तुला मास अनुभव – पिल्लै लोकाचार्य – मुमुक्षुप्पडि

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

तुला मास के पावन माह में अवतरित हुए आलवारों/ आचार्यों की दिव्य महिमा का आनंद लेते हुए हम इस माह के मध्य में आ पहुंचे है। इस माह की सम्पूर्ण गौरव के विषय में पढने के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/thula-masa-anubhavam-hindi/ पर देखें। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सुंदर “व्याख्यान अवतारिका”(व्याख्यान पर परिचय) के माध्यम से अब हम अत्यंत कृपालु पिल्लै लोकाचार्य और उनकी दिव्य रचना मुमुक्षुप्पडि के विषय में चर्चा करेंगे।

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अत्यंत दयालु आचार्य – श्रीशठकोप आलवार, श्रीरामानुज स्वामीजी, पिल्लै लोकाचार्य, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी

पिल्लै लोकाचार्य ने प्रमुख रूप से 18 रहस्य ग्रंथों (गोपनीय सिद्धांतों) की रचना की है। इन 18 ग्रंथों में से, मुमुक्षुप्पडि, तत्व त्रय और श्रीवचन भूषण को कालक्षेप ग्रंथों के रूप में जाना जाता है। कालक्षेप ग्रंथ से आशय उन ग्रंथों से है जिनका अध्ययन आचार्य की सन्निधि में शब्दशः, व्याख्यानों और विवरणात्मक समीक्षा के माध्यम से किया जाये।

इन 3 ग्रंथों का संक्षेप इस प्रकार है:

  • मुमुक्षुप्पडि ग्रंथ, तिरुमंत्रम, द्वयमंत्र (श्रीमन्नारायण चरणौ शरणं प्रपद्ये; श्रीमते नारायणाय नमः) और चरमश्लोक (सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज; अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुचः) रूपी तीन रहस्यों का अत्यंत सटीक अभिलेख है।
  • तत्व त्रय ग्रंथ को कुट्टी भाष्य (अर्थात लघु श्रीभाष्य) के रूप में भी जाना जाता है क्यूंकि यह ग्रंथ, श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा रचित श्रीभाष्य (जो वेद व्यास के ब्रह्म सूत्र का व्याख्यान है) में समझाए गए सिद्धांतों के सार का वर्णन करता है। इस ग्रंथ में तीन मूलभूत सिद्धांतों के विषय में चर्चा की गयी है – चित (जीवात्मा), अचित (पदार्थ) और ईश्वर। इस ग्रंथ का संक्षेप वर्णन https://granthams.koyil.org/thathva-thrayam-english/ पर देखा जा सकता है।
  • श्रीवचन भूषण,एक अत्यंत ही वृहद ग्रंथ है,जो श्रीवैष्णव संप्रदाय के महत्वपूर्ण पक्षों की विवेचना करती है जैसे कि श्रीलक्ष्मीअम्माजी का पुरुष्कार (जीवात्मा को भगवान के शरण कराने का श्रीलक्ष्मी अम्माजी का कृपामय स्वभाव), भगवान का उपयात्व (भगवान को प्राप्त करने के लिए स्वयं भगवान ही साधन है), श्रीवैष्णव लक्षण, श्रीवैष्णवों की महिमा और अंततः आचार्य अभिमान (आचार्य की कृपा)।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने पिल्लै लोकाचार्य के इन 3 ग्रंथों के लिए विस्तृत और श्रेष्ठ व्याख्यान की रचना की है, जो अत्यंत गहन है और इस दिव्य ज्ञान की चाहना रखने वालों के लिए आनंददायी है।

इस भूमिका के साथ, आइये अब हम श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित मुमुक्षुप्पडि के परिचय के अनुवाद को देखते है।

मुमुक्षुप्पडि का सामान्य परिचय

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श्रीवैकुंठ में नित्यसूरियों द्वारा सेवित परमपदनाथ

सर्वेश्वर भगवान, श्री महालक्ष्मीजी के स्वामी है, वे नित्य और मुक्तों द्वारा सेवित, सदैव प्रसन्नचित, श्रीवैकुंठ (जहाँ नित्य आनंद है) में विराजते है। इस आनंदमय स्थिति में भी, वे संसार में प्राणियों को देखकर व्यथित होते है, जो परमपद के नित्य आनंद प्राप्त करने के लिए योग्य होते हुए भी इस अस्थायी संसार में असत् (जो ब्रह्म को नहीं जानते, वे मात्र अवचेतन, बिना बुद्धि के, जड़ वस्तु के सामान ही है) के समान रह रहे है, जिन्हें इस स्वर्णिम अवसर के विषय में कोई ज्ञान नहीं है। प्रलय के समय जीवात्मा विवेक और देह रहित होकर, उस पक्षी के समान हो जाती है जिसके पंख नहीं है (जो कुछ भी नहीं कर सकता), उन्हें इस प्रकार देखकर भगवान अत्यंत दुखी होते है और उनका कल्याण करने की कृपा करते है।

