विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवानाचलमहामुनये नमः
श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-english/ यहाँ पर हिन्दी में देखे सकते है ।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १

गीताचार्य (भगवान कृष्ण) अर्जुन को प्रपत्ति का तत्त्व समझा रहे हैं

श्रीरामानुज स्वामीजी प्रपत्ति के तत्त्वों को शरणागति गद्य और श्री गीता भाष्य के जरिये श्रीशठकोप स्वामीजी के पाशुर का उपयोग करके विस्तार से समझाते हैं

10) प्रपत्ति निष्टनुक्कु कर्मात्युपायंगल विरोधी – वह जो प्रपत्ति पर केन्द्रित है उसके लिये कर्म, ज्ञान, भक्ति जैसे उपाय आदि विरोधी है।

11) प्रपत्ति उपाय निष्टनुक्कु इतरोपायंगल विरोधी – वह जिसने प्रपत्ति को उपाय माना उनके लिये अन्य उपाय (जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति) विरोधी है।
इस संसार से निरन्तर जन्म / मरण के चक्कर से छुटकार और परमपद पहूँचकर भगवान की नित्य मंगलमय सेवा करने को मोक्ष कहते है। ऐसे मोक्ष को प्राप्त करने के लिये बहुत उपाय हैं। शास्त्र में ४ उपायों को मुख्य माना गया है – कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग और प्रपत्ति।

कर्म योग – ३ त्याग के साथ शास्त्र के आदेश पर चलते हुए यानि कर्तृत्त्व त्याग (मैं कर्ता हूँ), ममता त्याग (यह मेरी जिम्मेदारी है) और फल त्याग (परिणाम मेरा है) और भगवान कि सेवा ऐसे कार्य करके करना कर्म योग कहलाता है।

ज्ञान योग – कर्म योग करने से मन पवित्र हो जाता है और सभी को आत्मा का सही स्वभाव मालुम होगा। ऐसी परिस्थिति में निरन्तर ध्यान करने की अवस्था को ज्ञान योग कहते है।

भक्ति योग – यह समझना कि परमात्मा अनन्तकाल तक जीवात्मा में है और बिना रुके भगवान के प्रति निरन्तर प्रेम भक्ति बताना भक्ति योग कहलाता है।

आगे, दिव्यदेश में वास करना और अर्चावतार भगवान की सन्निधी में दीपक लगाकर सेवा करना, पुष्प हार बनाना और उन्हें प्रेम से अर्पण करना, मंदिर की सफाई करना, आदि मोक्ष प्राप्ति के लिये समझाया गया है।

तिरुनाम संकिर्तन (भगवान के कई नामों का भजन करना) मोक्ष प्राप्ति का एक बहुत सुन्दर जरिया है। यह भीष्म पितामह युधीष्ठिर को कुरूकक्षेत्र में बताते हैं।

परन्तु यह सब जीवात्मा के स्वतन्त्र प्रयत्न से ही मिल सकता है। जब तक जीवात्मा यह जरिया देख नहीं लेता परिणाम स्थापित नहीं किया जा सकता। जीवात्मा भगवान को यह कार्य करके प्रसन्न करता है और भगवान अन्त में जीवात्मा को मोक्ष प्रदान करते है। यह सभी विधी बहुत बड़ी है – मोक्ष प्राप्त करने के लिये बहुतों को तो कई जन्म लेने पड़ते हैं।
प्रपत्ति – भगवान के निकट जाना और उनकी प्रार्थना करना कि “प्रिय भगवान मेरे पास आपको देने के लिये कुछ भी नहीं है जिसके बदले आप मुझे मोक्ष प्रदान करें। मैं आप को छोड़ कही भी नहीं जा सकता। मैं आपको मेरा रक्षक स्वीकार करता हूँ। कृपा कर इस गरीब आत्मा को आशीर्वाद दे”। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में इस दशा को इन पाशुरों में समझाते है नोट्र नोन्पिलेन नुण्णरिविलेन, आगिलुम इनि उन्नै विट्टु आंरूम आट्र किंरिलेन अरविन अणै अम्माने और “तिउवेंगतत्ताने! उन्नदीक्कीझमरन्तु पुगुन्तेने”। आलवंदार अपने स्तोत्र रत्न में भी यही बताते है “त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये”

