अन्तिमोपाय निष्ठा – १४ – भागवत अपचार

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

अन्तिमोपाय निष्ठा

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पिछले लेख (अन्तिमोपाय निष्ठा – १३ – आचार्य अपचार) में हमने आचार्य अपचार के बारे में विस्तार से देखा और ऐसे अपचार करने के दुष्परिणामों के बारे में भी जाना। हम इस भाग में भागवत अपचार को समझना जारी रखेंगे।

आगे हम भागवत अपाचार के बारे में देखेंगे।

श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र ३०७

इवै ओन्ऱुक्कॆन्ऱु क्रूरङ्गळुमाय् उपाय विरोधिगळुमाय् उपेय विरोधिगळुमाय् इरुक्कुम्

सरल अनुवाद: ये (अकृत्य करणम् – उन विषयों में लिप्त होना जिन्हें शास्त्र द्वारा अस्वीकार किया गया है, भगवत अपचारम् – भगवान् के विरुद्ध अपराध करना, भागवत अपचारम् – भागवतों के विरुद्ध अपराध करना, असह्य अपचारम् – बिना किसी विशेष कारण के भगवत/भागवत अपचार करना) पिछले से अधिक क्रूर हैं (अर्थात, भगवत अपचार अकृत्य करण से अधिक क्रूर है, भागवत अपचार भगवत अपचार से अधिक क्रूर है और असह्य अपचार भागवत अपचार से अधिक क्रूर है) और ये हमारे साधन और अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा हैं।

वीर सुंदर ब्रह्म रायन (एक स्थानीय राजा) ने कूरत्ताऴ्वान् के शिष्य होते हुए, एक बार आऴ्वान् के पुत्र पराशर भट्टर के प्रति शत्रुता पाल ली थी। उन्होंने भट्टर को इतना कष्ट दिया कि वे अत्यंत व्याकुल हो गए और श्रीरंगम छोड़कर तिरुक्कोष्टियूर चले गए। भट्टर ने स्वयं इसे अपने श्रीरंगराज स्तोत्र ५वें श्लोक में इस प्रकार प्रकट किया है:

पूगी कण्ठद्वयस सरस स्निग्ध निरोपकण्ठां
आविर्मोद स्तिमित शकुनानूदीत ब्रह्मघोषाम् |
मार्गे मार्गे पथिकनिवहै: उञ्ज्यमान अपवर्गां
पश्येयं तां पुनरपि पूरीं श्रीमतीं रङ्गधाम्न: ||

सरल अनुवाद: मैं उस श्रीरंगम को फिर से कब देखूँगा जो दिव्य संपदा और सौंदर्य से भरा हुआ है? वह दिव्यदेश जल स्रोतों के निकट स्थित है, जिनमें विशाल वृक्ष हैं और जो मन को बहुत प्रसन्न करते हैं। पक्षी निरंतर सुंदर ध्वनियाँ बनाते रहते हैं जो वेदों के पाठ के समान होती हैं। दिव्यदेश का मार्ग उन भक्तों की भीड़ से भरा हुआ है जो मोक्ष के शोध में हैं।

तिरुक्कोष्टियूर में श्री भट्टर नन्जीयर के साथ सौम्य नारायण भगवान के चरण कमलों में विराजमान हैं, यद्यपि उनका हृदय अभी भी श्रीरंगम में है

इस श्लोक के माध्यम से भट्टर् श्रीरंगनाथ और श्रीरंगम् से वियोग में अपने दिव्य दुःख को प्रकट करते हैं। उस समय, एक श्रीवैष्णव भट्टर् के पास आते हैं, उनकी सेवा करते हैं और उनसे तिरुविरुत्तम् को एक बार पूर्ण रूप से समझाने का अनुरोध करते हैं। भट्टर् अपने शिष्य नन्जीयर् की ओर देखकर उनसे कहते हैं, “जीय! श्रीरंगनाथ और श्रीरंगम् के वियोग में, मैं कुछ भी बात करने में असमर्थ हूँ। आप इस श्रीवैष्णव को तिरुविरुत्तम् का अर्थ समझाएँ” और श्रीवैष्णव को नन्जीयर् के चरण कमलों की ओर मार्गदर्शन करते हैं। कुछ समय बीतने के पश्चात, भट्टर् को क्रोधित करने वाला वीर सुंदर ब्रह्म रायन् अंततः मर जाता है। कुछ श्रीवैष्णव जो भट्टर् की माँ आण्डाळ की देखभाल कर रहे थे और उनके मार्गदर्शन को स्वीकार कर रहे थे, उन्होंने यह समाचार सुनकर अपने उत्तरीय हवा में उछालकर उत्सव मनाने लगे। यह देखकर, आण्डाळ तुरंत अपने तिरुमाळिगै (निवास) में चली गईं, दरवाजे बंद कर लिए और जोर-जोर से रोने लगीं। वे श्रीवैष्णव जो बहुत आनंद मना रहे थे, आण्डाळ् की ओर देखकर उनसे पूछा “क्या आप प्रसन्न नहीं हैं कि भट्टर् का शत्रु चला गया है, भट्टर् यहाँ वापस आएँगे और हम सभी महान सत्संग करेंगे?”

