अन्तिमोपाय निष्ठा – १३ – आचार्य अपचार।

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

अन्तिमोपाय निष्ठा

<< आचार्य भगवान् के अवतार हैं

पिछले लेख (अन्तिमोपाय निष्ठा – १२ – आचार्य भगवान् के अवतार हैं।) में हमने देखा कि आचर्य भगवान के अवतार होते हैं और उन्हें केवल ऐसा ही माना जाना चाहिए। लेख के इस भाग में, आचर्य को नश्वर / मर्त्य मानव मानने के दुष्परिणामों पर हम प्रकाश डालेंगे।

एम्पेरुमानार् – आळवान्, कूरम् (आळवान् का अवतार स्थल) – आदर्श आचार्य और शिष्य।

पराशर महर्षि  ने इन शब्दों से हमपर आशीर्वाद बरसाया:

अर्थ पन्चक तत्वग्याः पन्चसम्स्कारसम्स्क्रुताः
आकारत्रय सम्पन्नाः महाभगवतास्स्म्रुताः
महाभागवता यत्रावसन्ति विमलास्सुभाः
तद्देसम् मंगळम् प्रोक्तम् तत्तीर्त्तम् तत्तु पावनम्
यता विश्णुपदम् शुभम्

सरल अनुवाद: व्यक्ति को पञ्चसंस्कार करवाना चाहिए और आचार्य से अर्थ पंचकम् सीखना चाहिए।आचार्य के ३ गुणों (अनन्यार्हत्वम्, अनन्य शेशत्वम्, अनन्य भोग्यत्वम्) का बोध कराते हुए व्यक्ति को पावन भागवत का ध्यान करना चाहिए। पूरी तरह से शुद्ध होने के लिए महा भागवत के करीब रहना चाहिए।ऐसा कहा जाता है कि, वह स्थान सबसे पवित्र होता है और आस-पास का पानी (स्रोत) पूरी तरह से शुद्ध होता है (हमें शुद्ध करने के लिए)। और यही श्रीमन नारायण का शुभ निवास है।

यही सिद्धांत बहुत स्पष्ट रूप से पिळ्ळै लोकाचार्य द्वारा श्रीवचन भूशण सूत्र ४५० में स्पष्ट किया गया हैः

पाट्टुक् केट्कुमिडमुम्, कूप्पीडु केट्कुमिडमुम्, गुतित्तविडमुम्, वळैत्तविडमुम्, ऊट्टुमिडमुम् एल्लाम्वगुत्तविडमे एन्ऱिरुककडवन्. 

सरल अनुवाद: एक शिष्य को एम्पेरुमान के सभी ५ अलगअलग रूपों को अपना आचार्य (सबसे उपयुक्तशरण) मानना चाहिए। पाँच रूपों और उनकी प्रकृति को क्रम से समझाया गया है

  • जब वे आनंदपूर्वक दिव्य संगीत (साम गान) सुनते हैं – परमपद
  • जब वे देवताओं की शिकायतों को सुनते हैं – व्यूहं
  • जब वे बचाव कार्यों के लिए संसार में कूदते हैं – विभवम
  • जब उन्होंने अपनी उपस्थिति से हर एक को घेर लिया था – अर्चावथार्
  • जब वे घर में रहने वाले परमात्मा बनकर भोजन / पोषण करते हैं – अंतर्यामि

इस प्रकार, एक शिष्य को अपने आचार्य को परमपद और संसार, दोनों का स्वामी मानना चाहिए और यह भी विचार करना चाहिए कि आचार्य दोनों दुनिया में प्राप्त होने वाली सबसे बड़ी संपत्ति है।

आचार्य निष्ठा (जैसे अमुदनार (रंगनाथ गुरु)) हमेशा इस प्रकार विचार कर रहे थेः

  • रामानुज नुट्रन्दादि २० – इरामानुसन् एन्तन् मानिदिये – श्री रामानुज मेरे अटूट धन हैं।
  • रामानुज नुट्रन्दादि २२ – इरामानुसन् एन्तन् सेमवैप्पे – श्री रामानुज मेरे ऐसे धन हैं, जो आपत्तियों के दौरान मेरी मदद करेंगे।
  • रामानुज नुट्रन्दादि ५ – एनक्कुऱ्ऱ सेल्वम् इरामानुसन् – श्री रामानुज मेरी वास्तविक प्रकृति के लिए सबसे उपयुक्त धन हैं।