“शरणं प्रपद्ये” में कोई “शरण लेने कि क्रिया” यह सोच सकता है। परन्तु यह सच नहीं है। प्रपत्ति में स्वयं भगवान ही उपाय है। शास्त्र में शरणागति को इस तरह बताया गया है “’त्वमेव उपाय भूतों मे भव इति प्रार्थना मति:” – शरण होना यानि “प्रार्थना करना और यह विश्वास रखना कि आप ही मेरे उपाय है”। भगवद् गीता में भगवान यह आज्ञा करते है कि “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” – पूर्णत: सभी उपायों को त्यागकर सिर्फ मुझे ही उपाय रूप में स्वीकार करो। इसलिए १०वें पॉइंट के व्याख्या में वंगी पुरत्तु नम्बी कहते है “सरवेस्वरं (उपाय को स्थापित करना) जो प्रपत्ति शब्द के परिणाम से निकलता है वह उपाय ही है”।
सिद्धमं यानि जो स्थापित हुआ है – जैसे खाना तैयार और परोसा गया हो। साध्यम यानि “स्थापित करना” – जैसे बिना पका हुआ चावल, दाल आदि जिसे अलग से पकाना और पाना (खाना) हो। भगवान को उपाय रूप में स्वीकार करना सिद्धोपाय वरणं कहलाता है। इसे शरणागति, प्रपत्ति कहते है। इसलिये भगवान स्वयं को प्रपत्ति और सिद्धोपाय समझाते है ऐसा १०वें व्याख्या मे कहा गया है।

वह जो दूसरे उपाय जैसे कर्म, ज्ञान भक्ति, आदि का अनुसरण करते हैं (बजाय भगवान को उपाय रूप में स्वीकार करना) वह उपायान्तर निष्ठा कहलाता है। वह जिसे भगवान पर पूर्ण विश्वास हो उन्हें इन सब उपायों में पड़ना बाधा है। साध्यम – स्व प्रयत्न से प्राप्त करना।
यहाँ हम एक मुख्य पहलू को ध्यान में रखें। शास्त्र में जो भी कर्म करने का निर्देश हुआ है उसका पालन करना। उनका त्याग करना यानि बहुत बड़ी भूल है। यह स्वयं भगवान की आज्ञा का उलंघन है। हर एक को यह सोचना चाहिये कि “मैं यह कर्म भगवान कि आज्ञा से पालन कर रहा हूँ यह उसके प्रति कैंकर्य है”। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पड़ी के २७१ सूत्र में बताते है “कर्मम कैंकर्यत्तिल पुगुम” (सभी प्रपन्नों को शास्त्रानुसार सभी कैंकर्य करना भगवान के प्रति सेवा ही है)।

अनुवादक टिप्पणी: यहाँ हमें सिद्ध साधनं और साध्यं (साध्य साधनं) के बीच अन्तर को समझना चाहिये।

  • सिद्ध साधनम (सिद्धोपायम) – सिद्धं यानि वह जो पहले से ही स्थापित हुआ है – पहुँचने के लिए तत्पर है। उदाहरण के तौर पर प्रसाद जो तैयार किया है और परोसने के लिये तैयार है। सभी को केवल प्रसाद को ग्रहण करना है। भगवान हमेशा हैं और सब जीवात्मा पर कृपा करने के लिये तत्पर रहते है (हमें केवल उसे ग्रहण करना है)। भगवान कि कृपा को स्वीकार करने को सिद्धोपाय वरणं कहते है। इसे शरणागति, प्रपत्ति कहते हैं। इसलिये भगवान को प्रपत्ति शब्द वाच्यन ऐसा समझाया गया है (वह जो प्रपत्ति शब्द से बताया गया है) और सिद्धसाधना भूतन (एक स्थिति जो उपाय रूप मे स्थापित है)
  • साध्य साधनम (साध्योपायम) – साध्य यानि सम्पूर्ण करना। एक उदाहरण है चावल, तरकारी, दाल आदि होना – अगर अच्छा प्रसाद बनाना है तो इन सब को पकाना पड़ता है। सभी उपाय जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि तत्त्व है जो मनुष्य को पाने कि कोशिश करना है। केवल जीवात्मा के अनुसरण करने से यह उपाय स्थापित हो सकते है।

