तुला मास अनुभव – महद्योगी आलवार – मून्ऱाम् तिरुवंतादी

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

यह लेख महदयोगी आलवार के मून्ऱाम् तिरुवंतादी के लिए श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा लिखे गए अवतारिका (प्रस्तावना) का सीधा अनुवाद है। श्री कलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा रचयित इन व्याख्यानों को खोजने, उनके प्रकाशन और इन अद्भुत व्याख्यानों पर सुगम तमिल निरूपण प्रदान करने के अथक प्रयासों के लिए श्री यू.वे. एम. ए. वेंकटकृष्णन स्वामी को धन्यवाद।

कृपया सरोयोगी आलवार के मुदल तिरुवंतादी के अवतारिका का अध्ययन करने के लिए https://granthams.koyil.org/2015/10/21/thula-anubhavam-poigai-azhwar-hindi/ पर देखें।

कृपया भूतयोगी आलवार की इरण्डाम तिरुवंतादी के अवतारिका का अध्ययन करने के लिए https://granthams.koyil.org/2015/10/22/thula-anubhavam-bhuthathazhwar-hindi/  पर देखें।

नम्पिल्लै- तिरुवेल्लिक्केनी

नम्पिल्लै- तिरुवेल्लिक्केनी

महद्योगी आलवार बताते है कि सरोयोगी आलवार और भूतयोगी आलवार की कृपा से उन्हें भगवान के दिव्य दर्शन प्राप्त हुए, जो श्री महालक्ष्मीजी के प्रिय पति है और जो रत्नाकर के समान है (रत्नाकर अर्थात सागर – यहाँ भगवान का वर्णन रत्नाकर के रूप में किया गया है – जैसे सागर अनेकों रत्नों से युक्त होता है, भगवान भी उसी प्रकार अपार दिव्य गुणों से परिपूर्ण है)। इस तिरुवंतादी के दिव्य अनुभवों को पूर्ण रूप से समझना अत्यंत दुष्कर है, क्यूंकि श्रीलक्ष्मीजी के साथ भगवान के दिव्य दर्शन करने के पश्चाद, यह प्रबंध, महद्योगी आलवार के त्वरित स्फूर्त भावनात्मक बहाव (जो क्रमानुसार नहीं है) की अभिव्यक्ति है। इस सहज वाक्-शैली के कारण उन्हें पेयर भी कहा जाता है (वह जो अपने वचनों में संसक्त नहीं है और विचित्र प्रतीत होते है)। कुलशेखर आलवार बतलाते है कि “पेयरे एनक्कू यावरुम् यानुमोर पेयने एवर्क्कुम …..पेयनायोळीन्तेन एम्बिरानुक्के” – भौतिवादी मनुष्यों का सांसार के प्रति मोह, आलवार को अत्यंत विचित्र प्रतीत होता है और सांसारिक मनुष्यों को आलवार का व्यवहार विचित्र प्रतीत होता है क्यूंकि वे केवल भगवान के ही आश्रित है।

तिरुक्कोवलुर पुष्पवल्ली तायार और देहालिसा भगवान

तिरुक्कोवलुर पुष्पवल्ली तायार और देहालिसा भगवान

भगवान द्वारा की गयी दिव्य कृपा से जनित निष्कपट ज्ञान (जो भक्ति में परिवर्तित हुआ) का परिणाम है – सरोयोगी आलवार की मुदल तिरुवंतादी (यह पर-भक्ति की अवस्था है)। भूतयोगी अलावार इरण्डाम तिरुवंतादी के अंतिम पासूर में दर्शाते है “एनरान अलवंरै यानुदैय अनबू” – यहाँ आलवार भगवान से प्रार्थना करते है कि “आपके प्रति मेरा भक्तिमय प्रेम स्वयं मुझसे भी बृहत है” – यह अवस्था पर-भक्ति की चरम अवस्था को दर्शाती है (जो पर-ज्ञान की अवस्था का प्रारंभ है)।

स्वाभाविक रूप से, अगली अवस्था भगवत साक्षात्कार है (पर-भक्ति का परिणाम)। महद्योगी आलवार बताते है कि भगवान ने स्वयं ही कृपा करके श्री लक्ष्मीअम्माजी सहित अपने दर्शन प्रदान किये।