जैसे कि इसमें कहा गया है “साक्शान् नारायणो देवः क्रुत्वामर्त्यमयीम् तनुम्” हमें यह समझना चाहिए कि भगवान ने हमारी उत्थान और उन्नति के लिए एक मानवीय रूप स्वीकार किया। यह देखकर कि वे भी खा रहे हैं, सो रहे हैं, इसी प्रकार आचार्य को हमारे जैसे मनुष्यों के रूप में मानना, जैसा कि “मानिडवनेन्नुम् गुरुवै” में कहा गया है “ग्यानदीपप्रदे गुरौ मर्त्यबुद्दि स्रुतम् तस्य” “यो गुरौ मानुशम् भावम्”, “गुरुशु नरमतिः” घोर निंदा की बात है। आगे आनेवाले खंडों में एक बार फिरसे आचार्य को नश्वर मानने के दुष्परिणाम हम देखेंगे।

विश्णूरर्च्चावतारेशू लोहभावम् करोतियः
यो गुरौ मानुशम् भावम् उबौ नरकपातिनौ

सरल अनुवादः धातु (कच्चे माल) के आधार पर विष्णु के दिव्य अर्चै रूप का मूल्यांकन करनेवाले और स्वयं के आचार्य को मात्र मानव माननेवाले मनुष्य नारकिक ग्रहों में जायेंगे।

नारायणोपि विक्रुतिम् याति गुरोः प्रच्युतस्य दुर्बुद्देः
जलात भेतम् कमलम् सोशयति रविर्न पोशयति

सरल अनुवादः जैसे सूर्य, जो कमल का पोषण करता है, वहि सुर्य कमल के पानी से बाहर निकालने पर उसे जला देता है, उसी तरह जो लोग अपने गुरु से लगाव छोड़ देते हैं, श्रीमान नारायणन (जो हर किसी की मदद करते हैं) खुद उनके दुखों को जन्म देंगें।

एकाक्शर प्रदारम् आचार्यम् योवमन्यते
स्वानयोनिसतम् प्राप्य चण्डालेश्वपि जायते

सरल अनुवादः जो अपने आचार्य, जिन्होनें उसे ज्ञान का आशीर्वाद दिया, उन्हीं की उपेक्षा करता है, वह १०० बार चांडाल (कुत्ता-भक्षक) के रूप में जन्म लेगा।

गुरुत्यागी भवेन्म्रुत्युः मन्त्रत्यागी दरित्रदा
गुरुमन्त्रपरित्यागी रौरवम् नरकम् व्रजेत्

सरल अनुवादः जो अपने गुरु को त्याग देता है, वह शव के समान होता है; जो अपने  गुरु से सीखे हुए मंत्र त्याग देता है, वह दरिद्र होता है। जो गुरु और मंत्र दोनों को त्याग देता है, वह अवश्य रौरवम नरक पहुँचेगा।

ग्यान सारम् ३०

माडुम् मनैयुम् मऱै मुनिवर्
तेडुम् उयर् वीडुम् सेन्नेऱियुम् – पीडुडैय
एट्टेयुत्तुम् तन्दवने एन्ऱिरादार् उऱवै
विट्टिडुगै कण्डीर् विदि

(अनुरूप सम्स्क्रित प्रमान् मामुनिगळ् द्वारा पहचाना गया है)

ऐहिकम् आमुश्मिकम् सर्वम् गुरुर् अश्टाक्शर प्रदः
इत्येवम् ये न मन्यन्ते त्यक्तव्यास्ते मनीशिपिः

सरल अनुवादः ऐसे व्यक्तियों के साथ संबंध छोड़ देना चाहिए जो अपने धन, भूमि, मोक्ष और धर्म आदि को अपना आचार्य ( जिन्होंने अष्टाक्षर महामंत्र का निर्देश दिया) नहीं मानते हैं।

ग्यान सारम् ३२

मानिडवन् एन्ऱुम् गुरुवै मलर् मगळ् कोन्
तान् उगन्द कोलम् उलोगम् एन्ऱुम् – ईनमदा
एण्णुगिन्ऱ नीसर् इरुवरुमे एक्कालुम्
नण्णिडुवर् कीळाम् नरगु

