लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य श्री सूक्तियां – १४

   श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमते वरवरमुनये नमः

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां

<< पूर्व अनुच्छेद

नम्पिळ्ळै – श्रीपेरुंबूदूर

१३१-इवर्गळैत् तनित्तनिये पट्रिनार्क्कु स्वरूप विनाशमिऱे मिदुनमे उपदेश्यमेन्ऱिरुप्पार्क्कु स्वरूप उज्जीवनमिऱे।

जो व्यक्ति पिराट्टि (श्री महालक्ष्मी जी) और पेरुमाळ् (श्रीमन्नारायण) को पृथक-पृथक जानता है उसके प्राकृतिक स्वरूप (श्रीमन्नारायण के दास के रूप में पहचान) का विनाश हो जाएगा। जो व्यक्ति दिव्य दम्पति के रूप में सेवा के लक्ष्य का दृष्टिकोण रखता है, वह अपने वास्तविक स्वरूप को बना पाएगा और भक्ति के स्तर में उपर उठेगा।

अनुवादक टिप्पणी –इस सिद्धांत का श्रीमद् रामायण में बहुत अद्भुत ढंग से अवलोकन हुआ है। शूर्पणखा केवल श्री राम के साथ आनन्द भोगना चाहती थी (इस प्रक्रिया में सीता पिराट्टि (सीता माता)को हानि पहुँचाने की चेष्टा भी की), उसे नाक और कान गँवाने पड़े। रावण केवल सीता पिराट्टि के साथ आनन्द भोगना चाहता था। अन्त में श्रीराम के द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ। परन्तु विभीषणाऴ्वान् सीता पिराट्टि और श्रीराम की युगल सेवा के नियम को समझा और पवित्र हृदय के साथ श्री राम के शरण में गया। इस प्रकार वह दिव्य दम्पति की करुणा पात्र बना और स्वयं को श्रीराम कैङ्कर्यम् में संबद्ध कर लिया।

इसीलिए आळ्वार् सदा ही (एम्पेरुमान्) श्रीमन्नारायण के साथ (पिराट्टि) माता के वैभव का गुणगान करते हैं और सदा श्रीमन्नारायण के साथ पुरुषकारम् स्वरुप पिराट्टि का अवलोकन करते हमारे आचार्यों ने भी इस नियम को पूर्ण रूप से प्रमाणित किया है। १३०वें सूक्ति में देखा गया है कि यही कारण है कि हमारे आचार्यों का द्वय महामंत्र के साथ अटूट संबंध है कि पिराट्टि के माध्यम से श्रीमन्नारायण को पूर्ण समर्पण करके दिव्य दम्पति की सेवा करने के लिए प्रार्थना करते हैं।

तिरुवाय्मोऴि के ९.२.१ में “पण्डै नाळाले”  पासुरम् में नम्माऴ्वार् समझाते हैं कि पुरुषकारम् स्वरुप पिराट्टि के माध्यम से श्रीमन्नारायण की अनुकम्पा का उन पर प्रभाव कैसे हुआ। नम्पिळ्ळै ने ईडु व्याख्यानम् में एक अद्भुत दृष्टिकोण का परिचय कराया। वे कहते हैं, “पिराट्टि के पुरुषकारम् के माध्यम से जो भगवान के पास आता है और भगवान की कृपा कटाक्ष प्राप्त करता है, वह दिव्य देशों से संबद्ध होगा जो कि स्वयं भगवान को बहुत प्रिय हैं और वह वहाँ भगवान की निरन्तर उत्साह से सेवा करेगा”। इसे ही हमारे पूर्वाचार्यों ने “उज्जीवन” (उत्थापन) कहा है- पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ अर्चावतार एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) और दिव्य देशों की सेवा करना ही प्राण आधार मानते थे।

१३२. “वऴुविलावडिमै चैय्य वेण्डुम् नाम्” एन्ऱदिऱे निलैनिन्ऱ स्वरूपम्, अनुवर्त्तमानदिऱे परमार्थमावदु।

जीवात्मा का प्राकृतिक स्वरूप सम्भवतः बिना रुके भगवान की सेवा करना है। सच्चा लक्ष्य वही है जो शाश्वत होता है।

