चरमोपाय निर्णय – श्री रामानुज स्वामीजी ही उद्धारक है – 3

 

॥ श्री: ॥

॥ श्रीमते रामानुजाय नमः ॥
॥ श्रीमद्वरवरमुनयेनमः ॥
॥ श्रीवानाचलमहामुनयेनमः ॥
॥ श्रीवादिभीकरमहागुरुवेनमः ॥

 

 

 

एक बार श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी भगवान के गुणों का अनुभव करते हुये विराजमान थे, तब भट्टर स्वामीजी आकर साष्टांग करके पूछते हैं , आचार्य दो प्रकार के होते है ( कृपामात्र प्रसन्नाचार्य और स्वानुवृति प्रसन्नाचार्य ) और उनके साथ संबंध बनाने के लिए दो मार्ग है ( परगत शरणागति और स्वगत शरणागति ) इसमे आपका क्या विचार है ?

 

गोविंदाचार्य स्वामीजी ने कहा “ कृपामात्र प्रसन्नाचार्य ” ही मुख्य है और मोक्ष के लिए परगत शरणागति को ही अपनाना चाहिए । रामानुज स्वामीजी मे यह गुण परीपूर्ण रूप से विद्यमान है । आप मन में अभिमान के साथ यह मत सोचना कि रंगनाथ भगवान ने मुझे पुत्र के रूप में स्वीकार किया हैं, मैं कुरेश स्वामीजी का पुत्र हूँ, मैं शास्त्रों में परिपूर्ण रीति से परिणित हूँ, मुझे कोई चिंता नहीं है । इन सबका विचार न करते हुये, श्री रामानुज स्वामीजी ही मेरे उद्धारक है, इसका स्मरण करते हुये रहना जैसे मैं अभी कर रहा हूँ ।

 

एक बार भट्टर स्वामीजी वेदांती स्वामीजी को सहस्त्रगीति का कालक्षेप कर रहे थे। “ प्रत्यक्षे गुरूवस्तुते ”, अपने आचार्य के सन्निधि में आचार्य कि सेवा करनी चाहिये। वेदांती स्वामीजी भट्टर स्वामीजी से विनंती करते हैं कि आपके चरणारविन्द मेरे सिर पर रखिये । भट्टर स्वामीजी चरणारविन्द सिर पर रखकर कहते हैं कि मैंने तुम्हारे समाधान के लिये मात्र चरण रखे है, तुमको मोक्ष के लिये पूर्ण विश्वास के साथ रामानुज स्वामीजी के चरणों का ही आश्रय लेना पड़ेगा । जो कोइ भी संसारी जीवात्मा अगर रामानुज स्वामीजी का आश्रय नहीं लेगा वो इस संसार में भटकता ही रहेगा ।

 

इससे यह सिद्ध होता है कि मोक्ष के लिये रामानुज स्वामीजी का संबंध जरूरी है, दूसरे कोइ भी संबंध काम में नहीं आते है । इसका विश्लेषण रामानुज नूट्रन्दादि के ७९ वें पाशूर में भी है,

 

पोय्ये च्चूरक्कुम् पोरुलै त्तूरन्दु ,इन्द प्पुतलत्ते

मेयै प्पुरक्कु मिरामानुजन निर्क्क , वेरु नम्मे

उय्य क्कोलल वल्लदेयव मिंगियादे न्नुलन्दूर अवमे

ऐयप्पडा निर्प्पर्, वैयतूललोर नल्लरिविलन्दे  || ७९ ||

 

जब श्रीरामानुज स्वामीजी बौद्ध, जैन, अद्वैती, पाखंडीयों पर भी कृपा कर सारतम ज्ञान और मोक्ष देने के लिये तैयार है, तो यह संसारी लोग कौन से अन्य देव को मोक्ष पाने के लिये ढूँढ रहे हैं ।

इस पाशूर के अनुसार रामानुज स्वामीजी के अलावा भगवान ही मोक्ष दे सकते है । लेकिन चरम उपाय ( आचार्य ) सामने रहते हुये प्रथम उपाय ( भगवान ) को ढूँढना अज्ञानता होगी । इस प्रथम उपाय और अंतिम उपाय का वर्णन श्रीदेवराज मुनि द्वारा रचित ज्ञान सारम के ३३ वें पाशूर में करते है ।

 

इत्त इरुन्थ गुरूवै इरै एनरू अनरु विट्टू

ओर परनै विरुप्पूरुथाल

पोट्टेनंथन कन्न शेम्बलीथू कैथूरुथी निरथुवी

अम्बूथतै पार्थीरुप्पन अरु

 