सरल अनुवादः जो व्यक्ति आचार्य को मात्र नश्वर मानव मानता है, दिव्य अर्चाय के रूप जिसे श्री महालक्ष्मी के पति द्वारा अभिलषित है, जो व्यक्ति उसे केवल धातु मानता है – दोनों ही निम्नतम नारकीय क्षेत्रों के लिए नियुक्त हो जाते हैं।

ग्रामनिवासास्सन् यस्सिश्यो नार्च्चयेत् गुरुम्
तत् प्रसादम् विना कुर्यात् स वै विड्सूकरो भवेत्

सरल अनुवादः जो शिष्य एक ही गाँव में रहते हुए भी अपने आचार्य की पूजा नहीं करता है और आचार्य से प्रसाद प्राप्त किए बिना गतिविधियों में संलग्न है, वह वास्तव में एक जानवर है।

ग्यान सारम् ३३

एट्ट इरुन्द गुरुवै इवै अन्ऱेन्ऱु
विट्टोर् परनै विरुप्पुऱुदल् – पोट्टनेत्तन्
कण् सेम्पळित्तिरुन्दु कैत्तुरुत्ति नीर् तूवि
अम्पुतत्तैप् पार्त्तिरुप्पानऱ्ऱु

सरल अनुवादः जो मनुष्य गुरु, जो आसानी से उपलब्ध हैं,उन्हें त्यागकर सीधे भगवान के पास जाता है, वह प्यासे व्यक्ति की तरह होता है जो अपने हाथ में भरे पानी को गिराकर, ऊपर आसमान की ओर देखकर बारिश की प्रतीक्षा करता है।

ग्यान सारम् ३४

पऱ्ऱु गुरुवैप् परन् अन्ऱेन इगज़्ह्न्दु
मऱ्ऱोर् परनै वळिप्पडुदल् – एऱ्ऱे तन्
कैप्पोरुळ् विट्टारेनुम् आसिनियिल् ताम् पुदैत्त
अप्पोरुळ् तेडित् तिरिवानऱ्ऱु

सरल अनुवादः आचार्य (जो हमारे लिए आसानी से उपलब्ध हैं), को स्वयं भगवतवताराम (भगवान का अवतार) के रूप में स्वीकार करने के बजाय सीधे भगवान की पूजा करना इस प्रकार होगा जैसे, अपने हिस्से के धन को छोड़कर जमीन के नीचे किसी और के द्वारा दफनाए गए खजाने को खोजना।

ग्यान सारम् ३५

एन्ऱुम् अनैत्तुयिर्क्कुम् ईरम् सेय् नारणनुम्
अन्ऱुम् तन् आरियन् पाल् अन्बोज़्हियिल् – निन्ऱ
पुनल् पिरिन्द पन्गयत्तैप् पोन्गु सुडर् वेय्योन्
अनल् उमिळ्न्दु तान् उलर्त्तियऱ्ऱु

सरल अनुवादः भगवान, जो सभी के प्रति दयालु और अनुकूल हैं, वे स्वयं उन जीवात्माओं को छोड़ देंगे जब जीवात्मा अपने आचार्य के प्रति प्रेम/लगाव नहीं दिखाऐंगे। जिस तरह सूर्य कमल के फूल को पोषण देता है मगर  कमल के पानी से संबंध छोड़ते ही, वही सूर्य उसे सुखा देता है।

प्रमेय सारम् ९

तत्तम् इऱैयिन् वडिवेन्ऱु ताळिणैयै
वैत्तवरै वणन्गियिरा – पित्तराय्
निन्दिप्पार्क्कु उण्डेऱा नीणिरयम् नीदियाल्
वन्दिप्पार्क्कु उण्डिळियावान्

सरल अनुवादः आचार्य वह है जो हमें भगवान के चरण कमलों का आशीर्वाद देते हैं। जो लोग ऐसे आचार्य को स्वयं भगवान के रूप में पूजते हैं, वे निश्चित रूप से परमपद में गौरवशाली जीवन प्राप्त करेंगे। अन्य जो अपने आचार्य को स्वीकार और पूजा नहीं करते हैं वे इस दुनिया में हमेशा के लिए पीड़ित रहेंगें।