अनुवादक  टिप्पणी – द्वय महामंत्र के दो भाग हैं। पहले भाग में हम पिराट्टि के पुरुषकारम् (पक्ष समर्थन या अनुरोध) के माध्यम से श्रीमन्नारायण के चरण कमल को उपाय (साधन/प्रक्रिया) के रूप में मानते हैं। दूसरे भाग में, हम विशेष रूप से एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) की प्रसन्नता के लिए दिव्य दम्पति की नित्य सेवा के लिए प्रार्थना करते हैं। नम्माऴ्वार् (श्री शठकोप स्वामी जी) ने तिरुवाय्मोऴि में द्वय महामंत्र के दोनों भागों को बहुत सुन्दर ढंग से दर्शाया है। उन्होंने शरणागति को पहले भाग में ६.१० पदिगम् (दशक) में दर्शाया है-“उलगमुण्ड पेरुवाया” जहाँ १०वें पासुरम् में “अगलगिल्लेन् इरैयुम् एन्ऱु” कि पुरुषकारम् स्वरूप पिराट्टि के माध्यम से एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के शरणागत होते हैं। तिरुवाय्मोऴि ३.३ पदिगम् (दशक) “ओऴिविल् कालमेल्लाम्”, में पहले पासुर में “ओऴिविल् कालमेल्लाम् वुडनाय् मन्नि वऴुविलावडिमै चैय्य वेण्डुम्”  वे इळयपेरुमाळ् (लक्ष्मण जी) के पदचिन्ह पर चलते हुए पिराट्टि और एम्पेरुमान् की नित्य सेवा करने के लिए प्रार्थना करते हैं जो कि सीता पिराट्टि और पेरुमाळ् (श्रीराम जी) की नित्य सेवा में लगे हैं। इसीलिए उनका लक्ष्य भगवान की शाश्वत सेवा में सदा ही संलग्न रहना है। इसके विपरीत सांसारिक सुखानन्द क्षणभंगुर और तुच्छ है जबकि परमपद में भगवान की सेवा नित्य और परमसुख देने वाली है, इसी कारण शास्त्र, आऴ्वार् और आचार्य सर्वसम्मति से यह निर्धारित करते हैं कि हमें भगवान के नित्य कैङ्कर्य रूपी शाश्वत लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एकाग्र रहना चाहिए ।

१३३-   ईश्वरन् ओऴिन्दारडङ्गलुम् ताङ्गळ् उळरानपोदु रक्षकमाग अबिमानित्त आपत्तु वन्तवाऱे इवर्गळैक् काट्टिकोडुत्त तन्दामैक्कोण्डु तप्पुवर्गळ्।

सर्वेश्वर के अतिरिक्त अन्य देवता अपने भक्तों और स्वयं पर जब तक कोई बड़ी विपदा नही आ जाती तब तक सेवा स्वीकृति देते हैं, विपदा का निवारण न होता देख भक्तों को भगवान के पास ले जाकर स्वयं वहाँ से पलायन कर जाते हैं।

अनुवादक टिप्पणी –गजेन्द्र मोक्षम् एक प्रसिद्ध कथाभाग है। जब गजेन्द्र ने परम विलक्षण कारणभूत को अपनी रक्षा के लिए पुकारा तब सभी देवान्तर वहाँ से हट गए और श्रीमन्नारायण के वहाँ पहुँचने और उसको बचाने की प्रतीक्षा करने लगे। तिरुवाय्मोऴि (४.१०.७, ५.२.७ और ७.५.७) में नम्माळ्वार इन स्थानों पर ऋषि मार्कण्डेय के चरित्र का चित्रण करते हैं। नम्माळ्वार् प्रत्यक्ष वर्णित करते हैं कि जब ऋषि मार्कण्डेय विपत्ति में थे तो श्रीमन्नारायण की कृपा से ही रुद्र ने सबसे पहले सहायता की। नम्पिळ्ळै ने अपने व्याख्यान में प्रस्तुत किया है कि जब मार्कण्डेय ऋषि मोक्ष चाहते थे ,रुद्र ने कहा “मैं स्वयं इस संसार  में तुम्हारे जैसे संतापों को सहन कर रहा हूँ।आइए मिलकर मुकुन्दन् (श्रीमन्नारायण का एक नाम, मोक्ष प्रदाता) के पास जाकर मोक्ष पाने की प्रार्थना करते हैं कि केवल आप ही शाश्वत रक्षा कर सकते हैं “