आण्डाळ् उत्तर देती हैं, “आप नहीं जानते। वीर सुंदर ब्रह्मरायण आऴ्वान् के प्रत्यक्ष शिष्य हैं। किन्तु उन्होंने भट्टर को बहुत पीड़ा देकर घोर अपराध किया। इतना ही नहीं, वे भट्टर के पास वापस भी नहीं गए और यह कहकर क्षमा याचना भी नहीं किया, ‘मैंने यह बहुत बड़ा अपराध किया है। कृपया मुझे क्षमा करें’ और भट्टर के चरण कमलों में सिर नहीं झुकाया। अब उनकी मृत्यु भी हो गई है। जैसे ही उन्होंने अपना देह त्याग दिया, यम धर्मराज के सेवकों ने उन्हें पकड़ लिया। मैं उनके हाथों उन्हें पीड़ित होते हुए देखने में असमर्थ हूँ। आप में से कोई भी इस भावना को नहीं समझ सकता।” इस प्रकार, मेरे आचार्य (वरवरमुनि) कहते हैं कि भागवत अपचार का परिणाम बहुत क्रूर है।

कडक्कत्तुप्पिळ्ळै, जो चोल मंडल (क्षेत्र) में रहने वाले थे, वे भट्टर् के शिष्य थे, वे सोमासियाण्डान् (श्रीरामक्रतुनाथार्य) के बारे में सुनते हैं, जो श्री रामानुजाचार्य द्वारा पूर्ण रूप से प्रशिक्षित थे। सोमासियाण्डान् तिरुनारायणपुरम् में रहते थे और कई लोगों को श्रीभाष्यम् की शिक्षा देते आए। पिळ्ळै तिरुनारायणपुरम् जाते हैं और उन्हें देखकर सोमयासियाण्डान् बहुत प्रसन्न होते हैं और उन्हें अपने तिरुमाळिगै में रहने के लिए स्थान प्रदान करते हैं। पिळ्ळै उसके बाद आण्डान् के मार्गदर्शन में पूरे एक वर्ष तक श्रीभाष्यम्, भगवत विषय आदि सुनते हैं। साट्रुमुरै (अंतिम सत्र) के बाद, पिळ्ळै अपनी वापसी यात्रा आरंभ करते हैं। आण्डान् पिळ्ळै के साथ तिरुनारायणपुरम् की सीमा तक जाते हैं (अनुवादक टिप्पणी: श्रीवैष्णवों के लिए यह प्रथा है कि वे श्रीवैष्णवों को नगर के अंत तक उनके साथ रहकर उन्हें विदाई देते हैं – मुख्यतः जल स्रोत) और कहते हैं “मैं गौरवान्वित हूँ कि आप पूरे एक वर्ष तक यहाँ रहे; अब मुझे आपके वियोग का बहुत दुःख हो रहा है; कृपया मुझे कोई मूल्यवान शिक्षा प्रदान करें, जिसका मैं आश्रय ले सकूँ”। पिळ्ळै उत्तर देते हैं, “सोमयासियाण्डान्! आप बहुत ज्ञानी हैं और श्रीभाष्यम् और भगवद् विषय दोनों पर आपका बहुत अच्छा अधिकार है। फिर भी, आप अपने ऊपरी वस्त्र में एक गाँठ बाँधिएगा ताकि आपको भागवत अपचार से बचने का निरंतर स्मरण किया जा सके”। यह घटना मेरे आचार्य (श्रीवरवरमुनि) ने बताया था। (अनुवादक टिप्पणी: ऊपरी कपड़े में गाँठ बाँधने की प्रथा है – जिसे देखकर हमें कोई ऐसी बात स्मरण आ जाएगी जो हम भूल सकते हैं)।