और एक भेद यह है की भगवान परम चेतन (श्रेष्ठतम जानकारी रखनेवाले) है वह ही अन्तिम निर्णय ले सकते है। बाकि सब उपाय अचित (जिन्हें अपने बारें में कोई ज्ञान नहीं है) है। कोई एक उपाय करने से भगवान प्रसन्न होकर उन्हें मोक्ष प्रदान करते है।

12) भगवत कर्मनिष्ठनुक्कु देवतान्तरा कर्मनिष्टै विरोधी वह जो भगवान के कैंकर्य के लिये केन्द्रित है, दूसरे देवताओं कि सेवा करना विरोधी है।

श्रीमन्नारायण जो सर्वेश्वर है और सब के लिये श्रेष्ठ है उन्हें “देव” (भगवान) ऐसे संबोधित करते है। ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि को भी देवता ऐसे बुलाते है पर वें भी जीवात्मा है। जैसे गरीब जन अमीर लोगों के पास धन के लिये जाते है उसी तरह यह देवता भी एक साधारण मनुष्य के बराबर एक उच्च पद पर है और आम जन इन देवताओ के पास कुछ सांसारिक लाभ कि अपेक्षा लेकर जाते है। इन देवताओं को भी भगवान श्रीमन्नारायण ने हीं नियुक्त किया है जैसे श्रीभक्ताघ्रिरेणु स्वामीजी तिरुमालै के १०वें पाशुर में कहते है “नाट्टिनान् देय्वम एङ्गुम…अथ देय्वमांगलाग ताने” भगवान श्रीमन्नारायण जो देवो के देव है इन देवताओ को लोगों के कल्याण के लिये नियुक्त किया है। इन्हें देवतांतरंगल (अन्य देवता) कहते है।

दैवनायक भगवान् और् दिव्य महिषीयों

जब हम अपना काम भगवान का कैंकर्य समझकर करें तो भगवान अति प्रसन्न होते है और उनके चहरे पर प्रसन्नता दिखायी देती है। यह हमारे लिये काल्पनिक है। भगवान के मुख पर प्रसन्नता को देखना हमारे जीवन का मूल उद्देश होना चाहिये। इससे हम यह समझ सकते है कि देवतान्तर (श्रीमन्नारायण छोड़ अन्य देव) का कार्य करना भगवद कैकर्य में विरोधी है।
अनुवादक टिप्पणी: इस तत्त्व में सब को शास्त्र विहित कर्म (कार्य को शास्त्र ने स्थापित किया है) और अन्य में भेद है यह समझना चाहिये। इसे हम उदाहरण के साथ देखेंगे।

हम (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) संध्या वंधन दिन में तीन बार करते है। इसमें भी कुछ देवताओं जैसे अग्नि, सूर्य, इन्द्र, वरुण आदि को अर्पित किया जाता है परन्तु हम यह देखते है कि भगवान श्रीमन्नारायण उन देवताओ में अंतरयामी रूप में है। परन्तु हमारे पूर्वाचार्यों ने यह नित्य कर्म भगवान का कैंकर्य समझकर किया क्योंकि यह हमारे वर्णानुसार अनिवार्य है। इसलिये जो भी नित्यकर्म (संध्या वंधन, आदि) और नैमितिक कर्म (तर्पण, आदि) है उसे करना चाहिये। परन्तु हमें उनके मंदिरों में देवतान्तर का कार्य कभी नहीं करना चाहिए। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी इसके लिये एक सुन्दर उदाहरण देते है। यह ६००० पड़ी गुरु परम्परा प्रभावम में है।
एक बार कोई श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के पास जाकर पूछते है कि “आप सब जन केवल भगवान श्रीमन्नारायण कि हीं पूजा करते हो। परन्तु आप देवताओं जैसे अग्नि, इन्द्र आदि कि पूजा नित्य/नैमितिक कर्म करते समय करते हो, तो आप देवताओं कि पूजा मन्दिर में क्यों नहीं करते हो?”।

