प्रपन्नामृत – अध्याय ६५

🌷श्री यतिराज के द्वारा ७४ वाक्यों का उपदेश🌷

🔹परम ऐश्वर्य सम्पन्न श्रीरामानुजाचार्य के भूमण्डल में रहते हुये १२० वर्ष होगये।

🔹उन्होने जीवनके ६० वर्ष श्रीरंगम में व्यतीत किये।

🔹अब यतिराज ने वैकुण्ठ जाने का निश्चय किया और यह निश्चय भगवान को निवेदन किया।

🔹भगवान ने अनुमति प्रदान की और वर माँगनेको कहा।

🔹रामानुजाचार्य बोले, “मेरे शरणागत के सम्बन्धी के सम्बन्धी की चरमविधि की परम्परा में आनेवाले सभी को मोक्ष मिले।

🔹भगवान नो उनकी प्रार्थना स्वीकार की।

🔹फिर यतिराज ने वैकुण्ठ को प्रस्थान करनेसे पहले अपने शिष्योंको ७४ वाक्योंका उपदेश दिया।

1. अपने आचार्य एवं अन्य श्रीवैष्णव भागवत दोनोंका कैंकर्य समान भाव से करना चाहिये।

2. पुर्वाचार्योंके ग्रंथोंमें विश्वास रखना चाहिये।

3.इन्द्रियोंका दास बनकर नही रहना चाहिये।

4.सामान्य शास्त्रोंमें आग्रह बुद्धि नही रखनी चाहिये।

5.भगवद्विषयक शास्त्रोंमें ही रुचि रखनी चाहिये।

6.आचार्य कृपा से यदि ज्ञान सागर हृदयमें लहरा उठे तो भूलकर भी शब्दादि विषयोंका दास नहीं बनना चाहिये।

7.शब्दादि विषयोंको सामान्य दृष्टि से ही देखना चाहिये।

8.पुष्प चन्दन पान आदि में वासना बुद्धि नही रखनी चाहिये।

9.भगवन्नाम संकीर्तन के समान ही भागवत नाम संकीर्तन भी करना चाहिये, यह सोचकर की भागवतोंके आश्रयण से ही भगवान की प्राप्ति होती है।

10.भागवतोंके आदेश का पूर्णत: पालन करना चाहिये।

11.रागादि से प्रेरित होकर यदि अज्ञ मनुष्य भगवान का और भागवतोंका कैंकर्य छोडेंगे तो वे विषयोंमें आसक्त होकर नष्ट होजायेंगे।

12.श्रीवैष्णव स्वरुप अनुष्ठान भगवत्प्राप्ति का उपाय न मानकर उपेय रुप समझना।

13.महाभागवतोंको एकवचन से नहीं बुलाना चाहिये।

14.श्रीवैष्णवोंको देखतेही हाथ जोडकर प्रणाम करें।

15.भगवान की एवं श्रीवैष्णवोंकी सन्निधी में पैर फैलाकर न बैठे।

16.भगवान, श्रीवैष्णव और गुरुदेव के स्थान की तरफ पैर फैलाकर न सोवें।

17.प्रात:काल जागकर गुरुपरम्परा का अनुसन्धान करें।

18.भगवत् सन्निधी में बैठे हुये भागवतोंको देखें तब “समस्त परिवार विशिष्टाय श्रीमते नारायणाय नम:” कहकर साष्टांग करें।

19.भगवत् भागवतोंका गुणानुवाद करते हुये श्रीवैष्णवोंकी यथाशक्ति पूजा किये बिना और प्रणाम किये बिना चले जाना महान अपचार है।

20.श्रीवैष्णवोंका आगमन सुनकर सन्मुख आगे बढ़कर स्वागत करना और जाते समय कुछ दूर साथ चलकर बहुमानपूर्वक विदा करना चाहिये, ऐसा न करनेसे अपचार होता है।

21. आत्मा के उज्जीवन के लिये अपने को श्रीवैष्णवोंका शेषभूत मानकर श्रद्धापुर्वक श्रीवैष्णव महात्माओंकी आज्ञा का अनुसरण करते हुये शरीर पोषण कीजिये और लोगोंके घर-घर भटकना और अपने नियमोंको छोड़ना यह ही अनाचार है और श्रीवैष्णव स्वरूप के लिये हानिकारक है।