प्रातुर्भावैस्सुरनरसमो देवदेवस्तदीया: जात्या वृत्तैर् अपि च गुणत: तादृशो नात्र गर्हा |
किन्तु श्रीमद्भुवनभवन त्राणतोन्येषु विद्यावृत्तप्रायो भवति विदवाकल्पकल्प:प्रकर्ष: |
|

सरल अनुवाद : भगवान के भक्त, जो अपने जन्म, कुल, कर्म या गुणों के कारण मनुष्य या देवता जैसे लगते हैं, वास्तव में भगवान के समान हैं। उनका अपमान नहीं किया जाना चाहिए। वे भगवान की दिव्य भूमि और मंदिरों की सावधानीपूर्वक रक्षा करते हैं। वे ज्ञान और अनुष्ठान में उत्कृष्ट हैं। वे विद्वानों के आभूषणों की भाँति चमकते हैं।

अर्चावतारोपादानं वैष्णवोत्पत्ति चिन्तनम् |
मातृयोनि परीक्षयास्तुल्याहुर् मनीषिण: ||

सरल अनुवाद: जैसा कि विद्वानों ने पहचाना है, भगवान के दिव्य स्वरूप को उसके मूल-तत्व के आधार पर योग्य मानना ​​और जन्म के आधार पर वैष्णव को योग्य मानना, अपनी ही माता की पवित्रता पर संदेह करने के समान माना जाता है।

अर्चायामेव मां पश्यन् मद्भक्तेषु च मां द्रुहन् |
विषदग्दैर् अग्निदग्दैर् आयुधैर् हन्तिमामसौ ||

सरल अनुवाद: जो लोग अर्चावतार में मुझे पहचानते हैं, किन्तु मेरे भक्तों में नहीं, वे विष, अग्नि और शस्त्रों के बल से मुझे चोट पहुँचाते हैं।

या प्रीतीर्मयि संवृत्ता मद्भक्तेषु सदास्तु ते |
अवमानक्रिया तेषां संहरति अखिलं जगत् ||

सरल अनुवाद: मेरे भक्तों के प्रति मेरा प्रेम निरन्तर बढ़ रहा है, इतना अधिक कि यदि उनका अनादर किया जाए तो वह सम्पूर्ण विश्व को नष्ट करने की सीमा तक चला जाएगा।

मद्भक्तं स्वपचंवापि निन्दां कुर्वन्ति ये नर: |
पद्मकोटी शतेनापि न क्षमामि कदाचन ||

सरल अनुवाद: जो लोग मेरे भक्त चाहे वह चांडाल भी क्यों न हो उसकी निंदा करते हैं, मैं लाखों वर्ष बीत जाने पर भी उन्हें कभी क्षमा नहीं करता।

चण्डालमपि मद्भक्तं नावमन्येत बुद्धिमान् |
अवमानात् पदत्येव रौरवे नरके नर: ||

सरल अनुवाद: एक बुद्धिमान व्यक्ति मेरे भक्त को अपमानित नहीं करेगा, भले ही वह चण्डाल ही क्यों न हो, क्योंकि मेरे भक्त को अपमानित करने के कारण वह निश्चित रूप से रौरव नरक में गिरेगा।

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च |
निष्कृतिर् नास्ति नास्त्येव वैष्णव द्वेषिणां नृणाम् ||

सरल अनुवाद: वे, जो वैष्णवों के प्रति घृणा रखते हैं, निश्चित रूप से एक सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ या सौ वाजपेय यज्ञ से भी मुक्ति नहीं पाते हैं।

शूद्रं वा भगवद्भक्तं निषादं स्वपचं तथा |
ईषते जाति सामान्यान् स याति नरकं ध्रुवम् ||

सरल अनुवाद: जो भगवान के भक्त को जन्म के आधार पर शूद्र, निषाद या श्वपच जैसे भेदभाव से देखता है, वह विश्वासघाती नरक को प्राप्त करता है।

