श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका
आधारभूत प्राविधिक शब्दावली (श्रीवैष्णव परिभाषा):
- आचार्य, गुरु – आध्यात्मिक गुरु – सामान्यतः तिरुमंत्र उपदेश प्रदान करने वाले गुरूजी से सम्बंधित
- शिष्य – अनुयायी
- भगवान – श्रीमन्नारायण भगवान
- अर्चा – मंदिर, मठों और घरों में विराजे भगवान का कृपामय दिव्य विग्रह
- एम्पेरुमान्, पेरुमाळ्, ईश्वर – मेरे स्वामी/ नाथ, भगवान
- एम्पेरुमानार् – भगवान से भी अधिक करुणामय – श्री रामानुज स्वामीजी
- पिरान् – वह जो अनुग्रह प्रदान करे / उपकार करे
- पिराट्टी, तायार – श्री महालक्ष्मीजी
- मुलवर – भगवान के पावन विग्रह जो मंदिरों के भीतर स्थिरता से विराजे है
- उत्सवर – भगवान के वह विग्रह जो उत्सवों/ शोभा यात्राओं में बाहर मार्ग में ले जाये जाते है
- आलवार – श्रीवैष्णव संत, जो पुर्णतः भगवान के कृपापात्र थे/ भगवान से हिले मिले थे और द्वापर युग के अंत से कलि युग के प्रारंभ तक दक्षिण भारत में रहते थे. आलवार अर्थात वह जो सदा भक्ति में निमग्न हो
- पूर्वाचार्य – श्रीमन्नारायण भगवान से लेकर श्री वैष्णव परंपरा में आने वाले आध्यात्मिक गुरु
- भागवत, श्रीवैष्णव – वह जो भगवान का दास है
- अरैयर – श्रीवैष्णव जो भगवान के समक्ष संगीत और मुद्राओं के साथ दिव्य प्रबंधन का गान करते है
- ओराण वालि आचार्य – पेरिय पेरुमाल से मणवाल मामुनिगल पर्यंत, एक विशिष्ट आचार्य श्रेणी– जिन्होंने एक के बाद एक संप्रदाय का नेतृत्व किया-
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- पेरिय पेरुमाल/भगवान श्रीमन्नारायण
- पेरिय पिराट्टी/ श्रीमहालक्ष्मीजी
- सेना मुदलिआर/ श्रीविष्वक्सेनजी
- नम्मालवार/ श्रीशठकोप स्वामीजी
- नाथमुनिगल/श्रीनाथमुनि स्वामीजी
- उय्यक्कोंदार/ श्रीपुण्डरीकाक्ष स्वामीजी
- मणक्काल नम्बि/ श्रीराममिश्र स्वामीजी
- आलवन्दार/ श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी
- पेरिय नम्बि/ श्रीमहापूर्ण स्वामीजी
- एम्पेरुमानार/ / श्रीभगवत रामानुज स्वामीजी
- एम्बार/ श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी
- भट्टर/ श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी
- नन्जीयर/ श्रीवेदांती स्वामीजी
- नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी
- वदक्कू तिरुविधि पिल्लै/ श्रीकृष्णपाद स्वामीजी
- पिल्लै लोकाचार्य/ श्रीलोकाचार्य स्वामीजी
- तिरुवाय्मौली पिल्लै/ श्रीशैलेश स्वामीजी
- अलगिय मणवाल मामुनिगल/ श्री वरवरमुनि स्वामीजी
- दिव्य प्रबंध – आलवारों के पासूर (श्लोक्) जिन्हें अरुलिच्चेयल के नाम से भी जाना जाता है
- दिव्य दंपति – श्रीमन्नारायण और श्रीमहालक्ष्मीजी
- दिव्य देश – आलवारों द्वारा महिमा-मंडित भगवान के क्षेत्र/ स्थल
- दिव्य सूक्ति, श्री सूक्ति – भगवान/ आलवारों/ आचार्यों के वचन
- अभिमान स्थल – भगवान के क्षेत्र जो पूर्वाचार्यों के अत्यंत प्रिय है
- पासूर – छंद/ श्लोक
- पधिगम् – दशक (10 पसूरों का संकलन)
- पत्तु – शतक (100 पसूरों का संकलन)
सामान्य शब्दावली – विशिष्ट अर्थ (श्रीवैष्णव संदर्भ में सामान्यतः उपयोग किये जाने वाले)
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- कोयिल – श्रीरंगम