पिळ्ळै लोकाचार्य ने “प्रपन्न परित्राणम्” नामक एक भिन्न रहस्य ग्रन्थ रचा जिसमें यह प्रत्यक्ष कहा है कि भगवान ही केवल हमारी रक्षा कर सकते हैं। उन्होंने स्वयं मुमुक्षुप्पडि सूत्रम् ३९ में प्रस्तुत किया है “ईश्वरनै ओऴिन्दवर्गळ् रक्षकरल्लर् एन्नुमिडम् प्रपन्न परित्राणत्तिले सोन्नोम् “– मेंने  प्रपन्न परित्राणम् में यह समझाया है कि भगवान के अतिरिक्त कोई भी हमारी रक्षा नहीं कर सकता।

१३४- सर्वावस्थैयिलुम् तन्नै अऴियमाऱियायिनुम्  आश्रितरक्षणम् पण्णुवन्।

भले ही भगवान की महिमा कम हो जाए परन्तु प्रत्येक क्षण अपने भक्तों की रक्षा करने आ जाते हैं।

अनुवादक टिप्पणी –भगवान अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए और भक्तों की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए अपनी महिमा कम होने के विचार छोड़ देते हैं। आइए इस उदाहरण को देखते हैं।

•भीष्म पितामह(जो एम्पेरुमान् के अनन्य भक्त हैं) ने प्रतिज्ञा की कि युद्ध के समय श्री कृष्ण हथियार उठाएँगे यह सुनिश्चित है। इस पहले ही श्री कृष्ण  प्रतिज्ञा कर चुके थे कि वे युद्ध के समय हथियार नहीं उठाएँगे परन्तु अपने भक्त की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए अपनी प्रतिज्ञा का त्याग कर दिया और जब भीष्म अर्जुन पर निरन्तर प्रहार कर रहे थे तब भीष्म पर प्रहार करने के लिए श्रीकृष्ण ने रथ का पहिया उठा लिया भले ही पहिये का उपयोग नहीं किया (उन्होंने केवल भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा को पूर्ण किया)।

• पिळ्ळै लोकाचार्य दिव्य शास्त्र श्रीवचनभूषणम् में वर्णन करते हैं कि महाभारत स्पष्ट रूप से कण्णन एम्पेरुमान् (श्रीकृष्ण भगवान) की महिमा को प्रकट करता है, उन्होंने स्वयं ही उपाय और पुरुषकार की भूमिका निभाई थी। द्रौपदी श्रीकृष्ण की पूर्ण शरणागत थी। पांडवों का भी श्रीकृष्ण के साथ दृढ़ सम्बन्ध था। फिर भी श्रीकृष्ण के प्रति द्रौपदी के प्रेम से ओतप्रोत दास्य भाव की कोई तुलना नहीं थी। सूत्र २२ में, उन्होंने परिभाषित किया कि श्रीकृष्ण ने दूत (सन्देश वाहक -जिसे एक सम्माननीय पदवी नहीं माना जाता) की भूमिका निभाई, अर्जुन के सारथी बने और अर्जुन को गीता का उपदेश दिया -द्रौपदी की रक्षा के लिए, यदि पांडव परास्त होते तो निस्संदेह द्रौपदी को कष्ट पहुँचता (द्रौपदी की रक्षा के लिए पांडवों का साथ दिया)।

१३५- आस्रितन् तप्पिनालुम् तान् पोऱुत्तु रक्षिप्पन्।

यदि भक्त भगवान की उपेक्षा भी करते हैं तब भी भगवान धैर्य रखते हुए उनकी रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं।

