चरमोपाय निर्णय – श्री रामानुज स्वामीजी ही उद्धारक है – 1

॥ श्री: ॥

॥ श्रीमते रामानुजाय नमः ॥
॥ श्रीमद्वरवरमुनयेनमः ॥
॥ श्रीवानाचलमहामुनयेनमः ॥
॥ श्रीवादिभीकरमहागुरुवेनमः ॥

श्रीशठकोप स्वामीजी,श्रीरामानुज स्वामीजी,श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ( आलवार तिरुनगरी )

 

श्री रामानुज स्वामीजी तिरुकुरुगइ पिरान पिल्लान को सहस्त्रगीति का कालक्षेप कर रहे थे। “ पोलिग पोलिग ” पाशूर का वर्णन करते समय पिल्लान अत्यन्त भावुक हो गये। इसे देखकर श्री रामानुज स्वामीजी ने इसका कारण पूछा । पिल्लान कहते है “ कलियुम केडुम ”, शठकोप स्वामीजी के अनुसार आपके अवतार से कली का नाश होगा । जब भी आपने सहस्त्रगीति का कालक्षेप किया है, आपने यह दर्शाया है कि आप ही वह महान आचार्य हैं जिसके बारे में शठकोप स्वामीजी ने कहा था । मैं कितना भाग्यवान हूँ कि मेरा सम्बन्ध आपके साथ है और आपसे साक्षात सहस्त्रगीति का अर्थ सुनने को मिल रहा है । इसका अनुभव करते हुये में भावुक हो गया । उस रात्री में रामानुज स्वामीजी पिल्लान को अपने सेवा के अर्चाविग्रह के सामने लेकर आये । अपने श्रीचरणों को पिल्लान के सिर पर रखकर सदैव इस पर ही अवलंबित रहने के लिये आज्ञा दी और जो भी तुम्हारे पास आयेगें उनको भी मेरे चरणारविन्दो का ही आश्रय लेने के लिये कहना । विष्णु पुराण ( विष्णु पुराण मे ६००० श्लोक हैं ) कि शैली में सहस्त्रगीति पर व्याख्या करने के लिये कहा । यहाँ पर रामानुज स्वामीजी ने स्वयं अपने उद्धारकत्व को पिल्लान के माध्यम से दर्शाया ।

श्री रामानुज स्वामीजी सहस्त्रगीति का कालक्षेप कर रहे थे, कुरेश स्वामीजी, दाशरथी स्वामीजी,देवराज मुनि उपस्थित थे । अनेक आचार्यों ने श्री रामानुज स्वामीजी का आश्रय लिया । यह सुनकर अनंतालवान, इचान, तोंडनूर नम्बी और मरुधुर नम्बी, श्री रामानुज स्वामीजी का आश्रय लेने के लिए श्रीरंगम आये ।श्री रामानुज स्वामीजी ने श्रीदेवराज मुनि से समाश्रित होने के लिये कहा । तब श्रीदेवराज मुनि कहते है कि “यह तो ऐसा है जैसे एक छोठी सी चिड़िया के सिर पर बड़ा फल रखना । मुझे कुछ भी नहीं आता है, मैं ज्ञानहीन हूँ, रामानुज स्वामीजी पर ही अवलंब रहिए वे ही आपको मोक्ष देगें । सदैव रामानुज स्वामीजी के चरणारविन्दो का स्मरण कीजिये और उनकी शरण ग्रहण कीजिये ।”

 

श्री रामानुज स्वामीजी कहते हैं, ऐसा कभी मत सनझना कि मैने आपका पंच संस्कार नहीं किया । श्रीदेवराज मुनि का पंच संस्कार करना मेरे पंच संस्कार करने के समान ही है । मै आपको भरोसा देता हूँ कि आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी । अपने चरणारविन्दो को बताकर कहा की सदैव इनके ऊपर ही निर्भर रहना ।

 

श्री रामानुज स्वामीजी शिष्यों के साथ मंगलाशासन के लिए तिरुमला जाना चाहते थे । अपने सेवा के अर्चाविग्रह से आज्ञा पाकर तिरुपति में प्रवेश किया । शठकोप स्वामीजी के कहे अनुसार “ विन्नोर वेर्प्पु ”, इस पर्वत पर नित्यसुरीगण आकर भगवान का कैंकर्य करते है, इस पाशूर का स्मरण करते हुये पर्वत पर जाने के लिए संकोच करते हुये रुक जाते है, वहाँ से ही वेंकटेश भगवान का मंगलाशासन करके श्रीरंगम के लिए प्रस्थान करने लगते है ।