- तिरुमला – तिरुवेंकटम्, तिरुमालिरुन्चोलै को भी तिरुमालाकहा जाता है
- पेरुमाल कोयिल – कांचीपुरम
- पेरुमाल– श्रीराम
- इलैय पेरुमाल – लक्ष्मण
- पेरिय पेरुमाल – श्रीरंगनाथ (मुलवर – मूल मूर्ति)
- नम्पेरुमाल – श्रीरंगनाथ (उत्सवर – उत्सव मूर्ति)
- आलवार – नम्माल्वार/ श्रीशठकोप स्वामीजी
- स्वामी – श्री रामानुज स्वामीजी
- जीयर, पेरिय जीयर – मणवाल मामुनिगल/ श्री वरवरमुनि स्वामीजी
- स्वरुप – सच्चा स्वभाव/ प्रकृति
- रूप – आकार/ आकृति
- गुण – मंगलमय विशिष्ट लक्षण
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- परत्वं – प्रभुत्व/ सर्वोच्चता/ प्रधानता
- सौलभ्यम् – सुगमता से प्राप्य/ सुलभ
- सौशील्यं – उदारता
- सौंदर्यं – सुंदरता / बाह्य शोभा
- वात्सल्यं – माता के समान सहनशीलता/ धैर्यता
- माधुर्यं – मधुरता
- कृपा, करुणा, दया, अनुकम्पा – कृपा
- शास्त्र – प्रमाणिक लेख जो हमारे पथ प्रदर्शक है – वेद, वेदांत, पांचरात्र, इतिहास, पुराण, आलवारों के दिव्य प्रबंध, आचार्यों की रचनाएँ – स्तोत्र, व्याख्यान.
- कर्म – कार्य/ क्रिया, पुण्य (सदाचार) और पाप (दोष) से भी सम्बंधित
- मोक्ष – मुक्ति – बंधन से मुक्ति
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- भगवत कैंकर्य मोक्ष – संसार बंधन से मुक्ति के पश्चाद परमपद में नित्य कैंकर्य में संलग्न होना
- कैवल्य – बंधन से मुक्ति के पश्चाद, स्वयं की आत्मा का भोग/ नित्य आत्मानुभूति
- कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग – भगवान को प्राप्त करने के साधन
- प्रपत्ति, शरणागति – समपूर्ण समर्पण/आश्रय– मात्र भगवान को ही उन्हें प्राप्त करने का साधन स्वीकार करना प्रपन्न, जिन्होंने आचार्य चरण कमलों में समर्पण किया है, उन्हें आचार्य निष्ठावान कहा जाता है
- आचार्य निष्ठा – आचार्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण
- आचार्य अभिमान – आचार्य द्वारा स्नेहपूर्ण संरक्षण
- पञ्च संस्कार (समाश्रयं) – किसी मनुष्य को कैंकर्य (इस संसार और परमपद) के लिए तैयार करने की परिशोधक प्रक्रिया- इसके अंतर्गत पांच तत्वों का अनुसरण किया जाता है
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- ताप – शंख चक्र लांचन – हमारे कन्धों/ बाहू पर शंक और चक्र की गर्म छाप। यह दर्शाता है कि हम भगवान की संपत्ति है –उसी प्रकार जैसे एक पात्र पर उसके स्वामी के चिह्न अंकित किये जाते है, हमें भगवान के चिह्नों से अंकित किया जाता है
- पुण्ड्र (चिह्न) – द्वादश ऊर्ध्व पुण्ड्र धारण करना – शरीर के द्वादश (12) स्थानों पर ऊर्ध्व पुण्ड्र (तिरुमण और श्रीचुर्ण) धारण करना
- नाम – दास्य नाम – आचार्य द्वारा प्रदत्त नया दास्य नाम (रामानुजदास, मधुरकवि दास, श्रीवैष्णव दास)
- मंत्र – मंत्रोपदेश – आचार्य से रहस्य मंत्र का ज्ञान प्राप्त करना; मंत्र अर्थात वह जिसके ध्यान करने वाले को सभी दुखों से मुक्ति प्राप्त होती है – तिरुमंत्र, द्वयं और चरम श्लोक जो हमें संसार से मुक्ति प्रदान करते है। अधिक जानकारी के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/2015/12/rahasya-thrayam/ पर देखें.
