लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां

श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्री वानाचलमहामुनये नमः

श्रीवैष्णव सम्प्रदाय उभय वेदान्त सम्प्रदाय के नाम से विश्व विख्यात है | हम सभी को संस्कृत वेद / वेदान्त (चार वेद, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र (वेदान्त सूत्र), स्मृति, इतिहास, पञ्चरात्र-आगम) और द्राविड़ वेद / वेदान्त (आळ्वार दिव्य प्रबन्ध, दिव्य प्रबन्ध पर पूर्वाचार्यों की व्याखा) भगवद्कृपा एवं पूर्व-आचार्यकृपा से उपलब्ध है जो हमारे सम्प्रदाय के दो नेत्र के समान है | दोनों ही समान रूप से गौरवनीय, पठनीय, समतुल्य, और पोषित है | कोई भी जो आत्मा-तत्त्व का सच्चा ज्ञान जानने के इच्छुक हो और इस मार्ग पर केन्द्रित हो उसको इन दोनों (संस्कृत और द्राविड़ वेद) को पढ़ना और सीखना चाहिये |

उभय वेदान्त का उद्देश्य :-

  • भगवान् श्रीमन्नारायण ही परमात्मा, परमेश्वर, सर्वोत्तम (परम) जीव – सभी जीवों मे सर्वश्रेष्ठ है |
  • वह वेदों के मुख्य वस्तु है, जो स्वयं वेदों को समयानुसार प्रकाशित करते है |
  • आप ही समस्त जगत् , चराचर इत्यादि के कारक है — आप ही उपादान-कारण, निमित्त-कारण और सहकारिक कारण है |
  • सभी चित-अचित (जड़-अजड़) के कारक भगवान् स्वयं है, भगवान् ही इनके नियंत्रक  एवं भगवान् के पराधीन और भगवान् के दास है |
  • उनकी कृपा ही हम सभी का उपाय है |
  • श्री-अम्माजी सहित भगवान् श्रीमन्नारायण की सेवा ही चरम उपेय है |

उपरोक्त तथ्य स्व-इन्द्रियों से ज्ञेय नही है अपितु केवल उभय-वेदान्त से ही ज्ञेय है |

                      श्रीरामानुजाचार्य एवं उनके शिष्य

श्रीरामानुजाचार्य का आविर्भाव (अवतार) केवल अपनी कृपा से बद्ध जीवों को इस भव-सागर से उद्धार करने हेतु ही हुआ है | आपश्री ने बोधायन, तण्कर, द्रमिडर इत्यादि का अनुशीलन कर वेद/वेदान्त के अर्थों को अपने दिव्य ग्रन्थों मे उद्धृत किया है | आपश्री की सभी दिव्य ग्रन्थ रचनाएँ  संस्कृत भाषा मे है | आप श्री का मुख्य ग्रन्थ “श्री-भाष्य” — वेदव्यास भगवान् के ब्रह्म सूत्र की व्याख्या एक अद्भुत रचना है जो “विशिष्ट-अद्वैत” तत्तव को प्रतिपादित करता है | आपने इस अद्भुत रचना मे श्री शठकोप स्वामीजी एवं अन्य आळ्वारों के दिव्य श्रीसूक्तियों के अर्थों को उद्धृत कर बहुखूबी से वेदान्त सूत्रों को समझाया है | यही श्री अळगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी ने अपने “आचार्य हृदय” नामक ग्रन्थ मे कुछ इस प्रकार कहा है — ” भाष्यकारार् इदु कोण्डु सूत्रङ्गळै ओरुङ्ग विडुवर् ” अर्थात् श्री रामानुज स्वामीजी श्री शठकोप स्वामीजी के तिरुवाय्मोळि दिव्य प्रबन्ध मे जो दिव्य ज्ञान है उसका उपयोग कर ब्रह्म सूत्रों के अर्थों को निस्सन्देह रूप से स्थापित किया | सुस्स्पष्ट रूप से शास्त्रों के चरम सिद्धान्त का प्रतिपादन कर, आपने जडात्मक रूपी अज्ञान के अन्धकार का नाश कर, दिव्य ज्ञान रूपी दीप को प्रकाशित किया |आगे चल कर श्री नडादुर अम्माळ् स्वामीजी ने इस दिव्य ज्ञान का प्रचार प्रसार किया | श्रीश्रुतप्रकाशिक भट्ट स्वामीजी ने अपने कालक्षेप आचार्य “नडादुर अम्माळ् जी” से प्राप्त ज्ञान के आधार पर श्री रामानुज स्वामीजी के वेदान्त सूत्र भाष्य “श्री भाष्य” पर विस्तीर्ण शैली मे भाष्य लिखा है जो “श्रुत-प्रकाशिक” के नाम से सुप्रसिद्ध है और यह ग्रन्थ ३६००० ग्रन्थों के समतुल्य है | १ ग्रन्थ = १ पडि = ३२ स्वर | अर्थात् यह ग्रन्थ ३६००० * ३२ = ११५२००० स्वर है |