अनाचारान् दुराचारान् अज्ञात्रून् हीनजन्मन: |
मद्भक्तान् श्रोत्रियो निन्दन् सत्यञ्चाण्डालतां व्रजेत् ||

सरल अनुवाद: जो वेदों में पारंगत है, जो मेरे भक्तों को अनुशासन, धर्म या ज्ञान से रहित कहकर निंदा करता है, वह वास्तव में चांडाल के चरित्र को प्राप्त करता है।

अपिचेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यबाक् |
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यक्व्यवसितो हि स: ||

सरल अनुवाद: यदि कोई अत्यंत अनुचित कार्य भी करता है, यदि वह मेरा भक्त है, तो उसे संत माना जाएगा।

सर्वैश्च लक्षणैर् युक्तो नियतश्च स्वकर्मसु |
यस्तु भागवतान् द्वेष्टि सुदूरं प्रच्युतो हि स: ||

सरल अनुवाद: वह, जो सभी अच्छे गुणों से युक्त है और धार्मिकता के सभी कार्यों में अनुशासित है, फिर भी यदि वह भगवान के भक्तों से घृणा करता है, तो उसे दूर देशों में निर्वासित कर दिया जाता है।

तिरुमालै ४३

अमरवोरङ्गम् आऱुम् वेदमोर् नान्गुमोदी
तमर्गळिल् तलैवराय चादि अन्दनर्गळेलुम्
नुमर्गळैप् पऴिप्पारागिल् नोडिप्पदोरळविल्
आङ्गे अवर्गळ्ताम् पुलैयर् पोलुम् अरङ्गमानगरुळाने

सरल अनुवाद: प्रिय श्रीरङ्गनाथ! यहाँ तक कि ब्राह्मण जो वैष्णवों में अग्रणी हैं और चार वेदों और उनके छह अंगों (पूरक) के विशेषज्ञ हैं, जब वे आपके भक्त को अपमानित करते हैं, तो वे तुरंत, वहीं, बहुत नीच हो जाते हैं।

श्रीवचनभूषणम् १९२

ईश्वरन् अवतरित्तुप पण्णिन आनैत् तोऴिल्गळॆल्लाम् भागवत अपचारम् पोऱामै एन्ऱु जीयर् अरुळिच्चॆय्वर्

सरल अनुवाद: नञ्जीयर् इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि भगवान ने इसलिए प्रकट होकर अनेक कठिन कार्य किये क्योंकि वे भागवतों का अपमान सहन करने में असमर्थ थे।

श्रीवचनभूषणम् १९४ – १९७

भागवत अपचारम् तान् अनेक विदम् ; अदिले ऒन्ऱु अवर्गळ् पक्कल जन्म निरूपणम् | इदुतान् अर्चावतारत्तिल् उपादान स्मृतियिलुं काट्टिल् क्रूरम् | अत्तै मातृ योनी परिक्षैयोडु ऒक्कुम् एन्ऱु शास्त्रम् सॊल्लुम् |

सरल अनुवाद: भागवत अपचार कई प्रकार के होते हैं। भागवतों को उनके जन्म के आधार पर योग्य बनाना उनमें से एक है। यह भगवान के दिव्य रूप को मूल-तत्व के आधार पर योग्य बनाने से भी अधिक क्रूर है। शास्त्र के अनुसार, भगवान के दिव्य रूप को योग्य बनाना अपनी माँ की पवित्रता पर संदेह करने के समान है।

श्रीवचनभूषणम् १९८

त्रिशंकुवै पोले कर्म चण्डालनाय् मार्विलिट्ट यज्ञोपवीतम् ताने वाराय्विडुम्

सरल अनुवाद: जो व्यक्ति भागवत अपचार करता है, उसके लिए, ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिशंगु जो कर्म चाण्डाल बन गया (एक व्यक्ति अपने इसी जन्म में किए गए कर्मों के कारण चाण्डाल बन गया), यज्ञोपवीत स्वयं ही वह रस्सी बन जाएगा जो उसके गले को कस देगी और उसका गला घोंट देगी।

श्रीवचनभूषणम् १९९-२००

जाति चाण्डालनुक्कक् कालान्तरत्तिले भागवतनागैक्कु योग्यतै उण्डु; अदुवुमिल्लै इवनुक्कु; आरूड पतितनाकैयाले।