अनतांलवान और अन्य शिष्यों ने स्वामीजी से विनती किया कि अगर आप नहीं जायेगें तो हम लोग भी नहीं जायेगें, और वहाँ का कैंकर्य रुक जायेगा। इसलिए आप तिरुमला के पर्वत पर जाकर मंगलाशासन कीजिये ।

 

शिष्यों के कैंकर्य भाव को देखकर उन्होंने तिरुमला जाने का निर्णय लिया । स्नान करके तिलक धारण किया और अत्यन्त उत्साह के साथ तिरुमला पर्वत के लिए प्रस्थान किया । (जैसे परमपद में भगवान की आज्ञा पाकर मुक्तात्मा शेषजी ( सिंहासन के रूप में रहते है ) पर चढते है, वैसे ही वेंकटेश भगवान की आज्ञा मानकर अत्यन्त उत्साह के साथ पर्वत पर चढ़ने लगे ।

श्री तिरुमला जाते ही स्वागत के लिये श्री शैलपूर्ण स्वामीजी आये, जैसे मुक्तात्मा परमपद में प्रवेश करते ही नित्यसुरिगण स्वागत के लिये आते है । ( यहाँ पर परमपद को भूलोक के दिव्यदेशों के साथ वर्णन किया गया है )

श्रीरामानुज स्वामीजी ने कहा कि आप ने यहाँ तक आने का क्यों कष्ट लिया, किसी बालक को भेज देते। तब श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी ने कहा कि पूर्ण तिरुमला मे मैने ढूंढा लेकिन मुझ से नीच आदमी और कोइ नहीं मिला इसलिये मैं स्वयं आया हूँ। वास्तव में आपका स्वागत करने के लिये एक मात्र श्रीवेंकटेश भगवान ही योग्य है । आपकी निर्हेतुक कृपा से आपने इस संसार में हम सबके उद्धार के लिये अवतार लिया है । मैं आपका स्वागत करने के योग्य भी नहीं हूँ, लेकिन भगवान की आज्ञा से मैं आपका स्वागत कर रहा हूँ ।

श्री वेंकटेश भगवान अर्चकों द्वारा रामानुज स्वामीजी का स्वागत करते है और पूछते हैं कि मैने दोनो विभूतियों का पूर्ण अधिकार आप के हाथ में सोंप दिया है, फिर यहाँ पर आने का क्या कारण है? रामानुज स्वामीजी कहते है “ आपके विभिन्न मुद्राओं के ( जिसमें आप शयन किये हैं, विराजमान है, खड़े है ) दर्शन का आनंद पाने के लिये आया हूँ । जिसमे आपने शयन मुद्रा का दर्शन श्रीरंगम में दिया है, खड़े हुये मुद्रा का दर्शन हस्तगिरि में दिया है। यहाँ पर तिरुमला में आप गुण निष्ठवाले ( जो सदैव भगवान के गुणानुभव में रहते है ) और कैंकर्य निष्ठवालोंको (जो सदैव भगवान के कैंकर्य में रहते है ) विशेष रूप में दर्शन दे रहे है ।

 

जैसे कि श्रीशठकोप स्वामीजी ने भी सहस्त्रगीति के ( ६.१०.१० ) में कहा कि“ अमरार मुनिक्कन्नगंल विरूम्बुम तिरुवेंकटने ”, याने गुणनिष्ठ और कैंकर्यनिष्ठ आपको चाहते है,ऐसी सुन्दरता का अनुभव करने हेतु आपके दर्शन के लिये आया हूँ ।

 

भगवान श्री रामानुज स्वामीजी की इच्छा पूर्तिकर सिर को चरणारविन्दो में रखने के लिये कहते हैं और कहते हैं कि  “ सदैव इनका स्मरण करना, तुम दोनो विभूतियों के नायक हो, सब लोगो पर कृपा करो, जो शरण में आते है उनको मोक्ष देना, जिसका सम्बन्ध आपके साथ है वे मेरे प्रिय होगें,उनको कोइ चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। मैने अनेक बार अवतार लेकर जीवात्माओं को सुधारने का प्रयत्न किया, लेकिन असफल रहा, मुझे प्रसन्नता है की आप जीवात्माओं को सुधार रहे है और भविष्य में भी सुधारेगें ।