  • श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी समझाते है कि “सुनो! दोनों में यह भेद है जैसे यज्ञ/ होम से अग्नि को स्वीकार करना और स्मशान कि अग्नि को अस्वीकार कर देना”। यज्ञ से उत्पन्न अग्नि पवित्र है परन्तु जलते हुए शव से उत्पन्न अग्नि अपवित्र होती है, हालाकि यह दोनों अग्नि हीं तो है।
  • वह आगे समझाते है “जो भी नित्य कर्म निभाया जाता है उसे शास्त्र में भगवान कि आराधना ऐसा समझाया गया है। परन्तु मन्दिर में देवतान्तर कि उपस्थिती में यह दोष है अ) जिन्होंने यह मन्दिर का निर्माण किया है वह तामसी स्वाभाव वाला होता है और उसे भगवान और अन्य देवतओं में फर्क का पता नहीं होता है और आ) उन्होंने आगम शास्त्र का प्रयोग किया होगा जो भगवद् तत्त्व के विपरीत है और देवताओं को स्वतन्त्र ऐसा स्थापित किया होगा”।
  • आगे वें कहते है “शास्त्र में देवताओं को पूजने हेतु कोई नियम नहीं है (नित्य/नैमितिक कर्म के बाहर)। इसलिये यह प्रपन्नों को करने के लिये ठीक नहीं है। और शिवजी देवताओं में सबसे पहिले है जिन्हें नहीं पूजना चाहिये। क्योंकि वह पूर्णत: तमो गुणी है जो सत्व गुण के विपरीत है। इसलिये मंदिरों में वह पूजे नहीं जाते क्योंकि ऐसा समझा जाता है की वह भगवान मे ही समाये है (अंतर्यामी रूप में)”।

अन्त में वह कहते है “हम नित्य/नैमितिक कर्म का क्यों त्याग करें जबकी वह हमारे में सत्वगुण को बढ़ाते है और देवतान्तर पूजा को क्यों अपनाये जबकी वह हमारे भगवद् कैंकर्य में बाधा लाते है”। इससे हम यह समझ सकते है कि मंदिरों में देवतान्तर कि पूजा अगर वें वेदागमन शास्त्र से भी क्यों न बने हो प्रपन्नों को क्यों नहीं करनी चाहिये ।

इस दिन और युग में यहाँ प्रति दिन रोज नये देवता का जन्म होता है। यहाँ बहुत ढोंगी गुरु भी है जो वेद को प्रमाण न मानकर अपने तत्त्व विचार सिखाते है। प्रपन्न अपने बडो (विद्वानों) से पूछे और उसी मार्ग पर चले जो हमारे पूर्वाचार्यों ने बताया है न कि जन्म मरण के चक्कर में फसना है।

13). भगवद् कैंकर्य निष्ठानुक्कु देवतान्तरा भजन विरोधी वह जो भगवद् कैंकर्य में केन्द्रित है इतर देवताओ कि आराधना करना विरोधी है।
प्रणव जो सब वेदों के तत्त्व है यह स्थापित करता है कि जीवात्मा केवल भगवान श्रीमन्नारायण के लिये हीं हुए है जो सब उत्पन्न के कारण है, सब के रक्षक है और सबसे श्रेष्ठ है। अत: भगवान का कैंकर्य करना जीवात्मा का स्वाभाविक गुण है। ऐसे लोग जो भगवद् कैंकर्य में निरत है देवताओं से सम्बन्ध रखना विरोधी है।