आळ्वारों ने भगवान् श्रीमन्नारायण के कल्याण गुणों का गुणगान अपने दिव्य प्रबन्धों मे किया है | इन मे, श्री शठकोप स्वामीजी के ४ प्रबन्धों को द्राविड़ वेद कहते है जो इस प्रकार है :

१) तिरुविरुत्तम् — ऋग वेद सार

२) तिरुवासिरियम् — यजुर्वेद सार

३) पेरिय तिरुवन्दादि — अथर्व वेद सार

४) तिरुवाय्मोळि — साम वेद सार

आज तक तिरुवाय्मोळि के ५ व्याख्यायें उपलब्ध है जो इस प्रकार है :

१) ६००० पडि — श्री रामानुजाचार्य स्वामीजी की आज्ञा से लिपिबद्ध पिळ्ळान् स्वामीजी की व्याख्या

२) ९००० पडि — श्री पराशर भट्ट स्वामीजी की आज्ञा से लिपिबद्ध नन्जीयर (वेदान्ती) स्वामीजी की व्याख्या

३) २४००० पडि — श्री लोकाचार्य (नम्पिळ्ळै) की आज्ञा से लिपिबद्ध  पेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी की व्याख्या

४) ३६००० पडि — श्री लोकाचार्य (नम्पिळ्ळै) के कालक्षेप पर आधारित वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै स्वामीजी की व्याख्या

५) १२००० पडि — पेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी  के शिष्य “श्री वादि केसरी अळगिय मणवाळ जीयर्” जी की व्याख्या

लोकाचार्य(कलिवैरिदास स्वामीजी) स्वामीजी की कालक्षेप गोष्ठी

उपरोक्त व्याख्याओं मे, ३६००० पडि व्याख्या ईडु व्याख्या के नाम से सुप्रसिद्ध है और इसका अर्थ “अतुल्यनीय” एवं “अद्वितीय” है | इस व्याख्या को श्री वडुक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै स्वामीजी ने अपने आचार्य की आज्ञा के बिना लिपिबद्ध किया था | इनके आचार्य “लोकाचार्य” (नम्पिळ्ळै) स्वामीजी इस व्याख्या की अद्भुत शैली और विस्तृत व्याख्या भाव से चकित होते है | लोकाचार्य स्वामीजी इनसे यह ग्रन्थ छीनकर कहते है — “इस ग्रन्थ को प्रकाशित करने का यह उक्त समय नही है” और यह व्याख्या सभी के लिये योग्य नही है | तदुपरान्त लोकाचार्य स्वामीजी इस व्याख्या को ईयुण्णि माधव पेरुमाळ् (माधवाचार्य) स्वामीजी को सौंपते है और आज्ञा देते है कि योग्य शिष्यों को ही सिखावें | आगे और कहते है कि भविष्य काल मे स्वयं रामानुज स्वामीजी दूसरे अवतार मे (वरवरमुनि स्वमीजी का अवतार) अवतीर्ण होंगे और इस व्याख्या की अद्भुत गौरव की अभिवृद्धि करेंगे | अत: इस प्रकार से, यह व्याख्या ईयुण्णि माधव पेरुमाळ् स्वामीजी से उनके सुपुत्र ईयुण्णि पद्मनाभ पेरुमाळ् को और तदुपरान्त उनसे नालूर् पिळ्ळै को, तदुपरान्त नालूर् पिळ्ळै से नालूर् आच्चान् पिळ्ळै को, और नालूर् आच्चान् पिळ्ळै से तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै को, अन्ततः तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै से श्री वरवरमुनि को सौंपा गया था |  श्रीरङ्गनाथ भगवान् की दिव्य आज्ञा से, इस व्याख्या पर एक साल तक निरन्तर श्री वरवरमुनि स्वामीजी ने सामान्य जनता के समक्ष उपन्यास दिया  | ऐसी गोपनीय व्याख्या जिसका उपदेश और श्रवण केवल योग्य शिष्यों को उपलब्ध था वह श्री वरवरमुनि जी के विशेष अनुकम्पा और भगवान् श्रीरङ्गनाथ की आज्ञा से सामान्य जनता के समक्ष एक साल तक श्रीरङ्गनाथ भगवान् के मन्दिर मे प्रकाशित हुआ और इसका समापन आणि तिरुमूल (मूल नक्षत्र) सात्तुमुरै उत्सव मे हुआ और तदुपरान्त “श्रीशैलेश दयापात्रं … ” तनिया का प्रकाश स्वयं भगवान् श्रीरङ्गनाथ ने किया और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को आचार्य रूप मे स्वीकारा और अत: साम्प्रदायिक आचार्य रत्न हार सम्पूर्ण हुआ |