यहाँ पर वेंकटेश भगवान ने श्री रामानुज स्वामीजी के उद्धारकत्व गुण का वैभव प्रकाशित किया है ।

श्री रामानुज स्वामीजी शिष्यों के साथ मंगलाशासन करने के लिये तिरुकुरुगुंडी आये । भगवान ने रामानुज स्वामीजी का स्वागत किया और पूछा,

बहुने मे व्यतीतानी जन्मानी तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणी नत्वम वेत्थ परन्तप ॥ ( गीता ४.५ )

 

याने मैने जीवात्माओं के उद्धार के लिये अनेक बार अवतार लिया, लेकिन मै इसमे असफल रहा । गीता (१६.२०) श्लोक के अनुसार

आसूरीं योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्येव कौन्तेय ततो यांत्यधमां गतिम ॥

 

असुरी योनि में जन्म लेने के कारण मेरे विषय में ज्ञान प्राप्त नहीं करते है । लेकिन सब लोग यहाँ पर तुम्हारा आश्रय लेके मुझे ही परतत्व के रूप में स्वीकार कर रहे है, आपने सबको मेरे सन्मुख कैसे किया ?ऐसा आपने क्या किया है मुझे भी इसका वर्णन किजिये। ”

रामानुज स्वामीजी कहते हैं “अगर आप जानना चाहते हो तो उचित मुद्रा में आकर पूछिये, ऐसे अभिमान के साथ पूछने से मैं बताने वाला नहीं हूँ।” ऐसा सुनकर भगवान तुरन्त सिंहासन से उतरकर नीचे आते है, श्री रामानुज स्वामीजी सिंहासन पर विराजमान होते है, सन्निधि में से सभी लोगों को बाहर भेजते है, रामानुज स्वामीजी से उपदेश देने के लिये विनंती करते है। तब रामानुज स्वामीजी कान में द्वय महा मंत्र का उपदेश देते है ।

भगवान ने कहा “ मैने बद्रिकाश्रम में नर ( शिष्य ) और नारायण ( आचार्य ) का अवतार लेकर मूल मंत्र का उपदेश दिया । उस वक्त मुझे शिष्य के बाद आचार्य भी बनना पड़ा । मुझे कोई योग्य आचार्य नहीं मिला जो कि मंत्रार्थ बता सके । उस इच्छा को आज आपने पूर्ण किया है । आज के बाद मै भी रामानुज सम्बन्धी हो गया हूँ । मै आज श्रीवैष्णव दास हो गया हूँ । भगवान रामानुज स्वामीजी के शिष्य बनते है, यहाँ पर भगवान के स्वतंत्र गुण का अनुभव होता है । भगवान जो प्रथम आचार्य है, वे स्वयं ही अत्यन्त उत्साह के साथ रामानुज स्वामीजी के शिष्य बनकर रामानुज स्वामीजी के उद्धारकत्व को प्रकाशित करते है ।

 

नादथुर अम्माल श्रीवैष्णवों को श्रीभाष्यम का कालक्षेप कर रहे थे । उस समय किसी ने पूछा “ भक्ति योग करना जीवात्मा के लिए अत्यन्त मुश्किल और कठिन है, ( इसके लिए अधिकारी होते है जैसे पुरुष , वर्ण etc , भगवान का स्मरण और कैंकर्य करना आवश्यक है ) और प्रपत्ती करना जीवात्मा के स्वरूप विरुद्ध है ( भगवान पर पूर्ण निर्भर रहते हुये भी मोक्ष के लिए स्वयं प्रयत्न करना ) ऐसी परीस्थिति में जीवात्मा मोक्ष कैसे पा सकता है ? नादथुर अम्माल कहते है “ जो दोनों को करने मे असमर्थ है, उन्हे श्री रामानुज स्वामीजी के सम्बन्ध का अभिमान ही मोक्ष दिलायेगा , मुझे इसमे पूर्ण रूप से विश्वास है।” अम्माल स्वामीजी अपने अंत समय में उपदेश करते है