अनुवादक टिप्पणी: “पतिम विस्वस्य” (पूरे संसार के स्वामी) इस व्याख्या में प्रमाण दिया गया है। सामान्यत: पति यानि “स्वामी/नाथ”। एक स्त्री के विवाह के पश्चात वह पूर्णत: अपने पति के शरण हो जाती है और दूसरे किसी के बारें में सोच भी नहीं सकती। उसी तरह जब जीवात्मा को अपने स्वरूप ज्ञान हो जाता है कि वह भगवान का दास है तब उसको भगवान के पूर्णत: शरण होना चाहिये। अत: ऐसे समझने के पश्चात जीवात्मा को देवतान्तर से कुछ लेना देना हीं नहीं है। यह कुछ भी नहीं श्रीपरकाल स्वामी पेरिया तिरुमोलि में “maRRumOr dheyvam uLadhenRu iruppArOdu uRRilEn” यह समझाते है कि मैं उन जनों से कोई रिश्ता नहीं रखूँगा जो यह विचार भी करते है कि भगवान श्रीमन्नारायण को छोड़ भी कोई भगवान है। हर एक को देवतान्तर निष्ठा से बचना चाहिये।

14) भगवद उपाय निष्ठानुक्कु प्रपत्ति विरोधी – जो भगवान को हीं उपाय मानता है और स्वयं के कर्म के आत्मसमर्पण को उपाय मानता है वह विरोधी है।
हम यह १० और ११वें पॉइंट में देख सकते है। वह जो भगवान को उपेय और उपाय मानता है वह उत्तम अधिकारी है। भगवान स्वयं आज्ञा करते है “त्वमेव शरणं व्रजेत” (केवल भगवान के हीं शरण आवो) और “मामेकं शरणं व्रज” (केवल मेरे हीं शरण आवो)। ऐसे जनों के लिए उनका स्वयं के कर्म के आत्मसमर्पण होना “प्रपद्ये” में बताया गया है वह उपाय नहीं है। एक व्यक्ति जो कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि का अनुसरण करता है उसे मध्यम अधिकारी कहते है। वह जो स्वयं के प्रपत्ति को उपाय समझता है वह मध्यम अधिकारी के श्रेणी में आता है। यह प्रपन्नों के लिये विरोधी है – कर्म, ज्ञान, भक्ति योग आदि जैसे समान है।

15) साध्योपाय निष्ठानुक्कु निवृत्ति विरोधी – वह जो कर्म, ज्ञान, भक्ति योग, आदि पर केन्द्रित है स्वयं का प्रयत्न को त्यागना विरोधी है।

16) सिद्धोपाय निष्ठानुक्कु प्रवृत्ति विरोधी – वह जो भगवान को उपाय मानता हो स्वयं का प्रयत्न करना विरोधी है।
सिद्धोपाय और साध्योपाय को समझने के लिये कृपया १० और ११वें पॉइंट को देखे।

  • प्रवृत्ति यानि स्वयं का प्रयत्न पर केन्द्रित रहना।
  • निवृत्ति यानि स्वयं के प्रयत्न से बाहर आना।.
  • साध्योपाय निष्ठा – वह जो स्वयं के प्रयत्न से लक्ष्य प्राप्त करना चाहता है ।
  • सिद्धोपाय निष्ठा – वह जो भगवान (वह हीं उपाय है ऐसे स्थापित हो गया है) को उपाय रूप में अपनाता है और यह चाहता है कि भगवान उसे इस संसार बन्धन से मुक्त करें जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में समझाते है “कळैवाय् तुन्बम् कळैयातोळिवाय् कळैकण् मट्रिलेन्”। प्रपन्न कोई भी ऐसा कार्य नहीं करेंगे यह सोचकर कि वह उपाय समझकर कर रहे है। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में घोषणा करते है “चेयता वेलवियर” – इसे संस्कृत में ऐसे समझाया गया है “कृत कृत्य”- वह जो सब आवश्यक कार्य कर चुका है। प्रपत्ति के लिये मुख्य परिभाषा यह है कि “स्वयं के प्रयत्न को त्यागना”।