नम्पिळ्ळै (कलिवैरिदास स्वामीजी) के तिरुवाय्मोळि पर आधारित प्रवचनों को उनके शिष्य वडुककु तिरुवीधि पिळ्ळै स्वामीजी ने ईडु ३६००० पडि व्याखान के रूप मे लिपिबद्ध किया, ऐसे आपश्री उभय वेदान्त के विशेषज्ञ है | आपश्री ने सत्साम्प्रदाय का नेतृत्व नन्जीयर (वेदान्ति) स्वामीजी से स्वीकारा और आपश्री का मुख्य निवास एवं आलय श्रीरङ्गम् था |  आपश्री का उभय वेदान्त मे अद्वितीय ज्ञान था | आपश्री के दिव्य नेतॄत्व मे सत्सम्प्रदाय का अत्यद्भुत विकास हुआ और उच्चतम स्तर को प्राप्त किया | अनेक आचार्यों के समय, बहुत सारे बाधाएँ थी पर आपश्री के समय मे श्रीरङ्ग बाधाओं से परे था |  सभी सौभाग्यशाली श्रीवैष्णव अनन्य होकर केवल आपश्री के भगवद्विषय मे सम्लग्न होते थे और आपकी कथा का श्रवणामॄत का रसपान करते थे | एक बार, कलिवैरिदास स्वामीजी के कालक्षेप सुनकर निकलते वैष्णव वृन्द की गोष्ठी को देखकर एक वैष्णव राजा सोच मे पड गये की क्या यह भगवान् की गोष्ठी है या कलिवैरिदास स्वामीजी की गोष्ठी है ?

वेदान्ती स्वामीजी और कलिवैरि स्वामीजी

इतना ही नही, आपश्री तो ज्ञानी थे फिर भी आप सबसे विनम्र और विनयशील थे | आप तो पूर्णतया आपके आचार्य वेदान्ती स्वामीजी के पदकमलों मे शरणागत थे और आपश्री के और आपके आचार्य के बींच मे हुए संवाद सदा श्रीवैष्णवोंं के कर्णों को रसपान कराता है  | एक तरफ़ आपश्री का ज्ञान और दूसरी ओर आपश्री का विनयशील और विनम्र स्वभाव, ने आपको लोकाचार्य नाम की उपाधि प्रदान की | यह दृष्टान्त आप सभी के लिये संक्षिप्त मे प्रस्तुत किया गया है :