“ प्रयाण काले चतुरस श्वशिष्यन पधाथीकास्थन वरधो ही विक्ष्य

भक्ति प्रपत्ति यदि दुष्करेव रामानुजार्यम नम तेत्यवदीत ” 

 

“ भक्ति और प्रपत्ति आप लोग नहीं कर पायेगें, सिर्फ रामानुज स्वामीजी का आश्रय लेकर पूर्ण रूप से अवलंब रहो आपको मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी। ”

सोमसीयाण्डान रामानुज स्वामीजी की शरण लेने के बाद कुछ दिनों तक कैंकर्य करने के बाद अपने निवास स्थान “ कराची ” के लिए प्रस्थान करते हैं और कुछ दिनों तक वहाँ पर विराजमान रहते हैं । कुछ दिनों के बाद वे पुनः रामानुज स्वामीजी के पास आना चाहते थे लेकिन उनकी पत्नी ने उन्हे जाने नहीं दिया। उन्होने रामानुज स्वामीजी का एक सुन्दर विग्रह बनाया लेकिन वह विग्रह सुन्दर नहीं बनने के कारण उसे छोड़ दिया, शिल्पी को जाकर विग्रह बनाने के लिए कहा। उस दिन रात मे रामानुज स्वामीजी ने स्वप्न में आकर कहा तुम नए विग्रह को बनाने के लिये पुराने विग्रह को नाश क्यों कर रहे हो, जहाँ भी हो अगर तुम्हें मेरे उद्धारकत्व में निष्ठा नहीं है तो मेरे अर्चा विग्रह में निष्ठा कैसे आयेगी ?

 

निद्रा से उठकर उस पुराने विग्रह को सुरक्षित जगह पर विराजमान कर रखकर, अपने पत्नी को छोड़कर श्रीरंगम के लिए प्रस्थान किया । श्रीरंगम आते ही रामानुज स्वामीजी के चरणों में गिरकर रोने लगे तब रामानुज स्वामीजी ने पूछा क्या हुआ, तब उन्होने अपने स्वप्न का वर्णन किया। तब स्वामीजी ने कहा तुम पत्नी पर सदैव अवलम्ब थे, उस अवलम्बता को दूर करने के लिए मैने ऐसे किया । अगर तूम यहाँ नहीं भी आते तो भी मुझे तुम्हारे प्रति अभिमान है, मेरे अभिमान के कारण तुम्हें मोक्ष अति सुलभ और सुगम है, घबराना मत सदैव प्रसन्न रहो ।

 

कनीयनूर सीरियाचन पूर्ण वस्त्रों  सहित स्नान करते हैं ( समान्यतः स्नान के पहिले वस्त्रों को बदला जाता है, कुछ विशेष प्रसंगों में जैसे चरम कैंकर्य, चक्र स्नान और सत्य को घोषित करते समय etc. पूर्ण वस्त्रों सहित स्नान करते हैं ) और सभी श्रीवैष्णवों को श्रीरंगम मंदिर के मण्डप में बुलाकर ,श्रीशठकोप को स्वीकार कर घोषित करते हैं कि

“ सत्यम सत्यम पुन सत्यम यतिराजो जगद्गुरु

स एव सर्वलोकानाम उद्धार्थ नाथर संशय ”

 

में तीन बार वचन लेता हूँ कि यतिराज ही पूर्ण जगत के आचार्य है, यतिराज ही सभी लोगो का उद्धार करनेवाले है,इसमे कोइ संशय नहीं है । सभी श्रीवष्णवों के सामने घोषित करते हैं कि प्रपन्न जनों को रामानुज स्वामीजी के चरणारविन्द ही रक्षक है और सद्गति देनेवाले है ।

– अडियेन सम्पत रामानुजदास,

– अडियेन श्रीराम रामानुज श्रीवैष्णवदास

source : https://granthams.koyil.org/2012/12/charamopaya-nirnayam-ramanujar-our-saviour-1/

2 thoughts on “चरमोपाय निर्णय – श्री रामानुज स्वामीजी ही उद्धारक है – 1”

  1. अति सुन्दर कैंकर्य भैय्याजी
    श्रीरामानुज स्वामीजी का मंगल हो।

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