उपदेस रतिन मालै ६०

तन् गुरुविन् ताळिणैगळ् तन्निल् अन्बु ओन्ऱिल्लादार्
अन्बु तन् पाल् सेय्दालुम्
अम्बुयैकोन् इन्ब मिगु विण्णाडु तान् अळिक्क वेन्डियिरान् आदलाल्
नण्णार् अवर्गळ् तिरुनाडु

सरल अनुवादः जो लोग अपने आचार्य के चरण कमलों की सेवा नहीं करते हैं, भले ही वे एम्पेरुमान के प्रति बहुत लगाव दिखाएँ, श्रीमन्नारायण उन्हें परमपद में आनंदमय जीवन का आशीर्वाद नहीं देंगे। इसलिए वे परमपद तक नहीं पहुंच पाएँगे।

प्रतिहन्ता गुरोरपस्मारि वाक्येन वाक्यस्य प्रतिगातम् आचार्यस्य वर्जयेत्

सरल अनुवादः जो अपने आचार्य से दूर रहते हैं,  वे बहिष्कृत होने के पात्र बन जाते हैं।

ब्रह्माण्ड पुराणम्

अर्चाविश्णौ सिलादीर् गुरुशू नरमतिर् वैश्णवे जाति बुद्दिर्
विश्णोवा वैश्णवानाम् कलिमलमत नेपाद तीर्त्ते अम्बु बुद्दिः
सिद्दे तन्नाम मन्दिरे सकल कलुशहे सप्द सामान्य बुद्दिः
स्रीसे सर्वेस्वरे चेत् ततितर (सुरजन) समतीर् यस्यवा नारकि सः

सरल अनुवादः विष्णु के अर्चा रूप को केवल एक मूर्ति मानना; गुरु को नश्वर मानव मानना; वैष्णव के जन्म का विश्लेषण करना; विष्णु और वैष्णवों के श्रीपाद तीर्थ (जल), जो कलयुग के सभी बीमारियों को मिटा सकता है, उसे सिर्फ सादा पानी मानना; जो शब्द विष्णु और वैष्णवों के नामों को, मंदिरों, आदि को गौरवित करते हैं, उन्हें सामान्य शब्दों के रूप में देखना और अन्य देवताओं की बराबरी श्रीमन्नारायण से करना निश्चित रूप से उन्हें नारकीय क्षेत्रों में ही ले जाऐगा।

निम्नलिखित पहलूओं द्वारा गुरु का अपमान हो सकता है:

  • गुरु द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन न करना।
  • जो योग्य नहीं हैं उन्हें यह बहुमूल्य जानकारी देना ।
  • आचार्य के संगत को त्याग देना – जैसा कि श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र 439 में कहा गया है “तामरैयै अलर्त्तक्कडव आदित्यन् ताने नीरैप् पिरिन्ताल् अत्तै उलर्त्तुमापोले, स्वरूप विकासत्तैप् पण्णुम् ईस्वरन् ताने आचार्य सम्बन्दम् कुलैन्ताल् अत्तै वाडप् पण्णुम्” जैसे सूर्य जो कमल को पोषण देता है, वही फूल जब जल से अलग हो जाता है, तो सूर्य स्वयं उसे झला देता है, ठीक उसी तरह, जीवात्मा के ज्ञान का पोषण करने वाले भगवान उस ज्ञान को घटा देंगे जब जीवात्मा आचार्य की संगति को त्याग देगा।
  • “गुरोरपह्नुतात् त्यागात् अस्मरणादापि; लोबामोहादिपिस्चान्यैर् अपचारैर् विनस्यति”, जो अपने आचार्य का परित्याग करता है, उनसे दूर रहता है और उनके बारे में नहीं सोचता है, वह लोभ और मोह से उत्पन्न पापों से नष्ट हो जाता है।
  • “गुरोरन्रुताबिसम्सनम् पादकसमानम् कलु गुर्वर्त्ते सप्तपुरुशान् इतस्च परतस्च हन्ति; मनसापि गुरोर्नान्रुतम् वदेत्; अल्पेश्वप्यर्त्तेशु”, किसी आचार्य के पास झूठे मन से जाना, उन्हें चोट पहुँचाने के समान होता है। आचार्य की संपत्ति को चुराने से, उस व्यक्ति की, पहले और बाद की सात पीढ़ियां नष्ट हो जाएंगी। अतः मन में भी अपने आचार्य के प्रति कभी पाखंडी मत बनिए। उनके संपत्ति का एक छोटा सा हिस्सा भी चोरी न कीजिए।
  • उनसे झूठ बोलना, उनके साथ बहस करना, वह बोलना जो उसके द्वारा नहीं सिखाया गया है, उनके बारे में शिकायत करना जब वे दयापूर्वक निर्देश दे रहा हैं, उनकी महिमा करने से परहेज़ करना, उन पर कठोर शब्दों का प्रयोग करना, उनसे जबरदस्ती बोलना, उनके निर्देशों को अस्वीकार करना, उनके सामने झूठ बोलना, उनसे ऊंचे मंच पर खडा होना, उनके सामने पैर फैलाना/दिखाना, उनके कार्यों में बाधा डालना, अंजलि करके उनकी पूजा करने में झिझक/शर्म महसूस करना, चलते समय उनके रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर न करना,  उनके मन को समझे बगैर उनसे ठोक से न बोलना, कायिल वैयक्किदुथल – उनके साथ परोक्ष रूप से व्यवहार करना, उनके सामने कांपना, उनकी छाया पर कदम रखना, अपनी छाया को आचार्य पर पड़ने देना – इन कृत्यों को एक आचार्य के सामने छोड़ देना चाहिए।