— एक बार भगवान् श्रीरङ्गनाथ के समक्ष, कन्दाडै तोळप्पर् (श्री दाशरथि स्वामीजी के वंशज) कलिवैरिदास स्वामीजी के प्रति कुछ कटुतापूर्ण शब्दों का प्रयोग करते है | कन्दाडै तोळप्पर् को, कलिवैरिदास स्वामीजी की बढती वैभवता, सहन नही हो पाई और इस कारन वश उन्होने ऐसे कटु शब्दों का प्रयोग किया | श्रीकलिवैरि स्वामीजी ने चुपचाप सुना और वहाँ से अपने घर लौट गये | कन्दाडै तोळप्पर् जब अपने घर पहुँचते है, उनकी धर्म पत्नी, जिनको अन्यों द्वारा उनके पति की कटु-क्रिया का समाचार प्राप्त हुआ, तब उनको समझाती है कि उनको ऐसा नही करना चाहिये था और उनको अपना बर्ताव बदलना पडेगा और कलिवैरि स्वामीजी की महानता समझाती है | उनकी पत्नी उनको आचार्य कलिवैरि स्वामीजी से क्षमायाचना करने का उपदेश देती है | अपनी गलती का एहसास होने के बाद, वह देर रात्रि मे आचार्य कलिवैरि स्वामीजी के घर जाकर क्षमा याचना करने की योजना बनाते है | जाने के लिये तत्पर कन्दाडै तोळप्पर् जब अपने घर का दरवाज़ा खोलते है, तब उन्होने देखा की कोई व्यक्ति उनके घर के समक्ष खडा है और पास जाने पर उनको ज्ञात होता है की वह और कोई नही साक्षात् स्वयं कलिवैरि स्वामीजी थे | कलिवैरिदास स्वामीजी कन्दाडै तोळप्पर् को देखकर तुरन्त उनको दण्डवत प्रणाम कर, क्षमा याचना करते है की स्वयं के कुछ अपराध होंगे जिसके कारण से उनको उनके प्रति असहिष्णुता उत्पन्न हुई |कलिवैरिदास स्वामीजी के ऐसे विलक्षण विनम्रता देखकर कन्दाडै तोळप्पर् दम्भित रह जाते है — हलांकि यह कन्दाडै तोळप्पर् जी का अपराध था, पर कलिवैरिदास स्वामीजी ने अपनी उदारता से यह अपराध को स्वयं का समझा और क्षमा याचना की |  कन्दाडै तोळप्पर् स्वामी ने तुरन्त साष्टाङ्ग प्रणाम किया और कहा – अब से आपश्री, आपके इस उदारता एवं विनयशीलता से, लोकाचार्य के नाम से जाने जायेंगे | लोकाचार्य अर्थात् इस पूरे विश्व के स्वामी | वही लोकाचार्य के नाम का हकदार हो सकता है जो महापुरुष होने के बावज़ूद विनम्रता का प्रतीक हो और आपश्री इस उपाधि के लिये उपयुक्त है | तदुपरान्त कन्दाडै तोळप्पर् आपश्री के प्रति अपने द्वेष को छोड़कर, अपनी धर्मपत्नी सहित आपश्री की सेवा मे सम्लग्न हुए और आपश्री के पर्यवेक्षण मे शास्त्र के यथार्थों को सीखा | श्री वरवरमुनि स्वामीजी अपने उपदेश रत्नमाला मे यह दृष्टांत का वर्णन करते है और दोनों का गुणगान करते है और इसी से हम जान सकते है कि कलिवैरिदास स्वामीजी की विशुद्धता एवं निर्दोषता को | इससे यह भी जानते है कि कलिवैरिदास स्वामीजी के सत्सङ्ग से कन्दाडै तोळप्पर् भी शुद्ध हुए |

कलिवैरिदास स्वामीजी और पिन्भगळिय पेरुमाळ् जीयर् कलिवैरिदास स्वामीजी के चरण कमलों मे, श्रीरङ्ग

कलिवैरिदास स्वामीजी की वैभवता असीमित है — कितना भी करे कम ही पड़ता है | पेरियवाच्चान् पिळ्ळै (जो व्याख्यान चक्रवर्ती से सुप्रसिद्ध है) वह अपने पेरिय तिरुमोळि ५.८.७ “ओदुवाय्मैयुम्” पासुर मे अपने आचार्य कलिवैरिदास स्वामीजी के वैभव को प्रकाशित करते है | उनकी बोली कुछ इस प्रकार से है :

मुर्पड द्वयत्तैककेट्टु , इतिहास पुराणन्गळैयुम्  अधिकरित्तु, परपक्ष प्रतिक्षेपत्तुक्कुडलाग न्याय मीमाम्सन्गळै अधिकरित्तु, पोदु पोक्कुम अरुळिच्चेयलिलेयाम्पडि पिळ्ळैयैप्पोले अधिकरिप्पिक्क वल्लनैयिरे ओरुत्तन् एन्बदु

इस पासुर मे, तिरुमन्गै आळ्वार् भगवान् श्रीकॄष्ण के आचार्य सान्दीपनि जी का गुणगान कर रहे है | यहाँ वह यह दर्शा रहे है कि एक आचार्य किस प्रकार से होना चाहिये (उनके व्यक्तित्व एवं स्वभाव को जानना जरूरी है) और इसी का उदाहरण देते हुए अपने आचार्य श्री कलिवैरिदास स्वामीजी के गुणों का गुणगान करते हुए स्थापित करते है कि आपश्री उच्चतम आचार्य है जो अनुसरणीय है |

