श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
श्री यामुनाचार्य स्वामीजी और श्री आल्वार
श्रेष्ठ सन्यासी
श्री यामुनाचार्य स्वामीजी श्री नाथमुनी स्वामीजी (जिन्होने दिव्य प्रबंधोंकों का पुनरुज्जीवन किया) के पौत्र हैं। श्री यामुनाचार्य स्वामीजी आलवंदार, यमुनै तुरैवर, और यामुन मुनी नाम से भी जाने जाते हैं। वें श्री रामानुज स्वामीजी के परम आचार्य हैं। ऐसा कहा जा सकता है की उनके बाद के सभी आचार्योंने उन्होने बताए हुये मार्ग का अनुसरण किया। बाद के आचार्योंने ऐसी कोई बात भी नहीं बताई जो श्री यामुनाचार्यजी ने नहीं बतायी हो।
जिन्होने विद्वानोंके ग्रंथोंका अध्ययन किया है आसानी से घोषित करेंगे की श्री यामुनाचार्य स्वामीजी जितना निपुण और कुशाग्र बुद्धीवाला ना आजतक कोई हुआ है न आगे भविष्य में भी कोई होगा – श्रीयामुनार्यसमो विद्वान् न भूतो न भविष्यति। वें श्रेष्ठ सन्यासी भी हैं, जैसे श्री थिरुवरन्गरत्तु आमुदनर् स्वामीजी कहते हैं: “यतिकट्किरैवन् यमुनैट्टुरैवन्”
श्री यामुनाचार्य स्वामीजी की बहू-आयामी निपुणता अनेक प्रकार से समझ सकते हैं। एक तरफ तो श्री यामुनाचार्य स्वामीजी के निर्मित ग्रंथोंकों देख सकते हैं (स्तोत्र-रत्न, सिद्धित्रय, आगाम प्रामाण्य में पांचरात्र आगम का बचाव) और निर्णय कर सकते हैं की स्वामीजी काव्य, दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र और पांचरात्र में अनुभवी एवं निपुण थे। अथवा कोई स्वामीजी के अपने वचनोंपर ध्यान दे –
न वयं कवयस्तु केवलं, न वयं केवल-तन्त्र-पारकाः,
अपितु प्रतिवादिवारण-प्रकटाटोप-विपाटन-क्षमाः।
“हम कवी मात्र नहीं हैं; हम आगाम तंत्र के विद्वान मात्र नहीं हैं, परंतु घमंडी हाथियोंके समान प्रतिवादियोंकी घोषणाओंकों शांत करनेमेभी हम उतनेही समर्थ हैं।” एक समझदार समझ सकता है की यह अभिमान युक्त वचन नहीं हैं बाकी एक मात्र सत्य है।
हमारे संप्रदाय के तत्त्ववेत्ताओंने अनेक संस्कृत रचनाएँ की है जिनमे उन्होने सामान्य रूप से स्वीकृत ग्रंथोंके आधारपर हमारे तत्त्व प्रस्थापित किए हैं। इन ग्रंथोंमें हमें आल्वारोंके सीधे वचन नहीं मिलेंगे। यह मुख्य रूप दार्शनिक चर्चा के दायरे और पहुँच के कारण है। अपितु, संप्रदाय के ग्रंथोमें (जो केवल श्रीवैष्णवोंके लिए बनाए गए हैं) उन्होनें आल्वारोंके ग्रंथोंसे संदर्भ लिए हैं और आल्वारोंकी तनियन से उनका गुणगान भी किया।
प्रपन्न कुलपति