अनुवादक टिप्पणी -अन्तर्यामी एम्पेरुमान् के रूप में भगवान सदा जीवात्माओं के संग रहते हैं। पिळ्ळै लोकाचार्य ने मुमुक्षुप्पडि तिरुमन्त्रम् प्रकरणम् में नारायण शब्द की व्याख्या करते हुए दो दृष्टिकोण दर्शाये हैं। सूत्रम् १०० नीचे दिए गए निर्देशों को प्रस्तुत करते हैं जैसे मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) ने अपनी मूल पाठ के साथ टीका में समझाया है- प्रत्येक तत्व के आधार (अध:स्तर) होने के नाते, उनका परत्व (सर्वोत्तमता) का प्रकटीकरण होता है और सभी तत्वों में अन्तर्यामी (आत्मा का निवास) होने के नाते उनका सौलभ्य (सुबोधता/दयार्द्रता) प्रकट होती है। १०३ सूत्रम् में यह दर्शाया है कि एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) से हम भले ही विमुख हो जाए फिर भी वे हमारी देखभाल करेंगे। सूत्रम् १०४ में यह दर्शाया है कि जैसे दाई माता सदा ही धैर्यपूर्वक बच्चे के साथ होती है और जैसे ही बच्चा उससे दूर होता है, वह उसकी सहायता करती है वैसे ही भगवान सदा अन्तर्यामी  रूप में हमारे साथ रहते हैं और उचित मार्ग दिखाते हैं भले ही हम उन्हें स्वीकार करने में उत्सुक न हों।

स्नेह का अर्थ है शरणागतों के प्रति प्रेम। भक्ति का अर्थ है श्रेष्ठ के प्रति निष्ठा। आगे के दो सूत्रों में स्नेह और भक्ति को उदाहरण सहित समझाया गया है।

१३६- पेरुमाळै ओऴिय चेल्लामै पिऱन्दु व्यतिरेगत्तिले  मुडियुम् ‌‌चक्रवर्ती निलै- स्नेहम्।

वास्तविक स्नेह (मित्रतापूर्ण स्नेह) वियोग में असहनशील दु:ख का कारण बन जाता है -ऐसा स्नेह वियोग में अन्ततः प्राण त्याग का कारण बन जाएगा। उदाहरणतः चक्रवर्ती दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम के वियोग में अपने प्राण त्याग दिए।

अनुवादक टिप्पणी – दशरथ श्रीराम से अत्यंत स्नेह करते थे। श्रीराम स्वयं प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि दशरथनन्दन (दाशरथि) रुप में पहचान बहुत आत्मतुष्ट करती है। जब श्रीराम वनवास (जंगल में वास करना) के लिए छोड़ कर जाते हैं, दशरथ उस वियोग की पीड़ा को सहन नहीं कर पाए और उस असहनीय पीड़ा के कारण शीघ्र ही प्राण त्याग दिए। कुलशेखर आऴ्वार् ने पेरुमाळ् तिरुमोऴि के ९वें पदिगम् (दशक) में दशरथ की आत्मदशा का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है। इस पदिगम् में आऴ्वार् ने चीत्कार कर रोते हुए उन भावनाओं को प्रकट किया जो श्रीराम के वियोग में दशरथ ने अनुभव किया था। पवित्र आत्मा की प्रकृति पहचानने के कई गुणों में से यह एक महत्वपूर्ण गुण है कि एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) से वियोग को सहन न कर सकना जैसे कि चक्रवर्ती दशरथ के जीवन से प्रकट हुआ है।

१३७- “निल्” एन्न, “कुरुष्व” एन्नुम्पडियाय् मुऱैयऱिन्दु पट्रिन इळयपेरुमाळ् निलै- भक्ति।

जैसे ही श्रीराम वन की ओर जाने लगे, इळयपेरुमाळ् (लक्ष्मण) भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे, जब श्रीराम ने लक्ष्मण को पीछे चलने के लिए मना किया और वहीं ठहरने के लिए कहा तब लक्ष्मण श्रीराम के प्रति पूर्ण शरणागत होकर उनके साथ रहकर कैङ्कर्य में संलग्न रहने की प्रार्थना करने लगे। लक्ष्मण की यह अवस्था भक्ति (निष्ठा के साथ परम स्नेह) है।

अनुवादक टिप्पणी – दिव्य शास्त्र श्रीवचनभूषणम् में पिळ्ळै लोकाचार्य ने इळय पेरुमाळ् (लक्ष्मण) को  एम्पेरुमान् के एक पूर्ण निष्ठावान दास के रूप में प्रस्तुत किया है। 

•सूत्रम् ८० में उपेय (कैङ्कर्य करने के लिए) के अनेक सटीक उदाहरण प्रस्तुत करते समय, लक्ष्मण को ही सर्वप्रथम दर्शाया गया है। लक्ष्मण आदिशेष के (शेष शय्या- प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण दास) अवतार होते हुए, वे निरन्तर एम्पेरुमान् की सेवा के लिए एकाग्र रहते हैं।

