श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी
हिंदी अनुवाद – शिल्पा रंदाद
गजेन्द्र मोक्ष
पिछले भाग में हमने यह देखा कि श्री रामानुज स्वामीजी द्वारा दिया हुआ अनुवाद आल्वार के पद पर ही आधारित हैं:
“मलुङ्गाद वैन नुदिया शक्करनल वलत्तैयाय
तालाङ्गादल कलिरलिप्पान, पुल्लूरन्दु तोन्रिनैये
मलुङ्गाद ञानमे पडैयाग मलर उलगिल
तोलुम्बायारक्कलित्ताल उन शुडर च्चोदि मरैयादे”
भगवान स्वयं आकार साधू परित्राणाय को सम्पादन करते हैं यह बताने के लिये आल्वार गजेन्द्र मोक्ष कि घटना
का दृष्टांत देते हैं। गजेन्द्र मोक्ष हम सब को अच्छी तरह मालूम हैं। इसे पुराणों में बताया जाता हैं। बहुत से
दिव्य देशों में इस वैभव को बड़े रूप से मनाया जाता हैं।
इस घटना का सारांश यह हैं कि हाथी जो भगवान विष्णु का भक्त था भगवान के पूजा हेतु कमल पुष्प लाने
के लिए वह तालाब में उतर गया। एक मगरमच्छ जो वहाँ इंतजार कर रहा था हाथी को पकड़ लिया। हाथी ने
उससे छुड़ाने कि बहुत कोशिश कि। यह अहसास होने के बाद कि उसकी कोशिश निष्फल हो गयी हैं हाथी ने
भगवान श्रीमन्नारायण को मदद के लिये पुकारा। भगवान तुरन्त अपने परमपद से गरुड पर सवार होकर आए।
तालाब के पास पहुँचकर मगरमच्छ का नाश करने के लिये उन्होंने अपना सुदर्शन चक्र उस पर चलाया।
भगवान ने उस हाथी के जख्म को ठीक किया और उस हाथी ने इक्कठा किया हुये उन कमल के पुष्पों को
स्वीकार किया।
विद्वानों को यह पूरी तरह खोज करना चाहिये कि भगवान का उस तालाब में उतरना कितना आवश्यक था।
वह यह कार्य किसी और भी तरिके से सम्पन्न कर सकते थे। हम कुछ तरिकों का विचार करते हैं जिससे उस
मगरमच्छ का नाश कर सकते थे और उस हाथी को बचाया जा सकता था।
१. श्रीकूरेश स्वामीजी ने श्री वैकुण्ठस्तवं यह देखा कि भगवान केवल अपने संकल्प से हीं इस संसार को बना सकते हैं, बचा सकते हैं और नष्ट कर सकते हैं। ”विश्वं धियैव विरकय्या निकाय्या भूयः संजहरुसह।” तब भगवान को गजेंद्र आचार्य कि रक्षा केवल अपने इच्छा से करना सम्भव था। उन्होंने संकल्प लिया था –“गजेन्द्र परित्रातों भवतु” (गजेंद्र कि रक्षा हो) यह काम भी करता और आगे बेवजह बचाने का काम भी बच जाता।
२. एक और भी तरिका हैं जिससे गजेंद्र को बचाया जा सकता था। जैसे कि आल्वार कहते हैं, “ करुधुमिदं पोरुधु कै निंद्रा कक्करत्थन”, श्री सुदर्शन को एक आज्ञा देना हीं काफि था। श्री सुदर्शनजी आसानी से उस मगरमच्छ का नाश कर उस हाथी कि रक्षा कर सकते थे। श्री विष्णुचित्त स्वामीजी यह लिखते हैं कि, “किझुलगिल असुरर्गलाइक किझंगिरुंधु किलरामे अझिविदुत्तु अवरुदैया करुवझित्तझिप्पान”। भगवान ने श्री सुदर्शनजी को पाताल लोक तक निर्देश दिया जहां उन्होंने राक्षसों को उनके जड़ से हीं नष्ट कर दिया। और इस स्थिती में भी भगवान तालाब के पास आकार सुदर्शन चक्र को चलाया। यह कार्य तो भगवान परमपद में रहकर भी कर सकते थे। कुछ भक्तजन जिन्होंने भगवान नंपेरुमल के उत्सवों का दर्शन किया हैं उन्होंने उनके अलग अलग तरह के अभिषेक को देखा हैं। वह यह सोच सकते हैं की अलग–अलग शब्द भगवान के अलग-अलग किरिट धारण करने जैसा हैं।