22.भगवान के मन्दिरों, गोपुरों एवं विमानोंको देखकर हाथ जोड़ें तथा अन्य देवताओं के विमान को देखकर आश्चर्य न करें।

23.देवतान्तर की महिमा सुनकर विस्मय न करें।

24.भगवत् भागवत् महिमा वर्णन करते हुये पुण्य पुरुषोंको देखकर आनन्दित होना चाहिये।

25.किसी श्रीवैष्णव की छाया का उल्लंघन न करें।

26.अपने देह की छाया भी श्रीवैष्णवों पर न पड़ने दें।

27.इतर लोगोंका स्पर्श करनेके बाद श्रीवैष्णवोंका स्पर्श न करें।

28.दरिद्र श्रीवैष्णव के अभिवादन का प्रत्युत्तर न देना भागवत अपचार है।

29.”मैं दास हूँ” ऐसा कहकर प्रणाम करनेवाले श्रीवैष्णव का आदर करना चाहिये। अनादर करना महान अपचार है।

30.श्रीवैष्णवोंके जन्म, कुल और आलस्यादि का निरूपण नहीं करना चाहिये।

31.श्रीवैष्णवोंके दोषोंको देखे बिना गुणों की ही चर्चा करनी चाहिये।

32. सामान्य जनोंके सन्मुख भगवान का तीर्थ और भागवतोंका श्रीपादतीर्थ नही लेना चाहिये।

33. तत्वत्रय और रहस्यत्रय को नहीं जाननेवालों का तीर्थ नहीं लेना चाहिये।

34. ज्ञानी एवं सदाचारी श्रीवैष्णव का श्रीपादतीर्थ प्रयत्नपूर्वक लेना चाहिये।

35. भागवतों और मुझ (यतिराज) में समबुद्धि नही रखनी चाहिये।

36.यदि भूलसे भी प्राकृत लोगोंका स्पर्श होजाय तो वस्त्रोंसहित स्नान करके श्रीवैष्णवोंका श्रीपादतीर्थ लेना चाहिये।

37.भक्ति, ज्ञान, वैराग्य सम्पन्न महात्माओं को नित्य सूरी के समान मानकर उनमें विश्वास करना चाहिये।

38.ज्ञान, भक्ति, वैराग्य सम्पन्न श्रीवैष्णव महात्माओं मे प्रेम बढाना चाहिये।

39.प्राकृत लोगोंके घरपर भगवान का तीर्थ नही लेना चाहिये।

40.प्राकृत लोगोंके घरमें स्थित भगवान के विग्रह की सेवा नही करनी चाहिये।

41.भगवान के दिव्य देशोंमें साधारण जन के देखनेपर भी तीर्थ प्रसाद ग्रहण करो क्यों की दिव्य देशोंमें दृष्टि दोष नहीं माना जाता।

42.”दास ने आज एकादशी व्रत किया है” ऐसा कहकर भगवान की सन्निधीमें भागवतोंके द्वारा दिये गये गोष्ठीप्रसाद का त्याग नही करना चाहिये।

43.समस्त पापोंको नष्ट करनेवाले भगवत् प्रसाद में कभी भी उच्छिष्ट भावना नही करनी चाहिये।

44.कभी भी श्रीवैष्णव के सामने अपनी प्रशंसा न करें। नित्य नैच्यानुसंधान रत रहें।

45.श्रीवैष्णवोंकी सन्निधी में किसी का तिरस्कार न करें।

46.श्रीवैष्णव महात्माओं के गुणोंका अनुभव तथा उनकी सेवा क्षणभर भी किये बिना कोई कार्य न करें।