• सूत्रम् ८३ में उनकी महिमा का आकर्षक वर्णन हुआ है। जैसे एक भूखा व्यक्ति पहले पके हुए और पकाए जाते हुए भोजन को भी खाना चाहेगा, वैसे ही श्रीराम के वन की ओर जाने के समय इळय पेरुमाळ् ने कहा कि “मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ और सदा दास बनकर रहना चाहता हूँ । आपके द्वारा दास को अपनी और सीता पिराट्टि की सेवा करने का आदेश देना ही होगा।” वे पेरुमाळ् और पिराट्टि के साथ वन को गए और बिना विश्राम किए सेवा करते रहे। वनवास से लौटने के बाद, श्रीराम जी के राज्याभिषेक के समय लक्ष्मण जी ने एक हाथ में वन्दनीय छत्र (जो राजाओं के सम्मान के लिए होता है) पकड़ा, दूसरे हाथ में पंखा पकड़ा और श्रीराम की सेवा करने लगे। क्योंकि वे श्रीराम जी की वनवास के समय से निरन्तर सेवा में लगे रहे, वे एक-दो कैंङ्कर्य से संतुष्ट नहीं थे- सदैव जितना हो सके उतना ज्यादा कैंङ्कर्य में संलग्न रहना चाहते थे। 

१३८- रक्ष्यवर्ग्गत्तिनुडैय रक्षणम् ओरु तलैयानाल्, तान् तन्नैप् पेणादे नोक्कुम् आश्चर्य भूतनानवनुडैय तिरुवडिगळैयल्लदु पट्रवरो।

भगवान को जीवात्मा के भरण-पोषण की अत्यधिक चिंता रहती है और वे भले ही उनकी महिमा कम हो जाए परंतु हम जीवात्माओं की रक्षा करते हैं। क्या कोई ऐसे उदार एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के चरण कमलों के अतिरिक्त किसी अन्य (अन्यान्य देवताओं) के प्रति शरणागत होगा?

अनुवादक टिप्पणी – जैसे कि १३४ और १३५ श्रीसूक्ति से ज्ञात हो चुका है, भगवान सभी जीवात्माओं के लिए चिन्तित रहते हैं और उनकी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। एक बार यह ज्ञात हो जाने के पश्चात् जीवात्मा स्वभावत: केवल श्रीमन्नारायण के चरण कमल में समर्पण कर देंगे। भगवान सुगमतापूर्वक प्रसन्न होने वाले हैं, यही भगवान की स्वाराधन की पहचान है। भगवान के चरण कमलों की शरण ग्रहण करने का सिद्धांत शास्त्र में पूर्णतः वर्णित है। शरणागति तो भगवान के चरण कमलों में ही होती है क्योंकि केवल भगवान के चरण कमल ही विश्वसनीय आश्रय हैं। नम्माऴ्वार् तिरुवाय्मोऴि १.२.१० में वर्णन करते हैं कि जीवात्माओं को श्रीमन्नारायण के चरण कमल जो बहुत ही महिमामय और विश्वसनीय हैं उन्हीं के प्रति समर्पित होना है- (वण्पुगऴ् नारणन् तिण् कऴल् सेरे) तिण् अर्थात् बहुत शक्तिशाली/स्थिर- एकबार उन चरण कमलों को पकड़ लें तो इस स्थिति से हम कभी भी नीचे नहीं गिरेंगे। पिळ्ळै लोकाचार्यर् मुमुक्षुप्पडि में द्वय महामंत्र का प्रथम भाग का वर्णन करते हुए सूत्र १४६ में कहते हैं “(पिराट्टियुम् अवनुम् विडिलुम् तिरुवडिगळ् विडादु,तिणकऴलायिरुक्कुम्)- भले ही पिराट्टि (बहुत दयालु हैं) और पेरुमाळ् (बहुत उदार हैं) हमें त्याग दें परन्तु एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के चरण कमल हमें नहीं छोड़ेंगे – वे हमारी सुरक्षा करेंगे। इसलिए जो इन सिद्धांतों को समझते हैं वे स्वभावतया भगवान के चरण कमलों में शरणागत होंगे । अगले सूत्र में पिळ्ळै लोकाचार्य वर्णन करते हैं कि जैसे सद्य:उत्पन्न बाल स्वाभाविकत: माता का स्तनपान के लिए इधर-उधर ढूंढता है जो कि उसके पालन और संतुष्टि का साधन है, वैसे ही दास अपने स्वामी (भगवान) के चरण कमलों को खोजता है जो कि उस जीवात्मा के पोषण और संतुष्टि का उपाय है।