- याग – देव पूजा – तिरुवाराधना/ पूजा विधि का ज्ञान प्राप्त करना
- कैंकर्य – भगवान, आलवारों, आचार्यों, भागवतों के प्रति सेवा
- तिरुवाराधना – भगवान की आराधना/ पूजा
- तिरुवुल्लम – दिव्य ह्रदय/ अभिलाषा
- शेषी – स्वामी/ नाथ
- शेष – सेवक
- शेषत्वं – भगवान के सेवा के लिए सदैव तत्पर रहना (लक्ष्मणजी के समान जो सदा श्रीराम की सेवा के लिए उद्यत रहते थे)
- पारतंत्रियम् –सम्पूर्णत: भगवान और उनके दासों के अधीन/ नियंत्रण में रहना (भरत आलवान के समान जो सदा श्रीराम के वचनों का अनुसरण करते थे और श्रीराम की आज्ञा से उनके वियोग में रहना भी स्वीकार किया)।
- स्वातंत्रियम् – स्वाधीनता/ स्वतंत्रता
- पुरुषकारं – सिफारिश / अनुशंसा/ मिलाप कराना– श्री महालक्ष्मीजी भगवान से सिफारिश करती है कि यद्यपि वे अयोग्य है तथापि आप जीवात्माओं को स्वीकार करें। इस संसार में आचार्यों को पिराट्टी (श्रीमहालक्ष्मीजी) के प्रतिनिधि के रूप में संबोधित किया जाता है। पुरुष्कार करने वालों में मुख्यतः 3 गुण होते है-
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- कृपा – संसार में पीड़ित/ दुखी जीवात्माओं पर कृपा
- पारतंत्रियम् – भगवान पर सम्पूर्ण आश्रय/ निर्भरता
- अनन्यार्हत्वम् – सम्पूर्णत: भगवान के अधीन/ नियंत्रण में रहना
- अन्य शेषत्वं – भगवान और भागवतों के अतिरिक्त किसी भी अन्य की सेवा में लगना
- विषयान्तरम् – सांसारिक सुख – अर्थात कैंकर्य के अतिरिक्त सभी कुछ विषयान्तर है
- देवतान्तरम् – सच्चे देव श्रीमन्नारायण है। उनके अतिरिक्त कोई भी अन्य जीवात्मा जिसे भ्रमवश देव समझा जाये यही देवतान्तर है (बहुत सी जीवात्माओं को भगवान ने इस लौकिक जगत के कार्य-कलापों के लिए नियुक्त किया है। वे भी इस संसार में कर्म से बंधे हुए है)।
- स्वगत स्वीकारम् – हमारा भगवान/ आचार्य को स्वीकार करना (“मैं” की उपस्थिति– अहंकार)
- परगत स्वीकारम् – भगवान/ आचार्य का स्व-इच्छा से बिना कहे हमें स्वीकार करना
- निर्हेतुक कृपा – अकारण ही कृपा – भगवान की सतत करुणा/कृपा जो जीवात्मा द्वारा प्रदीप्त नहीं है
- सहेतुक कृपा– जीवात्मा के स्व-प्रयास द्वारा प्रदीप्त भगवान की कृपा
- नित्य – नित्य सूरी जो परमपद (और जहाँ भी वे विराजते है) में भगवान की नित्य सेवा करते है – नित्य सूरी सदैव पवित्र और अनादी से मुक्त है
- मुक्त – वह जीवात्मा जो लौकिक संसार में बद्ध थे परंतु अंततः परमपद प्रस्थान करके पवित्र हुए और भगवान के सेवक हुए
- बद्ध – वह जो वर्तमान में इस लौकिक संसार में बंधे हुए है जिन्हें संसारी भी कहते है
- मुमुक्षु – वह जो मोक्ष की अभिलाषा करता है
- प्रपन्न – वह जो भगवान को समर्पित है – मुमुक्षु के समान ही
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- आर्त प्रपन्न – प्रपन्न, जो लौकिक संसार के दुखों से अविलंभ मुक्ति चाहते है