वह व्यक्ति जो जन्म से चण्डाल है, संभवतः किसी समय में भागवत बनने की योग्यता है। किंतु एक कर्म चण्डाल के लिए, ऐसी कोई आशा नहीं है, क्योंकि वह पतित हो गया है।

चूँकि आऴ्वार् जो हमारे समाज के नेता हैं, श्रीवैष्णवों का गौरव करते हैं, एक श्रीवैष्णव के लिए, दूसरे श्रीवैष्णव को अपने समान मानना ही भागवत अपचार है।

आऴ्वार् श्रीवैष्णवों का कई प्रकार से गौरव करते हैं:

  • तिरुवुडैमन्नर् – प्रचुर कैंकर्यश्री वाले व्यक्ति (राजा)
  • चॆऴुमामणिगळ् – सुन्दर और बड़े मोती
  • निलत्तेवर् – इस संसार के देवता
  • पॆरुमक्कळ् – श्रेष्ठ व्यक्तियों
  • तॆळ्ळियार् – सर्वाधिक बुद्धिमान
  • पॆरुन्तवत्तर् – सर्वोच्च तपस्वी
  • उरुवुडैयार् – सुंदर
  • इळैयार् – युवा (और सुंदर)
  • वल्लार् – जानकार
  • ओत्तुवल्लार् – वेद में विशेषज्ञ
  • तक्कार् – सबसे योग्य (गौरवान्वित करने योग्य)
  • मिक्कार् – हमसे श्रेष्ठ
  • वेदविमलर् – शुद्ध वैदिक
  • सिऱुमामनिसर् – आकार में छोटे परंतु गुणों में महान
  • एम्बिरान्तन चिन्नङ्गळ् – मेरे प्रभु के प्रतिनिधि

और भी प्रमाण दिखाए गए हैं जो भागवत अपचार के दुष्प्रभावों पर प्रकाश डालते हैं।

तस्य ब्रह्मविदागस:

सरल अनुवाद: ब्रह्म ज्ञान में स्थित उस व्यक्ति की महिमा करना । (अर्थ पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं है)

नाहं विसङ्गे सुरराजवज्रान्त त्र्यक्षसूलां न यमस्य दण्डात् |
नाग्न्यर्कसोमानिलवित्तहस्तात् सङ्गे ब्रुसं भागवतपचारात् ||

सरल अनुवाद: मैं इंद्र के वज्र के प्रकोप या यम के सेवकों या अग्नि, चंद्रमा और अन्य देवताओं के प्रकोप से नहीं डरता। किंतु मैं भागवत अपचार से बहुत डरता हूँ |

ब्रह्मविदोपमानात्

सरल अनुवाद: जो ब्रह्मज्ञान में स्थित उसकी तुलना (अर्थ पूर्णतः स्पष्ट नहीं है )।

आयु: श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च ।
हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रम: ॥

सरल अनुवाद: जो मनुष्य (भागवत अपचार का) सबसे बड़ा अपराध करता है, उसकी दीर्घायु, धन, योग्यता, सम्मान, संपत्ति, अच्छाई और उसके अनुकूल सभी चीजें नष्ट हो जाती हैं।

निन्दन्तिये भगवदस्चरणारविन्द चिंतावदूत सकलाकिलकल्मशौकान् |
तेषां यशोधनसुखायुरपत्यबन्धुमित्राणि च स्थिरतराण्यपि यान्ति नाशम् ||

सरल अनुवाद: जो लोग उन भक्तों की निंदा करते हैं जो सदैव भगवान के चरण कमलों का चिंतन करते हैं, और उन भक्तों को सभी दोषों का भण्डार मानते हैं, वे लोग अपना यश, धन, आयु, संतान, सम्बन्धी, मित्र और सम्पत्ति खो देते हैं।

अप्यर्च्चयित्वा गोविन्दं तदीयां नार्च्चय्न्ति ये |
न ते विष्णो: प्रसादस्य भाजनं डाम्बिकाजना: ||

सरल अनुवाद: उन पाखंडियों को भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होगी जो गोविंद की पूजा करते हैं लेकिन उनके भक्तों की नहीं।

श्रीवचन भूषणम् २०४

इऴवुक्कु अवर्गल् पक्कम् अपचारमे पोरुम्…..