उपर बातायी गयी दोनों स्थिती को इस तरह जोड़कर देखा जा सकता कि सुदर्शनजी सच में भगवान के इच्छा
अनुसार रक्षक है।
“वाणी पौराणिक यम कथायति माहितं प्रेक्षनं कैटभारेहः”
सुदर्शन सटकम कहता हैं, पुराण कि आवाज यह घोषित करता हैं कि श्री सुदर्शन भगवान के इच्छा के सबसे बड़े रक्षक हैं
उपर लिखी बहस यह सुझाव देता हैं कि गजेंद्र रक्षमं और मगर संहार दोनों भगवान के स्वयं मौजूद नहीं रहते हुए भी हो सकते थे। आल्वार स्वयं यह दोनों विकल्प देते हैं।
”मलुङ्गाद वैन नुदिया शक्करनल वलत्तैयाय”
यह समझाता हैं कि भगवान परमपद में विराजमान होकर भी यह कार्य कर सकते थे।
“मलुङ्गाद ञानमे पडैयाग मलर उलगिल”
यह समझाता हैं कि केवल भगवान कि इच्छा हीं काफि हैं गजेंद्र को बचाने के लिये। यह विकल्प सहज होने के बावजूद भगवान स्वयं पधारते हैं।
भगवान स्वयं पधारने का कारण आल्वार स्वयं अपने पंक्तियों में कहते हैं
“तालाङ्गादल कलिरलिप्पान, पुल्लूरन्दु तोन्रिनैये”
भगवान के कृपापात्र मायर्वरा मथिनलम का धन्यवाद। यह न केवल हाथी को मगरमच्छ से बचाने के लिये भगवान इस धरती पर आये। गजेंद्र आचार्य स्वयं यह अवलोकन करते हैं
“नाहं कलेवरस्यास्य त्रानार्थम मधुसूदन!
करस्था कमलान्येवा पादयोर-अर्पितुम तवा”।
मधुसूदन! मैंने तुम्हें इस शरीर कि रक्षा के लिये नहीं पुकारा। मैंने तुम्हें यह कमल पुष्प अर्पण करने हेतु पुकारा जो मेरे सूंड में मैंने पकड़ा हैं। गजेंद्र आचार्य के इस इरादे को जानकर भगवान ने यह निर्णय किया कि उसकी रक्षा परमपद में रहकर नहीं करेंगे बल्कि स्वयं आकर करेंगे।
”तालाङ्गादल” शब्द का प्रयोग कलिरू से पहिले इस्तेमाल गजेंद्र के भक्ति भाव को दर्शाता हैं। यह वह व्यक्ति
है ”तालाङ्गादल”; के साथ जिन्हें गीताजी में साधु कहते हैं। साधु परित्राणं केवल पापीयों का नाश और भक्तों कि
रक्षा करना नहीं हैं। यह इससे भी आगे हैं। भगवान अपने भक्तों के साथ मिल जुलते हैं, उनकी भेंट को
स्वीकार करते हैं और उनकी संगत को पसंद करते हैं। भगवान का उनके भक्तों के प्रति प्रेम और भक्तों का
भगवान के प्रति प्रेम भगवान को उन्हे स्वयं प्रगट दर्शन देने के लिये विवश कर देता हैं। क्योंकि साधु तो ऊंचे
भक्त हैं वह तो उनकी रुचि हैं कि उनके देह कि रक्षा हो। उनके सत्य गुण को जानना और भगवान कि सेवा
में लगे रहना, वें तो भगवान के अनुभव से हीं रमते हैं। यहीं वह वर्णनात्मक अनुभव हैं जो परित्राणाय साधूनां
के लिये मुख्य हैं और जो केवल स्वयं प्रगट होने पर हीं किया जा सकता हैं। इसीलिए भगवान कहते हैं
“परित्राणाय साधूनां विनाशाया च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थय सम्भवामि युगे युगे”।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/11/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-13-english/
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