- द्रुप्त प्रपन्न – वह जो समर्पित है परंतु पहले इसी संसार में रहकर भगवान और भागवतों की सेवा करना चाहते है और अंत में परमपद में सेवा चाहना करते है
- तीर्थ – पवित्र जल
- श्रीपाद तीर्थ – चरणामृत –आचार्य के चरणकमलों को धोने के लिए उपयोग किया हुआ जल
- भोग – भोजन (या अन्य पदार्थ) जो भगवान को अर्पण करने के लिए तैयार है
- प्रसाद – भोजन (या अन्य पदार्थ) जो भगवान को अर्पित किया गया है और फिर जिसका उपभोग श्रीवैष्णव जन कर सकते है
- उच्चिष्टम् – प्रसाद के लिए अन्य शब्दावली (अन्य अर्थ- शेष भोजन), अन्य अवसर पर इसका अर्थ दूषित भोजन से भी हो सकता है (अन्य के होटों से छुआ गया भोजन) – किस संदर्भ में उपयोग हो रहा है उस पर निर्भर है
- पडि – भोग के लिए उपयोग होने वाली शब्दावली
- सात्तुप्पडि – चन्दन की लकड़ी का लेई
- शठारी, श्री शठकोप, आदि – श्रीमन्नारायण भगवान के चरणकमल। नम्माल्वार को श्रीशठकोप भी कहा जाता है क्यूंकि उन्हें भगवान के चरणकमल के रूप में संबोधित किया जाता है
- मधुरकविगळ – नम्माल्वार के चरणकमल
- श्री रामानुजम् – आलवार तिरुनगरी में नम्माल्वार के चरणकमल
- श्री रामानुजम् – सभी आलवारों के चरणकमल
- मुदलियाण्डान – श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणकमल
- पोन्नदियां सेंकमलम् – मामुनिगल के चरणकमल
- सामान्यतः विश्वासपात्र शिष्य को चरण कमल के रूप में संबोधित किया जाता है। उदहारण के लिए, पराशर भट्टर एम्बार के चरणकमल है, नन्जीयर भट्टर के चरणकमल है, नम्पिल्लै नन्जीयर के चरण कमल है, आदि
- विभूति– संपत्ति/ वैभव
- नित्य विभूति (परमपद/श्रीवैकुंठ – अलौकिक जगत)
- लीला विभूति (संसार – लौकिक जगत जहाँ हम अभी रहते है)
- अडियेन, दास – स्वयं का संबोधन विनयपूर्वक करना (मैं का प्रतिस्थान) – विनम्र स्वयं
- देवरिर, देवर, श्रीमान् – अन्य श्रीवैष्णव को संबोधित करना – आपकी कृपा
- एलुन्दरलुतल् – आना, बैठना
- कण् वलरुतल् – निद्रा
- नीराट्टम् – नहाना
- शयनं– शयन करना
- श्रीपादम् – भगवान/ आलवार/ आचार्यों को पालकी में ले जाना
- तिरुवड़ी – चरण कमल (हनुमानजी को भी कहा जाता है)
- व्याख्यान – टिपण्णी/ समीक्षा/ विवरण/ भाष्य
- उपन्यास – उपदेश
- कालक्षेप – मूल विषय को क्रमानुसार पढ़कर उसका उपदेश और मूल विषय पर आधारित व्याख्यान
- अष्ट दिक्-गज – श्री वरवरमुनि स्वामीजी द्वारा स्थापित 8 आचार्य, अनुयायियों को श्रीवैष्णव संप्रदाय में दीक्षित करने और सत-संप्रदाय का प्रचार करने हेतु
- 74 सिंहासनाधिपति – श्री रामानुज स्वामीजी द्वारा स्थापित 74 आचार्य, अनुयायियों को श्रीवैष्णव संप्रदाय में दीक्षित करने और सत-संप्रदाय का प्रचार करने हेतु
दर्शन-शास्त्र से सम्बंधित शब्दावली
