्दर व्याख्या को श्रवण करना चाहिये।
- शरणागति जो अधिकारी विशेषण है (योग्यता प्राप्त व्यक्ति का सहायक) को उपाय समझना बाधा है। जैसे समझाया गया है कि समर्पण कि प्रक्रिया मोक्ष चाहनेवाले व्यक्ति का सिर्फ एक गुण है – अधिक कुछ नही। इस उपाय से भ्रमित होना सही नहीं है। अनुवादक टिप्पणी: अधिकारी विशेषण का अर्थ वह सहायक जो मनुष्य की विशिष्ट पहचान करता है। यहाँ अधिकारी वह है जो मोक्ष कि “चाहना” करता है – ऐसे जीवात्मा के लिये शरणागति एक प्राकृतिक है क्योंकि भगवान की शरणागति ही जीवात्मा का सच्चा स्वभाव है। मुमुक्षुप्पड़ी के ५५वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी घोषणा करते हैं कि “शेषत्वमे आत्मावुक्कु स्वरूपं” – भगवान का दास बनकर रहना जीवात्मा का सच्चा स्वभाव है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से प्रमाणों से स्थापित करते है कि जीवात्मा दास है और श्रीहरी स्वामी है। अगले सूत्र में कहते है कि “शेषत्वमिल्लाधपोधु स्वरुपमिल्लै” – जब शेषत्व नहीं है तो उसका सच्च स्वभाव नष्ट हो जाता है। इसलिये जीवात्मा के सच्चे स्वभावनुसार भगवान के शरण होना एक स्वाभाविक क्रिया है – उसे कोई विशेष साधन नहीं मानना चाहिये। कालक्षेप में इस सिद्धान्त को समझाने के लिये एक अच्छा उदाहरण सुना है। एक परोपकारी मनुष्य अपने तिरुमाली में सबको प्रसाद बाँट रहा है। वहाँ एक व्यक्ति आता है और उसे पाने की इच्छा करता है। यहाँ पर प्रसाद के लिये उपाय है परोपकारी मनुष्य का सभी को खिलाने का करुणामय भाव है। परन्तु जिसे वहाँ पाना है उसे “भूख” होनी चाहिये – यही भूख अधिकारी विशेषण है – बिना भूख के वह प्रसाद नहीं पा सकता है जो वहाँ बाँटा गया है। परन्तु यह भूख उपाय नहीं है – यह तो केवल प्रसाद पानेवाले के लिये एक मूलभूत सहायक है।
- बिना पुरुषकार के शरण होना बाधा है। सामान्यता पुरुषकार का अर्थ सिफारिश है। जीवात्मा को ऊपर उठाने के लिये भगवान को समझाना कि आप ही उपाय हैं। क्योंकि हम कृत्य अकरणम् (शास्त्रों की आज्ञा का पालन नहीं करना), अकृत्य अकरणम् (शास्त्रों द्वारा वर्जित कार्यों में निरत रहना), भगवद अपचार (भगवान के प्रति अपराध करना), भागवत अपचार (भागवतों के प्रति अपराध करना), आदि से भरे हुये हैं, भगवान हमारा तिरस्कार कर सकते हैं। हमारे में इतने अवगुण होते हुये भी माता श्रीमहालक्ष्मीजी भगवान को समझाती हैं कि वे इन्हें स्वीकार करें और इनकी रक्षा करें। पुरुषकार का यही मुख्य अर्थ हैं। यह कहा गया हैं कि बिना पुरुषकार के शरणागति असफल हैं। अनुवादक टिप्पणी: पूर्वाचार्यों ने श्रीमहालक्ष्मी अम्माजी के पुरुषकार की भूमिका को विस्तार से समझाया हैं। शरणागति गध्य में श्रीरामानुज स्वामीजी पहिले अम्माजी के पास जाते हैं और फिर भगवान के शरण होते हैं। हमारे सत सम्प्रदाय में द्वय महामन्त्र की बहुत स्तुति होती है क्योंकि यह अम्माजी की भूमिका को पूर्णत: प्रकाशन करता है। द्वयम के पहिले खण्ड में यह समझाया गया हैं कि अम्माजी के पुरुषकार से श्रीमन्नारायण के शरण होना चाहिये और सिर्फ भगवान को हीं उपाय मानना चाहिये। द्वयम के दूसरे खण्ड में यह समझाया गया है कि इस दिव्य युगल जोड़ी की हमें एक साथ सेवा करनी चाहिये जिससे भगवान का मुखोल्लास होगा। मुमुक्षुप्पड़ी में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी अम्माजी के भूमिका और पुरुषकार को समझाते हैं। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी १३५वें सूत्र में समझाते है कि काकासुर (कागभुसण्डी) ने गलत इरादे से माता सीता जो प्रभु श्रीराम के संग थी को दु:ख पहुँचाया लेकिन अन्त में माता सीता हीं के पुरुषकार से काकासुर को अभयदान दिया। परन्तु दूसरी तरफ रावण श्रीराम के हाथों मारा गया क्योंकि माता सीता उस वक्त श्रीराम के संग नहीं थी। इसलिये जब हम भगवान के शरण होते हैं और यदि अम्माजी भगवान के साथ हैं तो भगवान जीवात्मा को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेते हैं और यदि अम्माजी के पुरुषकार को अनदेखा करेंगे तो अपने इच्छा के विरुद्ध परिणाम प्राप्त होते हैं।
