श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री रंगदेशिकाय नमः
एम्पेरुमान (भगवान) ने अनेक अवतार लिए हैं, जिनमें श्री राम अवतार विशेष रूप से अनेक लोगों को प्रिय है| आऴ्वारों एवं आचार्यों ने अपने कृतियों में श्री रामावतार का वैभव बताया है:
तिरुवाईमोऴि (सहस्रागीति) 7.5.1 में रामावतार का गुणगान किया है:
कऱ्पार् इराम पिरानै अल्लाल् मट्रुम् कऱ्-परो?
पुऱ्पा मुतलाप् पुल् ऎऱुम्बादि ऒन्ऱु इन्ऱिये
नऱ्पाल् अयोत्तियिल् वाऴुम् चराचरम् मुट्रुवुम्
नऱ्पालुक्कु उय्त्तनन् नान्मुगनार् पॆट्र नाट्टुळे
(अभ्यस्यन्तो राममुपकारकं विना कंचिदभ्यस्येयुः किम्,
तृणपदार्थप्रभृतीनि सूक्ष्मपिपीलिकादीन्येकं विना ।
समीचीनस्थानायामयोध्यायां वर्धमानानि चराचराणि सर्वाणि,
सत्स्वभावं प्रापितवन्तं चतु-मुखसृष्टे लोके ॥ १॥)
साधारण अर्थ: जो भी जिज्ञासु व्यक्ति हैं, वे केवल श्री राम के विषय में जानकर सबकुछ सीख सकते हैं क्योंकि समस्त शास्त्रों के गूढ़ उपदेशों को श्री राम ने अपने आचरण से दर्शाया है| अपने इस अवतार में उन्होंने सभी अयोध्यावासियों का उज्जीवन किया|
अगले पासुर में:
नाट्टिल् पिऱन्दवर् नारणऱ्कु आळ् अन्ऱि आवरो?
नाट्टिल् पिऱन्दु पडादन पट्टु मनिसर्क्का
नाट्टै नलियुम् अरक्करै नाडित् तडिन्दिट्टु
नाट्टै अळित्तु उय्यच् चॆय्दु नडन्दमै केट्टुमे
(लोक उत्पन्ना नारायणं दासा विना भवेयुः किम्,
लोके जनित्वा अननुभाव्यमनुभूय मनुष्याणामर्थे ।
लोकं बाधमानात्राक्षसान् वि-चित्य संहृत्य,
लोकं रक्षित्वोज्जीव्यागच्छदिति श्रुत्वापि ॥ २ ॥)
इस पासुर का साधारण अर्थ यह है कि हे श्री राम, इस अवतार में, आपने मानव का रूप धारण किया और कई कठिनाइयों का अनुभव किया, कर्म के कारण नहीं, अपितु उन कठिनाइयों को केवल ग्रहण किया और उन्हें सहन किया ताकि इस संसार के लोगों को दिखा सके कि कोई व्यक्ति आत्म-स्वरूप को हानि पहुँचाए बिना कैसे समुचित जीवन जी सकता है।
भगवान ने एक व्यवस्था बनायी है, जिसमें मनुष्य यज्ञों के द्वारा देवताओं की आराधना करते हैं, एवं, बदले में देवतागण वर्षा आदि का उपहार देते हैं, जो अन्न आदि मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं| भगवान ने ऐसी व्यवस्था इसलिए बनायी है ताकि संसार समुचित सामंजस्य में कार्य करता रहे|
हालाँकि देवतागण भूलोक के प्राणियों से घुलना मिलना पसंद नहीं करते एवं यज्ञ का भाग ग्रहण करने के समय में भी अपना मुख घुमा लेते हैं (भू-लोक वासियों को निम्न/नीच समझकर)| एम्पेरुमान (भगवान), जो कि देवाधिदेव हैं, देवों की रक्षा हेतु करूणावश मनुष्य रूप में पृथ्वी पर अवतार लेने की इच्छा करते हैं, जहाँ देवता अनादर की दृष्टि रखते हैं| ऐसी महिमा है श्री राम अवतार की| श्री राम अवतार की महिमा को वाल्मीकि भगवान ने श्री रामायण में लिखा है| श्री रामायण की प्रसिद्धि आदि-काव्य के रूप में है| २४००० श्लोकों में माता सीता, भरत आऴ्वान्, लक्ष्मण आऴ्वान्, शत्रुघ्न आऴ्वान्, हनुमान (तिरुवडि), सुग्रीव आऴ्वान्, विभीषण आऴ्वान् आदि का वर्णन है| श्री रामायण को सम्पूर्ण शरणागति शास्त्र भी कहा जाता है|
ब्रह्मा की कृपा से वाल्मीकि मुनि श्री राम के समस्त जीवन वृत्तान्त को देखने की दिव्य दृष्टि प्राप्त करते हैं| इस कृपा से वाल्मीकि भगवान श्री रामायण की रचना करते हैं|