47.दिनमें एक घडी भी अपने आचार्य के गुणोंका अनुसंधान करना चाहिये।

48.दिनभर में एक घडी भी दिव्यसूरियोंके प्रबंधोंका अनुसंधान करना चाहिये।

49.प्रतिदिन कम-से-कम एक घडी अपने आचार्य देव के गुणोंका अनुसंधान करना चाहिये।

50.देहाभिमानी जनोंका संग न करें।

51.शंख चक्रांकित होनेपर भी विषयातुर एवं लम्पट व्यक्तियोंका संग कदापि न करें।

52.पर छिद्रान्वेषी जनों से वार्तालाप न करें।

53.संयोगवश देवतान्तरों के भक्तोंका संग होजाय तो उस दोष निवृत्ति के लिये महाभाग्यशाली श्रीवैष्णवोंका संग करें।

54.भगवान के भक्तोंके निन्दक जनोंको कभी भी न देखें।

55. आचार्य द्वेषी लोगोंको भी कभी नहीं देखना चाहिये।

56.द्वयमंत्र में निष्ठा वाले पुरुषोंका सहवास करें।

57.उपायान्तरमें जिसकी निष्ठा हो ऐसे व्यक्तियोंका संग त्यागना चाहिये।

58.प्रपत्तिमें जिसकी निष्ठा हो उनका सहवास करना चाहिये।

59.रहस्यत्रय एवं तत्वत्रय के मर्मज्ञ महाभागवतों का सदा संग करें।

60.अर्थ और काम में तत्पर रहनेवालोंके साथ कभी भी न रहना चाहिये। भगवान की भक्तिमें श्रद्धा रखनेवालोंके साथ रहना चाहिये।

61.यदि किसी श्रीवैष्णव के द्वारा आपका तिरस्कार भी हो जाय तो बुरा न मानकर मौन रहना चाहिये और उसे याद न रखना चाहिये।

62.श्रीवैष्णवोंकी ईच्छा परमपदमें प्रगट हुई थी, यह जानकर श्रीवैष्णवोंकी निरन्तर भलाई करें।

63.धर्म विरुद्ध महाफल देनेवाले कर्म को भी बुद्धिमान न करें क्योंकि वह अहितकर होता है।

64.भगवान को समर्पित किये बिना अन्न ग्रहण नही करना चाहिये।

65.उपायान्तरसे बिना माँगे मिलनेवाली कोई भी वस्तु स्वीकार न करें।

66.पुष्प, चन्दन, पान, फल, वस्त्र, जल आदि भी भगवान को समर्पित किये बिना ग्रहण न करें।

67.जातिदुष्ट, निमित्तदुष्ट और आश्रयदुष्ट अन्न भगवान को समर्पित न करें।
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68.अपनी रुचि के लिये अपने को प्रिय पदार्थ परमात्मा को भोग न लगावें। शास्त्रानुसार सभी पदार्थों का भगवान को भोग लगावें।

69.भगवान के समर्पित अन्न, जल, फल आदि में सदा प्रसाद बुद्धि रखनी चाहिये, भोग बुद्धि कभी न रखें।

70.भागवतापचार अपना नाश एवं भागवतमुखोल्लास ही अपनी उन्नति है।

71.मन्त्रत्रय (मूल, द्वय, चरम) इन तीनों मन्त्रार्थ में पूर्ण निष्ठा रखनेवाले महाभागवतोंके शास्त्रीय कर्मोंको कैंकर्य बुद्धि से सम्पन्न करें।

72.भागवतोंकी पूजा से बढकर पुरुषार्थ नही और भागवत द्वेष से बढकर आत्मनाश नही।

73.अर्चावतार भगवान में शिलाबुद्धि, आचार्यदेव में मानव बुद्धि, श्रीवैष्णवोंमे जाति की भावना, तीर्थमें सामान्य जल की  भावना, सिद्ध मंत्रोमें सामान्य शब्द की भावना, सर्वेश्वर भगवान को अन्य देवोंसमान मानना यह सब नरक में डालनेवाले महापातक हैं और भगवत भागवत आचार्य अपचार हैं।

74.भागवत पूजा भगवत पूजा से श्रेष्ठ है। भगवतोंका तिरस्कार भगवान के अपमान से अधिक पापजनक है। भागवतोंका श्रीपादतीर्थ भगवानके चरणोदक से उत्तम है। अत: आलस्य रहित होकर भागवतोंकी आराधना में तत्पर रहना चाहिये।

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