१३९-श्रवण मननङ्गळ्तान् दर्शनसमानाकारत्तळवुम् चेन्ऱु निर्कुमिऱे।

श्रवणम् का अर्थ है कि आचार्य से वेदान्त के विशिष्ट तत्वों को सुनना। मननम् का अर्थ इन विशिष्ट तत्वों को अपने हृदय में दृढ़ता से ग्रहण करना। ये दोनों भक्ति की ओर ले जाकर अन्त में सुगमतापूर्वक भगवान के दर्शन प्राप्त कराएँगे।

अनुवादक टिप्पणी –बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है कि “द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निधि ध्यासितव्यः” निरन्तर श्रवण करना, जो सुना है उसका ध्यान करना और बुद्धि को पूर्ण/एकाग्र करके उसी विषय में  संलग्न करना, इससे व्यक्ति के हृदय में भगवान के दिव्य दर्शन होंगे। ध्रुव ने अपनी माता जी से भगवान की महिमा को सुना और वह वनों में उनको ढूँढने लगा, वहाँ वन में नारदमुनि की भेंट ध्रुव से होती है और ध्रुव को तिरु द्वदशाक्षरी मन्त्र (वासुदेव मन्त्र) के माध्यम से भगवान का ध्यान करने का निर्देश देते हैं। उन्होंने तब एकाग्रचित्त होकर भगवान का ध्यान किया। भगवान कृपापूर्वक उनके सामने प्रकट हुए और पूर्ण मङ्गलाशासन किया। हमारे पूर्वाचार्यों ने स्वयं भगवत्कालक्षेपम् (भगवत् चर्चा में समय बिताना) और भगवत् कैङ्कर्यम् में व्यस्त रखा और प्रत्येक क्षण एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के दिव्य गुणों का ही ध्यान करते थे।

१४०-ध्यानपररायिरुप्पार् ध्येय वस्तुवै विट्टुप् पुऱम्बे पोवारो।

ध्यानम् का अर्थ है कि बिना ध्यान भंग किए विशेष वस्तु पर एकाग्र रहना। जो ध्यान लगाता है क्या कोई वस्तु उसका ध्यान भङ्ग कर सकती है?

अनुवादक टिप्पणी –एकबार जब भगवान का वैभव (ध्येय वस्तु-ध्यान विषय) का ज्ञान हो जाता है, कोई कैसे भगवान का ध्यान करने से वञ्चित रह सकता है? विष्णु सूक्त के अनुसार “तत् विष्णो: परमम्पदम् सदा पश्यन्ति सूरय:”- श्रीवैकुण्ठम् में, जो परमधाम है (श्रीमन्नारायण का), नित्यसूरियों/मुक्तात्माओं को एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के निरन्तर दर्शन होते हैं। मुमुक्षुप्पडि सूत्रम् १०९ में पिळ्ळै लोकाचार्य ने इस विषय की बहुत सुन्दर व्याख्या की है।

“कण्णारक् कण्डु कऴिवदोर् कादलुट्रार्क्कुम् उण्डो कण्गळ् तुञ्जुतल्” एन्गिऱपडिये काण्बदर्क्कु मुन्बु उऱक्कमिल्लै। कण्डाल् “सदा पश्यन्ति” आगैयाले उऱक्कमिल्लै।

जो भगवान के दर्शन और उन तक पहुँचने की प्रबल इच्छा रखते हैं वे नेत्र बन्द करके निद्रित नहीं रह सकते क्योंकि भगवान को पाने के लिए उनकी बुद्धि (विचार) ऐसा करने के लिए अनुमति नहीं देती और जो नित्यसूरी हैं वे नेत्र बन्द नहीं करते क्योंकि भगवान के दिव्य और मङ्गल गुणों का नित्यानंद ले रहे हैं।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/09/divine-revelations-of-lokacharya-14/

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

Leave a Comment