उनके बोली का सरल अनुवाद :- एक सच्चे आचार्य को श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के जैसे होना चाहिये जो अपने शिष्यों को – द्वय महामन्त्र का अर्थ सुनावें, फिर इतिहास पुराण सिखावें, फिर न्याय, मीमाम्सा इत्यादि सिखावें जिससे प्रतिपक्षी सिद्धान्तों को समझा जा सकता है और तदुपरान्त अपना सिद्धान्त का प्रतिपादन करे और अपना निज समय केवल आळ्वारों के श्री सूक्तियों के पठन पाठन और अर्थानुसन्धान मे बितावें |

कलिवैरिदास स्वामीजी की भगवद्-विषय कथा बहुत रोमांचक एवं मनमोहक है | आपश्री सदैव श्रीरङ्गनाथ भगवान् सन्निधि के निकटस्थ प्राकार के पूर्व दिशा मे आसन ग्रहण करते थे | ऐसा मानना और कहा जाता है कि कलिवैरिदास स्वामीजी के दर्शन प्राप्त करने के लिये साक्षात्  श्रीरङ्गनाथ भगवान् ने शयन अवस्था से उठकर देखने का प्रयास किया पर उनके सेवक तिरुविळक्कुप्पिच्चन् ने उनको उनके आदिशेष शयन पलन्ग कि ओर धकेला और कहा – हे भगवन् कृपया आप अर्चा समाधि बनाये रखे |

कलिवैरिदास स्वामीजी के दिव्य वैभव और उनका जीवन चारित्र्य यहाँ इस लिन्क पर पढ सकते है | कलिवैरिदास स्वामीजी की ईडु व्याख्या ही हमारे सत्सम्प्रदाय के मुख्य एवं मूल सिद्धान्तों को विस्तारयुक्त रूप से दर्शाती है | श्री नडुविल् तिरुवीधि पिळ्ळै के जीवन चरित्र्य से — राजा के राज्य सभा मे, पिन्भगळिय पेरुमाळ् जीयर् “जटायु को मोक्ष देने मे श्रीराम भगवान् कि प्रतिभा ” के विषय मे, श्री कलिवैरिदास स्वामीजी के दिव्य अनुभव एवं तात्पर्य को दर्शाते है | तदुपरान्त नडुविल् तिरुवीधि पिळ्ळै जी का व्यवहार और कलिवैरिदास स्वामीजी के शरणागत होना,  यह स्थापित करता है कि आपश्री के एक एक शब्द असीमित धनराशि के समतुल्य है और मधुर रसपान का केन्द्र है | यही दृष्टान्त आप इस लिन्क पर पढ सकते है |

श्रीमान् उभय वेदान्ती गोपाल कृष्ण दास (कोनार्) स्वामीजी जो कोईल् कन्दाडै वादूल अण्णन् स्वामीजी के मन्त्र शिष्य है और चेन्नई मे निवास करते है, ने ईडु व्याख्या महाग्रन्थ से सुन्दर वाक्यों को चुनकर लिपिबद्ध किया है | कोईल् विद्वान, परमपद वासी, श्रीमान् उभय वेदान्ती आर् नरसिम्हाचार्य स्वामीजी ने सरल तमिल् भाषा मे इन वाक्यों के अर्थ लिखा था | वही अब ई-पुस्तक के रूप मे, आप सभी को इस लिन्क पर उपलब्ध किया जा रहा है जिसका प्रकाशन ७-१-१९६८ को हुआ था और इसका पुन: प्रकाशन पुतुर् रघुरामन् स्वामी (श्रीशैलेश दयापात्र पत्रिका के सम्पादक) ने किया | यह और भविष्य लेख दास का विनयपूर्वक प्रयत्न है जो केवल उपरोक्त वाक्यांशों का सरल हिन्दी अनुवाद है ताकि सभी इस रस पूर्ण वाक्यांशों का रसास्वादन करे | यह केवल श्री कलिवैरिदास स्वामीजी के महद्कार्यों मे से एक छोटा सा उदाहरण है पर दास की यह आशा है कि भक्तों एवं आश्रित जनों मे उत्सुकता एवं रस की व्युत्पत्ति करेगी और अन्तत: सभी पूर्णतया इस रस सागर का रसास्वाद करे और भगवद्-विषय मे पूर्ण रूप से निमग्न हो जावें |

– अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दासन्
– अडियेन् अमिता रामानुजदासी

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1 thought on “लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां”

  1. श्रीमद वरवरमुनये नमः।

    अत्युत्तम दिव्य कैंकर्य आचार्यवर ।

    सादर नमन आपके पतितजनोद्धारक प्रयास को

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