सरोयोगी आलवार ने बताया है कि भगवान, नित्य (पारलौकिक जगत) और लीला (लौकिक जगत) दोनों विभूतियों के स्वामी है। भूतयोगी आलवार ने बताया है कि सकल जगत के स्वामी सिर्फ नारायण ही है। यहाँ, महद्योगी आलवार बताते है कि नारायण में “श्रीमत्” उक्ति का प्रयोग करने पर ही भगवान श्रीमन्नारायण कहाए।

वैयम तगली ” (मुदल तिरुवंतादी का प्रथम पासूर) इस ज्ञान को दर्शाता है कि भगवान ही सभी के नाथ है और अन्य सभी भगवान के दास है, उनके अधीन है। “अन्बे तगली” (इरण्डाम तिरुवंतादी का प्रथम पासूर) यह ज्ञान की उस परिपक्व दशा को समझाता है, जो है पर-भक्ति (चरम प्रेममय भक्ति)। और मून्ऱाम् तिरुवंतादी इसकी अगली अवस्था को समझाती है जो है भगवत साक्षात्कार प्राप्त करना (दिव्य दर्शन)।

सरोयोगी आलवार ने भगवान के स्वभाविक स्वरुप – शेषी (स्वामित्व) को समझाया है (वे सकल जगत के नियंत्रक है)। भूतयोगी आलवार ने जीवात्मा के स्वभाविक स्वरूप – शेष-भूत (दासत्व) को समझाया है (जीवात्मा भगवान के अधीन है)। महद्योगी आलवार, श्रीलक्ष्मी अम्माजी के स्वभाव को समझाते है, जो भगवान और जीवात्मा के गुणों की निमित्त अर्थात श्रीलक्ष्मीजी यह सुनिश्चित करती है कि भगवान सभी की रक्षण करें और जीवात्मा अपना स्वाभाविक स्वरुप समझकर भगवान के चरणाश्रित हो जाये – इसलिए यहाँ इस प्रबंध में श्रीलक्ष्मी अम्माजी का भगवान से संबंध समझाया गया है।

जिस प्रकार भगवान द्वारा सागर मंथन किये जाने के फल स्वरुप देवताओं को अमृत की प्राप्ति हुई, उसी प्रकार महद्योगी आलवार भी सरोयोगी आलवार और भूतयोगी आलवार के दीप प्रज्वलित करने के प्रयासों से समृद्ध हुए और भगवान संग अम्माजी के अमृतमय स्वरूप के दर्शन किये।

इस प्रकार श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा लिखी मून्ऱाम् तिरुवंतादी की अवतारिका पूर्ण हुई।

अब हम संक्षेप में कुरुगै कावलप्पन द्वारा रचित मून्ऱाम् तिरुवंतादी की तनियन देखते है। तनियन प्रायः प्रबंध के रचयिता और उस प्रबंध के वैभव को दर्शाती है।

महदयोगी आलवार - म्यलापुर

महदयोगी आलवार – म्यलापुर

सिरारुम माडत तिरुक्कोवलुर अधनुल
कारार करुमुगिलैक काण्प पुक्कु
औरात तिरुक्कण्देन एन्रू उरैत्त सिरान कलले
उरैक काण्डाय नेनज्छु उगंदू

शब्दार्थ: कुरुगै कावलप्पन अपने मन से कहते है “है मन ! कृपया महद्योगी आलवार के चरणकमलों की महिमा का प्रसन्नता से गुणगान कर, जिन्होंने अत्यंत सुंदर तिरुक्कोवलुर दिव्यदेश में सुंदर काले मेघ के समान श्यामल स्वरुप श्रीमन्नारायण के दिव्य दर्शन प्राप्त किये”।