इस पाशूर में स्वामीजी कहते हैं अपने आँखों के सामने विराजमान प्रत्यक्ष आचार्य को छोड़कर वेदों के द्वारा बताये गये परमपद में विराजमान भगवान को ढूँढना वैसा ही है जैसे कोइ प्यासा आदमी अपने सामने उपलब्ध जल को छोड़कर वर्षा के जल कि प्रतिक्षा करता है ।
वंगी परतू नम्बी स्वामीजी कहते है “जिस व्यक्ति को चरम उपाय ( आचार्य ) में निष्ठा नहीं है,उसे प्रथम उपाय (भगवान)में भी निष्ठा नहीं हो सकती है । लेकिन जिसे प्रथम उपाय ( भगवान ) में निष्ठा नहीं है उसे चरम उपाय (आचार्य ) में निष्ठा हो सकती है ।”

 

इसका अर्थ है “ जो आचार्य को जानकर आचार्य चरणों में निष्ठा नहीं बढ़ाता है, वह भगवान को भी नहीं जान पाता है । जिसका आचार्य के साथ संबंध नहीं है वह अपने स्वरूप ( भगवतदास ) को खो देगा । जिसको ‘ भगवददास ’ का स्वरूप ज्ञान नहीं है, उसको आचार्य चरणों में जाना आवश्यक है । लेकिन जिसको परिपूर्ण रूप से आचार्य निष्ठा है, उसको भगवान के प्रति अभिमान नहीं रहता है तो भी चलता है ( आचार्य के प्रति शिष्य कि निष्ठा देखकर भगवान को आनंद होता है, वे अपने प्रति निष्ठा कि अपेक्षा नहीं करते है)।”

 

इससे हम सिद्ध कर सकते है कि “ जिसका संबंध रामानुज स्वामीजी के साथ नहीं है, उसे भगवान भी स्वीकार नहीं करते है और उसके दोषों को देखते हुये छोड़ देते है, लेकिन रामानुज स्वामीजी वैसा नहीं करके जीवात्माओं पर कृपा ही करते है । जिसका संबंध रामानुज स्वामीजी के साथ है, उसे अलग से मोक्ष प्राप्ति के लिये भगवान कि दासता स्वीकार करने कि आवश्यकता नहीं है। ”

 

जिसको “देवु माररियेन ….. ”,(मुझे एक रामानुज स्वामीजी को छोड़कर कुछ भी मालूम नहीं है ) में निष्ठा है, उन्हे मोक्ष पका है । मैं उनके चरणों कि शरण ग्रहण करता हूँ । मधुरकवि स्वामीजी बताते है जैसे सोना सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण करता है , वैसे ही रामानुज स्वामीजी पारलौकिक इच्छा ( मोक्ष कि इच्छा ) को पूर्ण करते है। जो रामानुज स्वामीजी कि शरण में नहीं आयेगा वह ऐसे ही इस संसार में भटकता रहेगा ।

 

रामानुज स्वामीजी के चरणों का आश्रय लेने के बाद श्री रामानुज स्वामीजी के नामों को ही स्मरण करना चाहिये। श्री श्रीरंगामृत कवि   द्वारा रचित रामानुज नूट्रन्दादी में ऐसे अनेक नाम और वैभव आते है, जिसके अनुसंधान से रामानुज स्वामीजी के चरणों में निष्ठा बढ़ती है ।

 

प्रथम पाशुर में ही बताया गया है कि ,“ इरामानुजन शरणारविन्दम नाम्मन्निवाल,नेंजे शोल्लूवोमवन् नामंगले ”, याने रामानुज स्वामीजी के चरणों में आनंद से रहने के लिए रामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों का स्मरण करना चाहिये। नाम स्मरण करेगें तो ही चरणारविन्दों में मन लगेगा। श्रीरंगामृत कवि बता रहे है कि जो सदैव नाम स्मरण करते हुये चरणों में रहेगें  उनके लिये उपाय और उपेय दोनों एक हो जायेगें ( रामानुज स्वामीजी के चरणारविन्द ) ।

 