न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति ।
कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम् ।।1.2.35।।
यावत् स्थास्यन्ति गिरयस्सरितश्च महीतले ।
तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।।1.2.36।।
कथा प्रारम्भ होती है नारद भगवान के वाल्मीकि भगवान के आश्रम में प्रवेश करने से| (भगवान शब्द परब्रह्म (श्रीमन्नारायण) को दर्शाता है जो छः गुणों से संपन्न हैं- ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति, तेजस) वाल्मीकि भगवान ने नारद भगवान का अत्यन्त आदर से स्वागत किया एवं नारद भगवान से जिज्ञासा व्यक्त किया कि संसार में सभी उत्तम गुणों से पूर्ण कौन है एवं संसार में आदर्श व्यक्ति कौन है? नारद महर्षि भगवान श्री राम का स्मरण कर भाव-विह्वल होने के कारण असमर्थ हो जाते हैं एवं कुछ काल चिन्तन करने के बाद भगवान का ध्यान करते हुए उत्तर देना प्रारम्भ करते हैं| वे वाल्मीकि भगवान को बताते हैं कि इक्ष्वाकु वंश में श्री राम का जन्म हुआ है| वही सम्पूर्ण उत्तम गुणों से पूर्ण हैं एवं आदर्श मानव हैं| नारद भगवान ने संक्षेप में श्री राम का सम्पूर्ण जीवन चरित्र सुनाना प्रारम्भ किया|
संसार पर आयी विपत्ति एवं देवताओं के भगवान विष्णु के समक्ष प्रार्थना एवं भगवान का लोक-रक्षण का वचन से कथा प्रारम्भ किया| इस वचन को सत्य करने हेतु उन्होंने राम रूप में अवतार लिया| ६०,००० वर्ष राज करने वाले निःसंतान राजा दशरथ ने पुत्र कामना से अश्वमेध-यज्ञ के पश्चात पुत्र-कामेष्टि यज्ञ किया| यज्ञ अग्नि से देव प्रकट हुए एवं राजा दशरथ को पायस प्रदान किया| यज्ञ प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात रानियों ने ४ पुत्रों को जन्म दिया: राम, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न|
चारों पुत्र धीरे-धीरे बड़े हुए| एक दिन विश्वामित्र मुनि राजा दशरथ के पास आये एवं यज्ञ-रक्षा हेतु श्री राम को माँगा| श्री राम और लक्ष्मण, दोनों भाई विश्वामित्र मुनि के साथ वन जाते हैं एवं उनके यज्ञ की रक्षा कर यज्ञ की पूर्ति में सहयोग करते हैं| इसके पश्चात विश्वामित्र उन्हें जनक के महल ले जाते हैं जहाँ श्री राम धनुष को भंग कर सीता पिराट्टि (मैया) से विवाह कर अयोध्या वापस लौटते हैं| इसके पश्चात दोनों प्रसन्नता से कई वर्ष अयोध्या रहने लगे|
एक दिन राजा दशरथ ने श्री राम के राज्याभिषेक का निर्णय लिया| इस समाचार के श्रवण के पश्चात अपनी दासी मन्थरा के प्रभाव में आकर रानी कैकेयी भयभीत हो जाती हैं एवं श्री राम के प्रति इर्ष्या एवं बदले के भाव से भर जाती हैं| रानी कैकेयी राजा दशरथ से उनके पूर्व में दिए गए दो वर को मांगती हैं: एक से भरत का राज्याभिषेक एवं दुसरे से राम को १४ वर्ष का वनवास| भारी मन से राजा दशरथ ने यह सन्देश श्री राम को सुनाया एवं श्री राम प्रसन्नतापूर्वक मान गए| सीता एवं लक्ष्मण के संग १४ वर्ष वनवास हेतु राज्य से चले गए|
भरत को जब समस्त घटनाक्रम की जानकारी हुयी, तब उन्होंने वन जाकर, श्री राम से मिलकर सारी समस्या को सुलझाने का संकल्प लिया| किन्तु, श्री राम वापस आकर राजसिंहासन स्वीकार करने को राजी नहीं हुए और बदले में भरत आऴ्वान् को अपनी पादुकायें प्रदान की| इसके पश्चात श्री राम दंडकारण्य वन की ओर चले गए|
