प्रपन्नामृत – अध्याय ४४
पश्चिम दिशा में प्रस्थान
🔹कृमिकण्ठ राजा दुर्जन, श्रीवैष्णवद्वेषी, भगवान श्रीमन्नारायण का निन्दक था और श्रीवैष्णव धर्म से इसको बड़ा विरोध था।
🔹श्रीवैष्णव विरोधी सम्मतिपत्र पर सबके बलपुर्वक हस्ताक्षर करवाके यह आदेश दिया कि जो वैष्णवत्व का आचरण करेगा उसको कठिन दण्ड दिया जायेगा।
🔹राजा के मंत्रीपरिषद के एक सदस्यने (जो कुरेशाचार्य के शिष्य थे) कहा की साधारण श्रीवैष्णवोंके हस्ताक्षर से कुछ नही होगा, यतिराज रामानुजाचार्य और कुरेशाचार्य के हस्ताक्षर से ही यह पत्र त्रिलोकमें भी मान्य होगा।
🔹राजाने तत्काल यतिराज और कुरेश स्वामीजी को लानेके लिये दूतोंको श्रीरंगम् भेजा।
🔹उस समय रामानुजाचार्य कावेरीस्नान के लिये गये थे।
🔹राजा का आदेश सुनकर अपने आचार्य यतिराज का कुछ अनिष्ट ना हो इस विचार से कुरेशाचार्य ने अपने आपको रामानुजाचार्य बताकर उनके काषायवस्त्र, दण्ड, कमंडलु लेकर दूतोंके साथ चलदिये।
🔹उनके साथ महापुर्ण स्वामीजी भी चलदिये।
🔹यह समझनेपर शिष्योंके साथ विचार विमर्श करके रामानुजाचार्य भी रंगनाथ भगवान से आज्ञा लेकर पश्चिम दिशा की ओर चलदिये।
🔹एक घने जंगलमें जंगली लोगोंनें यतिराज का रक्षण करके उनको सम्मानसहित परिचय पूछा।
🔹जब उनको पता चला की ये ही यतिराज हैं तो उनको अति आनन्द हुवा।
🔹वे सभी लोग यतिराज के शिष्य नल्लानाचार्यजी के शिष्य थे यह जानकर यतिराज भी अति प्रसन्न हुये।