आइये अब हम इन अवतारिकाओं के सार को संक्षेप में देखते है। यहाँ मुख्य विषय भक्ति की तीन विभिन्न अवस्थायें –परभक्ति, परज्ञान और परम भक्ति को समझाने से सम्बंधित है। जैसा की स्वयं नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी ने समझाया है कि, यद्यपि सभी अलावारों ने इन सभी अवस्थाओं को अपने में प्रकट किया (क्यूंकि वे सभी भगवान द्वारा प्रदत्त विशुद्ध ज्ञान से परिपूर्ण है), तथापि भक्ति की इन तीन अवस्थाओं को तीनों दिव्य प्रबंध के प्रथम पसूरों में समझाया गया है। यह श्रीशठकोप आलवार द्वारा प्रत्येक दिव्यदेश के अर्चावतार भगवान के किसी विशेष गुण का अनुसंधान करने के समान है यद्यपि भगवान के सभी अर्चावतारों में सभी दिव्य गुण निहित है। (कृपया इसके संक्षिप्त विवरण के लिए https://granthams.koyil.org/2012/11/archavathara-anubhavam-nayanar-anubhavam/ पर देखें और विस्तृत विवरण के लिए  https://docs.google.com/file/d/0ByVemcKfGLucWnNuNVJiRkdXa0E/edit?usp=sharing पर देखें)। हम अगले खण्डों में भक्ति की इन तीन अवस्थाओं के गहरे अर्थों को अपेक्षाकृत विस्तृत रूप में समझ सकेंगे।)

अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार ने भक्ति की तीनों अवस्थाओं के विषय में आचार्य ह्रदयं नामक अपने सुंदर ग्रंथ में समझाया है, जो श्रीशठकोप आलवार के दिव्य ह्रदय को दर्शाती है।

श्रीशठकोप आलवार (कांचीपुरम) - नायनार (एक चित्रपट) - श्रीवरवरमुनि स्वामीजी (कांचीपुरम) श्रीशठकोप आलवार (कांचीपुरम) – नायनार (एक चित्रपट) – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी (कांचीपुरम)

वे तीन अवस्थाओं को चूर्णिका 233 में निम्न प्रकार से समझाते है।

इवै ज्ञान दर्शन प्राप्ति अवस्तैगल।

शब्दार्थ: परभक्ति, परज्ञान और परम भक्ति का संबंध ज्ञान (भगवान के विषय में विशुद्ध ज्ञान), दर्शन और प्राप्ति (एक क्षण के लिए भी भगवान का वियोग सहन करने में असमर्थ) से है।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने ग्रंथ शरणागति गद्य में श्रीभाष्यकार की दिव्य प्रार्थना और श्री रंगनाथ द्वारा उसके प्रतिउत्तर का उल्लेख करते हुए, इस सिद्धांत को अत्यंत सुंदरता से समझाया है।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बताते है कि – श्रीरामानुज स्वामीजी, भगवान रंगनाथ से प्रार्थना करते है “परभक्ति परज्ञान परमभक्ति एक स्वभावं माम् कुरुष्व ” – कृपया मुझ पर कृपा कर परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति से परिपूर्ण कीजिये। श्रीरंगनाथ भगवान उन पर कृपा कर उनसे कहते है “मतज्ञान दर्शन प्राप्तिशु निस्संशयस्सुखमास्व ” – बिना किसी संशय के आपको सदा ज्ञान, दर्शन और प्राप्ति का सुख प्राप्त होगा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, इन तीनों अवस्थाओं की अत्यंत स्पष्ट व्याख्या करते है:

  • पर भक्ति – ज्ञान – भगवान की सन्निधि में रहने पर प्रसन्न होना और उनके वियोग में उदास होना।
  • पर ज्ञान – दर्शन – अपने मन में भगवान के स्वभाव, स्वरुप, गुण, धन आदि का दिव्य दर्शन करना।
  • परम भक्ति – प्राप्ति – अन्तः दर्शन के आनंद के पश्चाद, भगवान से वियोग को सहन करने में असमर्थ होकर त्वरित अपने प्राणों का परित्याग करना।

इस तरह हमने मुदलालावारों के गौरवशाली जीवन और तीनों तिरुवंतादियों के लिए नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी के अवतारिका के माध्यम से उनके दिव्य प्रबंधनों की झलक देखी।

मुदल आलवारों के चरित्र और वैभव को https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2014/06/04/mudhalazhwargal/ पर देखा जा सकता है।

मुदल आलवारों के अर्चावतार अनुभव को https://granthams.koyil.org/2012/10/archavathara-anubhavam-azhwars-1/ पर देखा जा सकता है।

-अदियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/10/aippasi-anubhavam-peyazhwar/

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