वन में श्री राम ने ऋषियों को वचन दिया की उनके दुखों को दूर करेंगे और राक्षसों से उन्हें बचाएँगे| उन्होंने अनेक दैत्यों का संहार किया, तभी एक दिन श्री राम की सुन्दरता से मुग्ध शूर्पणखा का आगमन हुआ| जब श्री राम और लक्ष्मण ने उसमें रूचि नहीं दिखाई तब क्रोधित राक्षसी ने यह सोचकर कि इनके रुचिहीन होने का कारण सीता है, उसने सीता को हानि पहुँचाने का प्रयास किया| लक्ष्मण ने शीघ्रता से उसके नाक और कान काट दिए| शूर्पणखा भागकर अपने भाइयों, खर और दूषण के पास गयी एवं अपनी रक्षा को पुकारा| श्री राम ने अकेले ही खर एवं दूषण को सेना सहित नष्ट कर दिया| शूर्पणखा रावण के पास जाती है एवं अपने अपमान और खर-दूषण की मृत्यु का बदला लेने हेतु उकसाती है| रावण ने मारीच को माया हरिण बनाकर भेजा| स्वर्ण मृग की शोभा पर सीता मुग्ध हो जाती हैं एवं श्री राम से उसे प्राप्त करने का आग्रह करती हैं| सीता के आग्रह पर श्रीराम हरिण के पीछे जाते हैं एवं हरिण के छद्म भेषधारी मारीच का वध करते हैं| जब लक्ष्मण ने मारीच द्वारा श्री राम के स्वर में किये गए पुकार को सुना तो वह भी सहायता हेतु पीछे-पीछे चले गए| सीता को अकेला पाकर रावण आता है एवं छल से उनका अपहरण कर लेता है|
जटायु महाराज ने रावण को मार्ग में रोकने का प्रयत्न किया किन्तु रावण ने उनका पंख काट दिया एवं आगे बढ़ गया| श्री राम और लक्ष्मण अत्यन्त दुःख में सीता को वन में इधर-उधर सर्वत्र अन्वेषण करते हैं| तभी वे जटायु महाराज से मिलते हैं और उन्हें सम्पूर्ण घटनाक्रम की जानकारी मिलती है| उनके बताये दिशा में दोनों आगे बढ़ते हैं| रास्ते में उन्होंने कबन्ध का वध किया, जिन्होंने उन्हें सबरी से मिलकर सुग्रीव से मिलने का मार्ग जानने को बोला| सबरी, जो बहुत काल से श्री राम के दर्शन की प्रतीक्षा में थीं, उनके दर्शन पाकर फुली न समाईं, अत्यन्त आह्लादित हुईं| वे श्री राम का स्वागत करती हैं एवं अपने द्वारा प्रेमातिशय से एकत्र किये गए मीठे फलों को भगवान को समर्पित करती हैं| इसके पश्चात् अपने पार्थिव शरीर को त्याग कर सबरी परमपद को प्राप्त कीं| सबरी द्वारा निर्देशित मार्ग में आगे बढ़ते हुए उन्हें हनुमान जी मिले| श्री राम को देखते ही वे परब्रह्म को पहचान गए एवं अनन्य दास बन गए| दोनों भाइयों को अपने कन्धे पर बैठाकर वे सुग्रीव के पास लेकर आते हैं एवं उनसे परिचय करवाते हैं| सुग्रीव से राम की मित्रता होती है एवं वे सुग्रीव को वचन देते हैं कि वे बालि का वध कर सुग्रीव का राज्याभिषेक करेंगे| श्री राम ने अपना वचन पूरा किया, अब सुग्रीव के अपने वचन को पूरा करने की बारी आई| बरसात के चतुर्मास सुग्रीव राज्य का भोग करते रहे जबकि श्री राम सीता के विरह में तड़पते रहे| (अनिद्रः सततं रामः सुप्तोऽपि च नरोत्तमः । सीतेति मधुरां वाणीं व्याहरन्प्रतिबुध्यते ॥) बरसात के मास बीत जाने पर भी सुग्रीव को सीता के अन्वेषण करने का अपने वचन की स्मृति नहीं हुयी, तब श्री राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव को अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाने हेतु भेजा| सुग्रीव को अपने भूल का स्मरण हुआ एवं उसने सभी दिशाओं में अपने वानर सेना को सीता के अन्वेषण हेतु भेजा| भगवान की विशेष इच्छा हुयी कि ये पावन कार्य हनुमान ही करें| उन्होंने हनुमान को बुलाकर उन्हें अपनी अंगूठी (मुद्रिका) प्रदान किया, ताकि वे सीता को पहचान के रूप में दिखा सकें| हनुमान दक्षिण की ओर बढ़ें, तभी उन्हें जटायु महाराज के बड़े भाई सम्पाति के दर्शन हुए| अपनी दूर दृष्टि से सम्पाति वहीं बैठे-बैठे सीता को देख पा रहे थे एवं वानर सेना को उसी दिशा में आगे बढ़ने को कहा| जब सभी वानर चिन्तित हुए की महासमुद्र को कैसे पार करें, तभी जाम्बवान जी ने हनुमान जी को उनकी शक्तियों का स्मरण दिलाया| जाम्बवान द्वारा प्रोत्साहित एवं अपनी शक्तियों का लब्ध-ज्ञान हनुमान ने महेन्द्रगिरी से लंका की ओर छलाँग लगाया, जबकि अन्य वानर इसी तट पर उनकी प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहे|
हनुमान १०० योजन समुद्र को लाँघकर लंका पहुँचे एवं सीता माता के समीप जाकर उन्हें मुद्रिका दिखाया| वह पुनः रावण के राजदरबार जाते हैं और रावण को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि वे सीता को वापस श्रीराम को सौंप दे| क्रोध से आग-बबूला रावण तथा उसके मंत्रिपरिषद ने उनकी पूँछ में आग लगा दी| इस उपयुक्त समय का लाभ उठाते हुए हनुमान जी ने सारी लंका का दहन कर दिया व राक्षसों के हृदय में भय निर्माण कर दिया| पश्चात हनुमान पुनः लंका लाँघकर अपनी वानर सेना के पास आते हैं और सभी जाकर श्री राम को सीता जी का समाचार सुनाते हैं| श्री राम और लक्ष्मण समस्त वानर सेना के साथ समुद्र के दक्षिणी तट पर पहुँच जाते हैं| सभी समुद्र पार करने के उपाय पर चिन्तन कर ही रहे होते हैं कि तभी विभीषण अपने सहयोगियों सहित आकर श्री राम की शरणागति करते हैं| विभीषण की मंत्रणा पर श्री राम समुद्र राजा की शरणागति करते हैं और उनसे मार्गदर्शन की याचना करते हैं| जब समुद्र की ओर से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया तब राम ने क्रोध में धनुष-बाण उठा लिए| श्री राम के क्रोध से डरकर त्राहि-त्राहि करता हुआ समुद्र राजा भगवान के समक्ष आकर क्षमा याचना करता है और सेतु निर्माण का उपाय बतलाता है| नल और नील के नेतृत्त्व में वानरों ने समुद्र में सेतु निर्माण कर सेना सहित समुद्र पार कर लिया|
लंका आगमन के पश्चात श्री राम ने अंगद को शान्ति दूत बनाकर भेजा| (सत्य तो यह है कि रावण को साक्षात् सीता अम्माजी, हनुमान जी, मन्डोदरी, विभीषण, कुम्भकरण, मारीच आदि ने अनेक उपदेशों से बहु प्रकार से रावण को समझाने का प्रयास किया था|) किन्तु, प्रबल पाप-प्राचुर्य के कारण रावण की बुद्धि और कर्म दोनों ही दूषित होकर अमर्यादित व अधार्मिक हो चुके थे| युद्ध में रावण ने अपने अस्त्र-शस्त्र खो दिए तब श्री राम ने उसे सुधारने का एक और अवसर देते हुए उसे छोड़ दिया और वापस यह कहते हुए भेज दिया कि कल पुनः सिद्ध होकर वापस आना| श्री राम ने आशा की थी कि रावण चिन्तन करेगा एवं सुधरेगा किन्तु रावण पुनः युद्ध करने आया एवं भगवान ने अंततः उसका वध कर दिया| श्री राम व सीता का पुनः मिलन हुआ|