- विशिष्टाद्वैतं – दर्शन-शास्त्र, जो एक सर्वोच्च/उत्तम/श्रेष्ठ ब्राह्मण (भगवान) को समझाता है, चित्त और अचित जिसके अंग है
- सिद्धांत – हमारे सिद्धांत/ नियम
- मिथुन – दंपति – भगवान और महालक्ष्मीजी
- एकायनं – भगवान नारायण के परत्व को स्वीकार करना परंतु उनके श्रिय:पतित्वं (श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी) को उचित महत्त्व न प्रदान करना
- मायावादम् – दर्शन-शास्त्र, जो केवल एक ब्राह्मण के विषय में समझाता है, जिसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष सभी भ्रम है
- आस्तिक – जो शास्त्रों को प्रमाण के रूप में स्वीकार करते है
- नास्तिक – जो शास्त्रों को अस्वीकार करता है
- बाह्य – जो शास्त्रों को अस्वीकार करता है
- कुदृष्टि – वह जो शास्त्रों को स्वीकार करते है परंतु अपनी सुविधानुसार उसकी अशुद्ध व्याख्या करते है
- आप्त – विश्वसनीय स्त्रोत
- प्रमा – वैध/ सच्चा ज्ञान
- प्रमेयं – सच्चे ज्ञान का उद्देश्य
- प्रमाता – सच्चे ज्ञान का परित्राता
- प्रमाण – सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने का साधन
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- प्रत्यक्ष – इन्द्रियाँ (कान, आँख, आदि) जिनके द्वारा प्रत्यक्ष का अनुभव होता है
- अनुमानं – पूर्व अनुभवों पर आधारित प्राप्त ज्ञान
- शब्द – शाश्त्र के वचन/ विश्वसनीय स्त्रोत
- तत्व त्रय – तीन सत्यता/ वास्तविकताएँ जिसे प्रपन्न द्वारा समझा जाना अनिवार्य है। अधिक जानकारी के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/thathva-thrayam-english/ पर देखें
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- ईश्वर– भगवान श्रीमन्नारायण
- चित्, चेतन, जीवात्मा – आत्मा, चेतन
- अचित्, अचेतन, प्रकृति – पदार्थ, अवचेतन
- रहस्य त्रय – तीन रहस्य मंत्र/ विषय– पञ्च संस्कार में आचार्य द्वारा निर्देशित। अधिक जानकारी के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/2015/12/rahasya-thrayam/ पर देखें।
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- तिरुमंत्र – अष्टाक्षर महा मंत्र
- द्वयं – द्वय महा मंत्र
- चरम श्लोक – अर्थात “सर्व धर्मान् परित्यज्य”- गीता श्लोक। राम चरम श्लोक (सकृदेव प्रपन्नाय) और वराह चरम श्लोक (स्थिते मनसी) भी चरम श्लोक कहे जाते है।
- अर्थ पंचक – पांच आवश्यक सिद्धांत – पञ्च संस्कार में आचार्य द्वारा निर्देशित। अधिक जानकारी के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/2015/12/artha-panchakam/ पर देखें।
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- जीवात्मा – चेतन जीव
- परमात्मा – भगवान
- उपेयं, प्राप्यं –प्राप्त करने योग्य उद्देश्य – कैंकर्य
- उपायं – लक्ष्य प्राप्ति के साधन
- विरोधी – उदेश्य प्राप्ति में बाधाएं