- आचार्य के विषय में यह विचार करना कि वे केवल पुरुषकार हैं नकि स्वतन्त्र उपाय है बाधा है। सामान्यतया आचार्य को अम्माजी का सहायक/दास समझा जाता है। आचार्य अम्माजी की तरह ही दयालु, बिना किसी भेदभाव के सभी के प्रति करुणामय हैं। परन्तु श्रीरामानुज नूत्तन्दादि के ९५वें पाशुर में समझाया गया हैं कि “विण्णिन् तलैनिन्नु वीडलिप्पानेम्मिरामानुजन्” – समस्त आत्माओं को मोक्षप्रदान करने के लिए श्रीवैकुंठ से भूतल पर अवतार लेकर श्रीरामानुज स्वामीजी पधारे हैं, आचार्य भी स्वतन्त्र उपाय हो सकते हैं। यह श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के ४४७वें पाशुर का भी सार है “आचार्य अभिमानमे उत्तारकम” – हमारे उज्जीवन के लिए आचार्य की कृपा ही सर्वश्रेष्ठ आर्शिवाद है। अनुवादक टिप्पणी: अंतिमोपाय निष्ठा में आचार्य को स्वयं भगवान का अपरावतार समझाया गया है। श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी ४२७वें सूत्र में समझाते हैं कि सीधे भगवान के पास पहुँचने का अर्थ है भगवान का हाथ पकड़ने के लिये सहायता मांगना और आचार्य के द्वारा भगवान के निकट पहुँचने का अर्थ है भगवान के चरण कमलों को पकड़ना। आचार्य को भगवान के चरण कमल माना गया है। भगवान के चरण कमलों के जैसे आचार्य भी बहुत दयालु हैं। अत: उन्हें स्वतन्त्र उपाय माना गया है।
- उपाय और उपेय को दो भिन्न भिन्न तत्त्व समझना बाधा है। अन्तिम लक्ष्य तो परमपदधाम में भगवान के निकट पहुँचना और उनके आनंद के लिये नित्य कैंकर्य करना है। इस अन्तिम लक्ष्य प्राप्ति के लिये वों हीं एकमात्र साधन है। अत: उपाय और उपेय भगवान हीं हैं।
- अन्य सिद्धान्तों के विध्यालय के जनों से सम्बन्ध रखना जो भगवान को जगत शरीरत्वम (पूर्ण ब्रम्हाण्ड में निवास करनेवाली अकृष्ट आत्मा), आदि सिद्धान्त को नहीं मानते हैं – बाधा है। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति में समझाते है “उडन्मिसै उयिरेनक् करनथेंगुम परनतुलन” – जैसे आत्मा सम्पूर्ण शरीर में फैली हुई है (ज्ञान के द्वारा), स्वयं भगवान भी सर्वत्र व्याप्त हैं। यहाँ पर भगवान हर ब्रह्माण्ड के हर तत्त्व में व्याप्त है और सबकुछ उनका शरीर है – यही विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त है। रावण को परास्त करने के पश्चात ब्रह्माजी भगवान श्रीराम कि बहुत स्तुति करते हैं। वें श्रीराम की श्रेष्ठता को “सीता लक्ष्मी भवान विष्णु:” कहकर स्थापित करते हैं – श्रीसीताजी श्रीमहालक्ष्मीजी हैं और आप विष्णु है और “जगत सर्वं शरीरं ते” – सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपका शरीर है। परन्तु कुदृष्टिवाले (जो शास्त्र को गलत ढंग से पेश करते हैं) इन सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं करते हैं। अत: हमें ऐसों से मित्रता नहीं करनी चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: विष्णु का अर्थ है जो सर्व व्यापी है। वासुदेव का अर्थ जो सर्वत्र रहते हैं। नारायण का अर्थ है जो स्वयं सबके निवास स्थान हैं और वे स्वयं भी सब में व्याप्त हैं। भगवान के यह तीन नाम उनके सर्वत्र व्यापी गुण को दर्शाते हैं। वे सब वस्तुओं की आत्मा है यह जगत शरीरत्वम की पुष्टी करता है। यह बहुत साधारण विचार है। आत्मा की तरह आत्मा का भी एक शरीर है, परमात्मा के लिये सबकुछ उसके शरीर जैसे है। इस मतभेद में केवल एक समानता है – आत्मा शरीर के एक निश्चित अंग पर है और वह पूर्ण शरीर में ज्ञान के द्वारा फैली हुई है (यानि आत्मा शरीर के सभी अंगों में प्राकृतिक रूप में उपस्थित नहीं है) – क्योंकि आत्मा स्वभाव में अणु है। परन्तु परमात्मा विभु है – इसलिये इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण कण में वे शारीरिक रूप से व्याप्त हैं। वेद के इस तत्त्व को अन्य विध्यालय के विद्वानों को मान्य नही है और ऐसों से मित्रता हमारे ऊपर विपरीत परिणाम कर सकता है यदि हम स्वयं इस मूल सिद्धान्तों में दृढ़ नहीं है। इसलिये ऐसे लोगों से मित्रता से बचने की सिफारिश की जाती है।
-अडियेन केशव रामानुज दासन्
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