श्री राम ने लंका में विभीषण जी का राज्याभिषेक किया एवं विभीषण, वानर यूथ के संग अयोध्या वापस आये| अयोध्या में उत्सव हुआ एवं श्री राम का पट्टाभिषेक किया गया|
यह संक्षिप्त कथा श्री रामायण के बाल-काण्ड में वर्णित है एवं इसे ‘संक्षेप रामायण’ कहते हैं|
नारद भगवान से श्री राम की कथा सुनने के बाद वाल्मीकि भगवान अपने शिष्य भारद्वाज के संग तमसा नदी के तीर पर प्रातः सन्ध्या उपासना हेतु गए| वहाँ उन्होंने एक क्रौंच युगल (मिथुन) पक्षियों को देखा| तभी एक शिकारी आकर उनमें से एक की हत्या कर देता है| शोकाकुल महर्षि के मुख से छन्दबद्ध श्लोक रूप में श्राप प्रस्फुटित होता है| अपने द्वारा दिए गए श्राप से दुखी वाल्मीकि भगवान अपने आश्रम वापस आते हैं, तभी वहाँ ब्रह्मा का आगमन होता है, वे बताते हैं कि ये श्लोक एक विशेष कारण से उद्भूत हुआ है| यह श्री रामायण का प्रथम श्लोक होगा| ब्रह्मा के अनुग्रह से वाल्मीकि भगवान श्री राम के जीवन चरित्र को साक्षात् देखने की दृष्टि मिली एवं ‘जैसा घटित हुआ वैसा ही’ विवरण श्री रामायण ग्रन्थ में लिखा| वाल्मीकि भगवान ने लव एवं कुश को रामायण पढ़ाना प्रारम्भ किया जिन्होंने श्री रामायण का गायन कर श्री राम की कीर्ति को सर्वत्र प्रचारित किया|
इस प्रकार देवताओं की प्राथना से द्रवित होकर, उनकी रक्षा हेतु श्री राम ने नृप दशरथ के घर जन्म लिया| यज्ञ देव द्वारा प्रदान किये गए पायस के प्रभाव से कौशल्या के गर्भ से श्री राम (सभी को अपने कल्याण गुणों से आनन्द देने वाले, (रमन्ते सर्वे जनाः गुणैरस्मिन्निति रामः))का जन्म हुआ, कैकेयी से भरत (भरण पोषण करने वाले (राज्यस्य भरणादिति भरत:), राम के वन-गमन एवं नृप की मृत्यु के पश्चात उन्होंने राज्य का भरण किया)| दो सौमित्र हुए: लक्ष्मण (रामकैंकर्यलक्षण संपत्ति से युक्त, लक्ष्मणो लक्ष्मी संपन्न:|) एवं शत्रुघ्न (शत्रुओं के हन्ता| ( शत्रून् हन्तीति शत्रुघ्नः|) भागवत-कैंकर्य विरोधी सभी व्यवधानों को जीतने वाले|)
धीरे-धीरे चारों भाई बड़े हुए, राजकुमार बने| तभी एकदिन विश्वामित्र मुनि का आगमन होता है| उन्होंने नृप से राक्षसों द्वारा यज्ञों में डाले जा रहे विघ्नों के बारे में बताया एवं यज्ञ-रक्षा हेतु राम एवं लक्ष्मण को माँगा| यह सुनते ही, श्री राम के प्रति प्रेमातिशय के कारण नृप दशरथ मूर्छित हो जाते हैं| तब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र राजा को समझाते हैं कि इसमें चिन्ता करने योग्य कुछ भी नहीं| विश्वामित्र जानते थे श्री राम परब्रह्म हैं| इस कारण उन्होंने यह वचन बोले:
अहं वेद्मि महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ।
वसिष्ठो ऽपि महातेजा ये चेमे तपसि स्थिताः ।। 1.19.14 ।।
अगले लेख में हम इस श्लोक की विस्तृत व्याख्या पढेंगे, जैसा श्री पेरिय आच्चान पिळ्ळै (कृष्णपाद आचार्य) ने अपने ग्रन्थ में वर्णन किया है|
श्री उ वे सारथी तोताद्री स्वामी द्वारा तमिऴ् कालक्षेप, जो कि इस लेख का आधार है –
https://www.youtube.com/live/xJpAWpn1Tvc?si=28b3XAAO3gM9XyM_
अडियेन् माधव श्रीनिवास रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2025/06/13/sri-ramayana-thani-slokam-1-introduction-english/
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