श्री यामुनाचार्य स्वामीजी की श्री शठकोप स्वामीजी के प्रति निष्ठा का प्रमाण स्तोत्र रत्न के पांचवे श्लोक में मिलता है – “माता पिता…” इस श्लोक में श्री यामुनाचार्य स्वामीजी सीधे श्री शठकोप स्वामीजी का नाम नहीं लेते हैं। अपितु उपाधि देते हैं – आद्यस्य नः कुलपतेः – सबसे महत्वपूर्ण और हमारे प्रपन्न कुल के मार्गदर्शक। “वकुलाभिरामम्” – वकुल पुष्प से सुशोभित – से यह स्पष्ट होता है। यह पहचान खुद श्री शठकोप स्वामीजी ने दिया है। “णट्कमल् मकिल्मलै मर्पिनन् मारन शटकोपन्”। पश्चात के आचार्योंने भी श्री शठकोप स्वामीजी का गुणगान किया है “वकुलाभरणं वन्दे जगदाभरणं मुनिम्”।
“आद्यस्य नः कुलपतेः” ऐसे उपाधि से पता चलता है को श्री शठकोप स्वामीजी श्री यामुनाचार्य स्वामीजी के परंपरा के सभी आचार्योंके कुलपति हैं।
मुख्य प्रश्न
श्रीवैष्णव गुरूपरम्परा में श्री शठकोप स्वामीजी के बाद श्री नाथमुनी स्वामीजी आते हैं और बाद में श्री यामुनाचार्य स्वामीजी आते हैं। स्तोत्र-रत्न में श्री यामुनाचार्य स्वामीजी प्रथम थीं श्लोक श्री नाथमुनी स्वामीजी के लिए समर्पित करते हैं। पांचवा श्लोक श्री शठकोप स्वामीजी को समर्पित करते हैं। परंतु चौथा श्लोक श्री पराशर मुनी (श्री विष्णु पुराण के रचयिता) को समपरपित किया है – नमो मुनिवराय पराशराय.
इन श्लोकोंके क्रम पर कोई शंका कर सकता है। एक तो श्री यामुनाचार्य स्वामीजी ने सर्वा प्रथम श्री पराशर मुनी का एक संस्कृत वेदान्त के प्रतिनिधि आचार्य के रूप में गुणगान करना चाहिए और बाद में श्री नाथमुनी स्वामीजी (अपने आचार्य के रूप में) और बाद में श्री शठकोप स्वामीजी (गुरु परंपरा के मुख्य आचार्य के रूप में) गुणगान करना चाहिए। अथवा प्रथम श्री नाथमुनी स्वामीजी, फिर श्री शठकोप स्वामीजी और बाद में श्री पराशर मुनी का गुणगान करना चाहिए। श्री पराशर मुनी को श्री नाथमुनी स्वामीजी और श्री शठकोप स्वामीजी के बीच में बिराजमान करना अपरिचित लगता है। ऐसा किसी आचार्योंने अपने ग्रंथोंमें किया हुआ नहीं देखने में आता है।
ऐसा श्री यामुनाचार्य स्वामीजी ने क्यों किया?
सुंदर रहस्य
यह रहस्य द्रमिडोपनिषत के एक महत्त्वपूर्ण पहलू से समझा जा सकता है। श्री वेदान्त देशिक स्वामीजी कहते हैं:
अथ पराशरप्रबन्धादपि वेदान्तरहस्यवैशद्य-अतिशयहेतुभूतैः सद्य परमात्मनि चित्तरञ्जकतमैः सर्वोपजीव्यैः … नाथमुनेरप्युपकर्तारं … सर्वोपनिषत्सारोपदेष्टारं पराङ्कुशमुनिं “माता पिता भ्राता” इत्यादि उपनिषत्प्रसिद्ध-भगवत्स्वभाव-दृष्ट्या प्रणमति – मातेति |
श्री नाथमुनी स्वामीजी के बाद श्री शठकोप स्वामीजी की तनियन है इसका कारण यह की श्री शठकोप स्वामीजी से द्रमिडोपनित पाप्त हुआ। यह समझना सुलभ है। परंतु श्री शठकोप स्वामीजी को श्री पराशर मुनी के बाद भी क्यों? श्री वेदान्त देशिक स्वामीजी कहते हैं, “श्री शठकोप स्वामीजी ने वेदान्त के गूढ अर्थ श्री पराशर मुनी से भए बढ़िया दिये हैं। श्री शठकोप स्वामीजी के वचन भगवान को तत्काल प्रसन्न करते हैं और वे वचन