इस सिद्धान्त को ४५ वें पाशूर में कहते “ पेरोन्नु मत्तील्ले निनशरणन्नि, अप्पे रलीत्तर्कु आरोन्नु मिल्लै मत्त च्चर णन्नी ”याने आपके चरणारविन्द ही मेरे उपेय है और उपेय कि प्राप्ति के लिये उपाय भी चरणारविन्द ही है । इस पाशूर में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि एक बार चरम पर्व ( आचार्य ) में निष्ठा हो जाने के बाद प्रथम पर्व ( भगवान ) से कोइ संबंध नहीं रहता। ऐसी आचार्य निष्ठा को भगवत निष्ठा के साथ नहीं मिलाना चाहिये । जिनकी निष्ठा भगवान और आचार्य दोनों में होती है उनको ‘ इरूकरैयर ’ कहते हैं । श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी कुरेश स्वामीजी और दाशरथी स्वामीजी को  ‘ इरूकरैयर ’ कहते थे ।

 

आंध्रपूर्ण स्वामीजी श्री रामानुज स्वामीजी को साष्ठांग कर उनके श्रीचरणों में विराजमान होते हैं । रामानुज स्वामीजी ने कहा आंध्रपूर्ण स्वामीजी मेरे लिये मधुरकवि स्वामीजी कि तरह है । रामानुज स्वामीजी ने पूछा आचार्य निष्ठा कैसी होनी चाहिये। तब स्वामीजी ने कहा आचार्य निष्ठा मधुमक्खी कि तरह होनी चाहिये । मधुमक्खी कि  जिन्दगी कड़ुवे नीम के पेड़ पर ही अवलंबित रहती है न कि ईख के पौधे पर । वैसे ही शिष्य पूर्ण रूप से आचार्य पर ही अवलम्ब रहते है, जैसे मधुमक्खी को कितना भी कष्ट होने पर नीम के पौधे का आश्रय नहीं छोड़ती है वैसे ही

अगर आचार्य नाराज भी हो जाते है, डांटते है तो भी शिष्य उनका आश्रय नहीं छोड़ता ।

 

यहाँ पर सिद्ध होता है कि जिसको आचार्य अभिमान है और मन, वचन और कर्म से रामानुज स्वामीजी कि सेवा करता है, उस जीवात्मा को रामानुज स्वामीजी को छोड़कर दूसरे कि याद भी नहीं आती है । सबको मोक्ष देनेवाले रामानुज स्वामीजी का आश्रय लेने के बाद दूसरे किसी कि आवश्यकता नहीं रहती है ।

 

इस बात को श्रीरंगामृत कवि रामानुज नुट्रन्दादी कि ९५ वें पाशुर बता रहे है “ पल्लुयिर्क्कम विण्णिन तलैनिन्नु विडलीप्पा नेम्मीरामानुजन ………”,याने जो भवसागर से पार होना चाहते हैं और मोक्ष की इच्छा रखते हैं उनके उद्धार के लिए ही श्रीरामानुज स्वामीजी परमपद से इस संसार में पधारे हैं ।

 

कलिवैरिदास स्वामीजी रामानुज स्वामीजी के सन्निधि में जाकर रामानुज नुट्रन्दादी का निवेदन करके शातुमोरा का  निवेदन करते है। रामानुज स्वामीजी के मुखारविन्द को देखते हुये कृपा करने की प्रार्थना करते हैं । उस रात को रामानुज स्वामीजी स्वप्न में आते हैं, अपने चरणारविन्दो को कलिवैरिदास स्वामीजी के सिर पर रखते हैं और कहते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति के लिये सदैव इन पर ही अवलम्ब रहना, तुम्हारे शिष्यों को भी मेरे चरणारविन्दो का आश्रय लेने के लिये बताया । इस पूर्ण द्रुष्टांत को कलिवैरिदास स्वामीजी ने पेरियावाचन पिल्लै को बताया ।

 

कलिवैरिदास स्वामीजी के अंतिम समय मे पेरियावाचन पिल्लै स्वामीजी से कुछ अंतिम कृपा करने की प्रार्थना करते हैं  । कलिवैरीदास स्वामीजी कहते हैं – जब हमने रामानुज स्वामीजी का आश्रय लिया है, तो इससे अधिक और क्या चाहिये, सदैव इसका स्मरण करते हुये कालक्षेप करना, जैसे मुझे मोक्ष कि प्राप्ति हो रही है वैसे तूम्हें भी मोक्ष कि प्राप्ति होगी ।

 

– अडियेन सम्पत रामानुजदास,

– अडियेन श्रीराम रामानुज श्रीवैष्णवदास

 

source : https://granthams.koyil.org/2012/12/charamopaya-nirnayam-ramanujar-our-saviour-3/

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