साध्योपाय (वह जो कर्म योग आदि में लगा है) स्व प्रयत्न का त्याग नहीं कर सकते। उन्हें लक्ष्य प्राप्ति के लिये निरन्तर निभाना है। इन्हें स्व-प्रयत्न का त्याग करना विरोधी है।

परन्तु सिद्धोपाय के लिये यह विरुद्ध है। लक्ष्य प्राप्ति के लिये वह स्व-प्रयत्न में निरत नहीं रह सकता। ऐसा स्व-प्रयत्न उनके लिये विरोधी है।
यह प्रवृत्ति और निवृत्ति के तत्त्व श्रीवचन भूषण में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी ने ८०-८२ सूत्र में समझाया है और आगे के सूत्र में “अधिकारी कृत्य – अधिकारी निष्ठा क्रम” समझाया है।

अनुवादक टिप्पणी: श्रीवचन भूषण दिव्यशास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी ने उपाय और उपेय के लिये सुन्दर उदाहरण दिये है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि सूक्ष्म व्याख्या इन तत्त्व के लिये बहुत अमूल्य है। इसे हम देखेंगे।

  • उपाय के लिये (यानि भगवान को उपाय मानना) माता सीता, द्रौपदी और श्री तिरुक्कण्णमंगैयांडान् आदर्श उदाहरण है।
    • माता सीता ने अपनी सारी शक्ति को त्याग दिया। वह इतनी शक्तिशाली थी कि वह आसानी से लंका और रावण का सर्वनाश कर सकती थी। परन्तु माता ने श्रीराम के आने और उन्हें बचाने कि प्रतिक्षा की।
  • द्रोपदी ने अपनी सारी शर्म छोड़कर और अपने दोनों हाथो को उपर उठाकर पूर्ण विश्वास के साथ भगवान को बुलाया कि भगवान कृष्ण हीं आकर उसकी रक्षा करेंगे और उसकी रक्षा भी हुयी।
  • श्री तिरुक्कण्णमंगैयांडान् ने अपना सारा स्व-प्रयत्न / कार्य को त्याग दिया और तिरुक्कण्णमंगै भक्तवत्सल भगवान कि सेवा की। उन्होंने दो कुत्तों को झगड़ते देखा और यह देख उन कुत्तों के मालिक भी झगड़ने लगे। यह देख आण्ड़ान ने विचार किया कि “अगर इन कुत्तों के मालिक इन कुत्तों को बचाने के लिये आ सकते है तो मेरे मालिक (भगवान) मेरी रक्षा और पोषण करेंगे? मैं क्यों इस संसार में लगु ?” और उसी वक्त सब कुछ त्याग दिया।

आडाण्न – उनके ब्रुन्दावनम् में, तिरुक्कण्णमंगै

  • उपेय के लिये (भगवद् कैंकर्य में लगना), श्रीलक्ष्मणजी, श्री जटायुजी, श्रीपिल्लै तिरुनरैयूर रैयर् और चिंतयन्ती आदर्श उदाहरण है।
    • श्रीलक्ष्मणजी श्रीरामजी के साथ साथ हर जगह जाते थे और उनकी निरन्तर सेवा करते क्योंकि वह अपने आप को भगवान का कैंकर्य किये बिना दूर नहीं रह पाते।
  • श्रीजटायु महाराज और श्रीपिल्लै तिरुनरैयूर रैयर् ने माता सीता कि रक्षा और भगवान के अर्चा अवतार कि रक्षा हेतु अपने देह का बलिदान दिया ।
  • चिंतयन्ती एक गोपिका है जो कृष्ण को देखने हेतु अपने तिरुमाली को छोड़ नहीं पा रही थी भगवान कि बासुरी कि धुन से वंचित रह गयी और इसी क्रिया में बहुत दु:ख और भगवान से न मिलने के कारण अपना देह त्याग दिया।

अडियेन केशव रामानुज दासन्

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