- आकार त्रय – तीन आवश्यक गुण जो सभी जीवात्मा में होना चाहिए
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- अनन्य शेषत्वं – भगवान ही को एक मात्र स्वामी स्वीकार करना
- अनन्य शरणत्वं – भगवान ही को एक मात्र आश्रय स्वीकार करना
- अनन्य भोग्यत्वं – सामान्यतः इसका अर्थ है “भगवान का रसानंद”, परंतु अति-उच्च सिद्धांत है –“आनंद प्राप्त करनेवाले एक मात्र भगवान ही है” अर्थात “हम मात्र भगवान के आनंद के लिए है”
- सामानाधिकरण्यं – सामानाधिकरण्यं अर्थात एक से अधिक तत्व के लिए एक समान आधार। इसका अर्थ यह भी है कि दो या अधिक शब्दों द्वारा एक विषय का व्याख्यान। इसका उदहारण है- मृद घटं (मिट्टी का पात्र)। यहाँ घट (पात्र) के विषय में बात की जा रही है जो आधार है और जिसमें दो गुण है – मृद/ मिट्टी से निर्मित और घटत्व (उसका पात्र होना)। अन्य उदहारण है “शुक्ल: पत:” (श्वेत वस्त्र)। यहाँ पत (वस्त्र) के विषय में बात की गयी है जो आधार है और जिसके दो गुण है – शुक्ल (श्वेत रंग) और पतत्व (उसका वस्त्र होना)। उसीप्रकार, ब्राह्मण/भगवान सभी रचनाओं के आधार है यह सामानाधिकरण्यं के सिद्धांत के द्वारा समझाया गया है। यह एक पृथक और विस्तृत विषय है जिसे प्रबुद्ध विद्वान द्वारा समझा जा सकता है, जो संस्कृत व्याकरण और वेदांत में निपुण है।
- वैयधिकरण्यं – वैयधिकरण्यं अर्थात एक से अधिक तत्वों के लिए विभिन्न आधार। उदहारण, एक कुर्सी को धरती धारण करती है और एक फूलदान को एक मेज धारण करती है। इसका अर्थ यह भी है कि दो या अधिक शब्दों द्वारा विभिन्न विषयों का व्याख्यान।
- समष्टि सृष्टि – भगवान पञ्च भूतों (पांच तत्व) तक सृष्टि की रचना करते है और जीवात्मा को ब्रह्मा के पद पर नियुक्त करते है। इस चरण तक, इसे समष्टि सृष्टि कहा जाता है।
- व्यष्टि सृष्टि –ब्रहमा, ऋषियों, आदि में अन्तर्यामी रुप लेकर भगवान उन्हें विभिन्न रूपों में सृष्टि रचना के अधिकार प्रदान करते है। इस चरण को व्यष्टि सृष्टि कहा जाता है।
- व्यष्टि संहारम् –रूद्र/ शिव, अग्नि आदि (में अंतर्यामी होकर) उन्हें लौकिक जगत के संहार का अधिकार प्रदान करते है।
- समष्टि संहारम् – पञ्च भूतों और अन्य सृष्टि रचनाओं को भगवान स्वयं में समाहित कर लेते है।
अधिक जानकारी के लिए देखें: https://kaarimaaran.com/downloads/
-अदियेन भगवती रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/readers-guide-english/
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org
सादर जय श्री मन्नारायण।
बहुत ही उतम श्री वैष्णवोपयोगी जानकारी हेतु साधुवाद।
सादर जय श्री मन्नारायण, साष्टांग ।
बहुत ही उतम श्री वैष्णवोपयोगी जानकारी हेतु साधुवाद ।
dandout ;i want mobaile no. of sri matha ;i am bhojdas swami haryana 9416248246