यस्य साक्शात् भगवति ग्यानदीपप्रदे गुरौ
मर्त्य बुद्दि स्रुतम् तस्य सर्वम् कुन्जरसौचवत्

सरल अनुवादः चूंकि आचार्य ने ज्ञान की मशाल से शिष्य को प्रबुद्ध किया है, उन्हें स्वयं भगवान मानना चाहिए। जो लोग गुरु को नश्वर मानव मानते हैं, उनके लिए शास्त्र से प्राप्त ज्ञान हाथी के स्नान करने के समान होता है (वह केवल गंदगी को उठाकर अपने सिर पर बरसाता है)।

सुलभम् स्वगुरुम् त्यक्त्वा दुर्लभम् य उपासते
लब्दम् त्यक्त्वा दनम् मूडो गुप्तमन्वेशति क्शितौ

सरल अनुवादः जो आसानी से उपलब्ध आचार्य को छोड़कर, कठिन उपासनों का अभ्यास करता है, वह उस मूर्ख की तरह होता है जो पहले से उपलब्ध धन को फेंककर, खजाने की खोज में धरती खोदता है।

चक्शुर् गम्यम् गुरुम् त्यक्त्वा सास्त्र गम्यम् तु यस्स्मरेत्
हस्तस्तम् उदगम् त्यक्त्वा गनस्तमबिवान्चति

सरल अनुवादः जो पास में उपलब्ध गुरु को छोड़कर भगवान के पास जाता है, वह प्यासे व्यक्ति की तरह होता है जो हाथ में भरे पानी को गिराकर, आकाश की ओर देखकर बारिश की अपेक्षा करता है।

गुरुम् त्वन्ग्क्रुत्य हून्ग्क्रुत्य विप्रम् निर्जित्य वादतः
अरण्ये निर्जले देसे भवन्ति ब्रह्मराक्शसाः

सरल अनुवादः जो लोग अपने आचार्य के लिए अनुचित भाषा का उपयोग करते हैं या उन्हें वश में करने के लिए संबोधित करते हैं, वे बिना पानी के जंगल में ब्रह्मराक्षस बन जाते हैं।

इस प्रकार, उपरोक्त प्रमाणों के द्वारा, आचार्य अपाचारम  को पूरी तरह से समझाया गया है।

अनुवादक की टिप्पणीः इस प्रकार, हमने आचार्य अपाचराम  करने के दुष्परिणाम देखे। अगले भाग में हम भागवत अपचार के और अधिक प्रणम देखेंगे।

कुछ संस्कृत प्रमाणों के अनुवाद में मदद करने के लिए श्री रंगनाथन स्वामीजी को धन्यवाद।

जारी रहेगा…

पूरी शृंखला यहाँ देखी जा सकती है – https://granthams.koyil.org/anthimopaya-nishtai-hindi/

अडियेन् भरद्वाज रामानुज दासन्

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/06/anthimopaya-nishtai-13/

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