प्रपन्नामृत – अध्याय ४७
🌷सम्पतकुमार भगवान की प्राप्ति🌷
🔹एक समय तिलक करनेके लिये श्रीरङ्गम से लाया हुवा पासा समाप्त होने को आया।
🔹यतिराज को चिन्ता हुयी की अब श्रीवैष्णव लोग तिलक कैसे करेंगे।
🔹यादवाद्रिनाथ भगवान ने स्वप्नमें आदेश दिया की यादवाद्रि पर तिलकपासा निर्माण करनेके लिये पर्याप्त मात्रा में श्वेतमृत्तिका उपलब्ध है।
🔹यतिराज विष्णुवर्धन राजा समेत सभी शिष्योंके साथ यादवाद्रि पहुँचे।
🔹कल्याणी तीर्थ के तटपर चम्पा के वृक्षोंके समुहके उत्तरमें तुलसीके समीप बल्मीकके अन्दर एक समयमें पक्षीराज गरुड ने श्वेतद्वीपसे श्वेतमृत्तिका लाकर रखी थी वहाँपर खोदनेपर श्री यादवाद्रिनाथ का प्रादुर्भाव हुवा। वहाँ के श्वेतमृत्तिका से यतिराजने तिलक धारण किया।
🔹वहाँ श्री नारायणपुर नामक नगर बनवाये।
🔹श्री यादवाद्रिनाथ की प्राणप्रतिष्ठा किये और उत्सव विग्रह की प्राप्ति के लिये भगवान का ध्यान करते हुये सोगये।
🔹भगवान ने स्वप्नमें बताया की मेरे उत्सव विग्रह जो “रामप्रिय” के नाम से प्रख्यात हैं इस समय दिल्ली नरेश के राजभवनमें पडे हुये हैं।
🔹 तत्पश्चात यतिराज शिष्य समुदाय के साथ तथा विष्णुवर्धन राजा के सैनिकोंके साथ रामप्रिय को लाने के लिये दिल्ली की ओर चल पडे।
🔹दिल्लीश्वर ने स्वागत किया।
🔹यतिराज ने बताया की वें रामप्रिय को लेने आये हैं। पर रामप्रिय नही मिलें।
🔹फिर रात्रिमें भगवान ने स्वप्न में कहा की वें राजकन्या से सेवा ले रहे हैं।
🔹अगले दिन यतिराज की आज्ञासे राजा ने उन्हे राजकन्या के निवास स्थान पर पहुँचाया।
🔹यतिराज को देखकर रामप्रिय स्वयं चलकर उनके पास आकर गोदमें बिराजमान होगये।
🔹“यह मेरे सम्पत् पुत्र हैं” कहकर यतिराज ने भगवान का आलिंगन किया तबसे भगवान का नाम सम्पतकुमार प्रसिद्ध होगया।
🔹राजकन्या को रामप्रिय के विरहमें दु:खी देखकर राजा ने राजकन्या को भी उनके साथ भेज दिया।
🔹साथमें धन आभूषण वस्त्रादि तथा चतुरंगिणी सेना को देकर सम्मान सहित सबकी विदाई की।