जिस प्रकार, शुद्ध भागवत के साथ सम्बन्ध ही (ज्ञान और अनुष्ठान के बिना भी) परम आनन्ददायक परिणाम प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है, उसी प्रकार ऐसे भागवत के प्रति अपचार करना ही उसे त्यागने के लिए पर्याप्त है, भले ही हमारे पास पूर्ण ज्ञान और अनुष्ठान हो।

वैष्णवानां परिवादं यो महान् श्रृणुते नर: |
संगुपिस्तस्य नाराचै: कुर्यात् कर्णस्य पूरणम् ||

सरल अनुवाद: जो वैष्णवों की निन्दा सुनता है, उसके कान भालों और बाणों से भर जाते हैं।

श्रीवचन भूषणम् २०३

इव्विडत्तिले वैनधेय वृध्दान्त्तैयुम् पिळ्ळैप्पिळ्ळैयाऴ्वानुक्कु आऴ्वान् पणित्त वार्त्तैयैयुम् स्मरिप्पदु

अपाचार करने के बाद गरुड़ाळ्वार के पंखों में आग लगना गई

सरल अनुवाद: इसे (भागवतपचार की क्रूरता को) समझने के लिए, वैनतेय घटना पर ध्यान दें (जहाँ गरुड़ केवल यह सोचता है कि चाण्डिली दिव्यदेश के बजाय एक दूरस्थ स्थान पर क्यों रहती है और तुरंत उसके पंख जल गए) और श्रीपिळ्ळैप्पिळ्ळै आऴ्वान् को भागवत अपचार त्यागने का निर्देश आऴ्वान् द्वारा दिया गया।

इस प्रकार, आचार्य अपचार और भागवत अपचार की सबसे क्रूर प्रकृति को वेद शास्त्र, पुराण आदि द्वारा समझाया गया है, और सर्वज्ञ आऴ्वार् और हमारे आचार्यों ने उन शास्त्रों के सार को कई बार उसी प्रकार समझाया है। यह समझते हुए कि, एक आस्तिक (जो शास्त्र के प्रति निष्ठावान है) जो इस संसार से मुक्ति पाने पर ध्यान केंद्रित है, उसे कभी भी, कहीं भी (अपने स्वप्न में भी नहीं) उन भागवतों के प्रति अपचार नहीं करना चाहिए, जो सबसे योग्य स्वामी हैं और जो उसे हर समय पूर्ण सुरक्षा दे सकते हैं। हमारे जीयर् (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) प्रायः कहते हैं कि यदि कोई इन बातों को भूलकर छोटा सा भी अपचार कर दे तो वह सुधारा नहीं जा सकता, जैसे यदि भूमि फट जाए तो उसे जोड़ा नहीं जा सकता, यदि समुद्र भूमि में प्रवेश करे तो उसे कोई नहीं रोक सकता और यदि पहाड़ सिर पर गिर जाए तो हम उसे सहन नहीं कर सकते – भागवत अपचार ऐसा दायित्वहीन कार्य है, जिसमें अपराध का प्रतिकार करने की कोई व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार, व्यक्ति को उन भागवतों के साथ सावधानी से व्यवहार करना चाहिए जो अपने स्वयं के सदाचार्य के समान अच्छे हैं, इन सिद्धांतों को भूले बिना, किसी भी अपाचार से बचें। इतना ही नहीं, ऐसे सत्शिष्यों का अपने आचार्य और उन भागवतों के प्रति दृष्टिकोण को भी आगे बताया गया है।

अनुवादक टिप्पणी: इस प्रकार, हमने भागवत अपचार करने के दुष्परिणामों को देखा है। अगले भाग में हम देखेंगे कि एक सच्चे शिष्य को आचार्य और ऐसे महान भागवतों के संबंध में क्या करना/अपनाना चाहिए।

कुछ संस्कृत प्रमाणों का अनुवाद करने में सहायता करने के लिए श्रीरंगनाथ स्वामी को धन्यवाद।

जारी रहेगा…

पूरी शृंखला यहाँ देखी जा सकती है – https://granthams.koyil.org/anthimopaya-nishtai-hindi/

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/07/07/anthimopaya-nishtai-14-bhagavatha-apacharam/

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