सम्पूर्ण जगत का उज्जीवन करने में समर्थ हैं। श्री शठकोप स्वामीजी द्वारा दिये गए अनंत उपकार को याद करके श्री यामुनाचार्य स्वामीजी सोचते हैं की जीवोंपर अनंत उपकार करनेवाले श्री शठकोप स्वामीजी केवल भगवान से ही तुलना करने योग्य हैं। उपनिषदोंमें कहा है भगवान ही सबके माता है, पिता हैं, बंधु हैं, इत्यादी। इसे संदर्भ से श्री यामुनाचार्य स्वामीजी कहते हैं, श्री शठकोप स्वामीजी ही मेरे माता-पिता इत्यादि सब कुछ हैं, और उनके वकुल पुष्प से सुशोभित चरणोंमें शरणागति की – “वकुलाभिरामं श्रीमत्तदङ्घ्रियुगलं मूर्ध्ना प्रणमामि।”
हमारे पुर्वाचार्य भी कहते हैं की श्री शठकोप स्वामीजी भगवान का अंश ही हैं जो भगवान के श्री चरणकमल ही हैं। श्री यामुनाचार्य स्वामीजी भगवान का गुणगान (जो स्तोत्ररत्न का मुख्य विषय है) उनके चरण रूपी श्री शठकोप स्वामीजी की वंदना करके प्रारंभ करते हैं।
स्तोत्र रत्न के अनेक श्लोक आल्वारोंकी सीधी गाथाएँ ही हैं अथवा उनके विश्लेषण हैं। उनमें कुछ संदर्भ के लिए दिये हैं (यह सब एक-एक कालक्षेप के विषय हैं)
1. कः श्रीः श्रियः (१२) और श्रियः श्रियम् (४५): श्री परकाल स्वामीजी रचित तिरूवुक्कुन्तिरूवागीय चेल्वा.
2. निरासकस्यापि न तावदुत्सहे (२६): श्री कुलशेखर स्वामीजी रचित तरूतुयरण्तादायै उन चरणल्लाल चरणी ल्लै ,वैरैकुलुवुमलप्प्रीलील्चुल वित्तूवक्कोत्तम्मानै
3. गुणेन रूपेण विलासचेष्टितैः सदा तवैवोचितया तव श्रिया (३८): श्री शठकोप स्वामीजी रचित उनक्केकु्म कोलमलप्पार्वैक्कन्बा
4. निवास-शय्यासन (४०): श्री सरोयोगी स्वामीजी रचित चेनराल कूडैयाम.
5. धिगशुचिमविनीतम् (४७): श्री शठकोप स्वामीजी रचित वालवैलुलगु
6. वपुरादिषु (५२) and ममनाथ(५३): श्री शठकोप स्वामीजी रचित “एनधावि तन्तोलीन्तेन एनतावियार यानार तांत नल कोडाक्कीनैये
7. महात्मभिः (५६): श्री शठकोप स्वामीजी रचित -ओरूनाल कानावाराये नाम्मै योरूकाल काट्टी नडन्ताल नाड्गालुय्युमै एम्मावित्तुत्तिरामुम चेप्पम और भी सदृश गाथा
8. न देहं न प्राणान् (५७): श्री शठकोप स्वामीजी रचित एरालुमीरैयोन
यह सिद्ध हो जाता है की श्री यामुनाचार्य स्वामीजी ने अपने ग्रंथोंके निर्माण के लिए दिव्य प्रबंधोंका आधार लिया।
स्वाधयन्निह सर्वेषां त्रय्यन्तार्थं सुदुर्ग्रहं | स्तोत्रयामास योगीन्द्रस्तं वन्दे यामुनाह्वयम् ||
[मैं श्री यमुनाचार्य स्वामीजी को नमन करता हूँ, जो यतियोंमें श्रेष्ठ हैं, जिन्होने वेदोंके दुर्गम और गूढ अरठोंको अपने श्लोकोंसे सुलभ बना दिया।]
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/02/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-4-english/
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