  • प्रथमतय वे जीवात्मा पर कृपा कर उसे विवेक और देह प्रदान करते है। विवेक और देह के अभाव में, जीवात्मा कोई भी कार्य करने में असमर्थ है। इसलिए भगवान सर्वप्रथम उन्हें विवेक और शरीर प्रदान करते है।
  • उसके पश्चाद, भगवान उस विवेक और देह का उचित उपयोग करने की सुगमता प्रदान करते है। भगवान, वेदों का ज्ञान प्रदान करते है और स्मृति, इतिहास, पुराण आदि के माध्यम से उसका विस्तृत व्याख्यान भी प्रदान करते है। शास्त्रों के अध्ययन एवं उनमें उल्लेखित सिद्धांतों के अनुसरण के द्वारा, प्राणी परमपद में भगवान को प्राप्त कर सकता है। वेदों के अपरिहार्य रूप से कुछ अद्वितीय गुण है। वे निम्न है:
  1. अपौरुषेयम् – इनकी रचना किसी प्राणी विशेष द्वारा नहीं की गयी। भगवान ने भी वेदों के रचना नहीं की (क्यूंकि वेद नित्य/ सदैव विद्यमान है) – भगवान वेदों के उत्कृष्ट ज्ञाता है और प्रत्येक सृष्टि (रचना) के समय, वे इसे उद्घाटित करते है। अनंत काल से सृष्टि (रचना), स्थिति (पालन) और प्रलय (संहार) का चक्र चलता आ रहा है।
  2. नित्यम् – वह जो सनातन है और सदैव विद्यमान है। क्यूंकि वेद अपौरुषेयम् है, वे सदैव विद्यमान है।
  3. निर्दोषम् – निष्कपट/ निष्कलंक – वेदों में वर्णित सभी निर्णय उत्तम है, क्यूंकि वे अपौरुषेयम् है। दोष की उत्पत्ति तब होती है, जब उनकी रचना किसी प्राणी द्वारा की जाती है, जिसमें भ्रम, विप्रलम्भम (छल – कपट करने की प्रवृत्ति), प्रमाद (उपेक्षा), अशक्ति (अयोग्यता) आदि भाव निहित होते है। (टिपण्णी: यद्यपि विभिन्न प्राणियों पर उनके स्वभाव (सत्व – अच्छाई, रजस् – राग, तमस् – आज्ञान) के अनुसार विभिन्न पक्ष प्रयुक्त होते है, परंतु वेदों में किंचित मात्र भी दोष नहीं है।
  4. स्वत: प्रमाणं – वेदों को स्थापित करने के लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है – वेदों में वर्णित सभी निर्णय स्वतः ही प्रमाणित है।
  • अपने कल्याणार्थ शास्त्रों की आज्ञा से ज्ञान का विकास करना और उनके अध्ययन हेतु अनेकों नियमों और निर्देशों का अनुसरण करना अत्यंत दुष्कर है, यह जानकार भगवान स्वयं कृपा कर आचार्य (प्रथम आचार्य) का रूप धारण कर, अत्यंत सुलभ शैली में सभी शास्त्रों का सारतत्व दर्शाये है। इस प्रकार, उन्होंने स्वयं ही सभी महत्वपूर्ण रहस्यों को प्रकट किया, जो निम्न सिद्धांतों को समझाते है:
  1. स्वरुप – भगवान और जीवात्मा का स्वभाव
  2. उपाय – भगवान को प्राप्त करने का साधान
  3. पुरुषार्थ – सेवा/ कैंकर्य ही चरम उपेयम्

भगवान ने ही श्रीबद्रिकाश्रम में नारायण ऋषि के रूप में नर ऋषि को (जो भगवान के ही अंश है), श्री तिरुमंत्र का उपदेश किया।

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श्री विष्णुलोक में उन्होंने अपनी प्रिय श्रीमहालक्ष्मीजी को द्वयमंत्र का उपदेश किया।

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कुरुक्षेत्र के रण में उन्होंने रथ के समीप श्रीकृष्ण के रूप में अर्जुन को चरम श्लोक का उपदेश प्रदान किया।

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भगवान द्वारा स्वीकार किये गए इस आचार्य रूप के फलस्वरुप ही, हम अपनी गुरु परंपरा के प्रारंभ में प्रथमाचार्य (प्रथम आचार्य) के रूप में उनका स्मरण करते है, जैसा कि श्रीकुरेश स्वामीजी द्वारा “लक्ष्मीनाथ समारंभाम् (श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी से प्रारंभ करते हुए)” तनियन में दर्शाया गया है।

यद्यपि यह रहस्यत्रय आकार में सूक्ष्म है, तथापि उनमें अत्यंत गूढ़ अर्थ निहित है। इन अर्थों को किसी सुयोग्य आचार्य/ प्रबुद्ध विद्वान से ही श्रवण करना चाहिए और इस प्रकार के उचित अध्ययन के द्वारा ही हमारा कल्याण हो सकता है। इसलिए हमारे पूर्वाचार्यों ने अत्यंत ध्यान से रहस्यत्रय को अभिलिखित किया है। ऐसे ही महान आध्यात्मिक गुरुओं के वंश में प्रकट हुए, श्री पिल्लै लोकाचार्य ने अपनी निर्हेतुक कृपा से, उन सभी महत्वपूर्ण सिद्धांतों का उल्लेख इस ग्रंथ (मुमुक्षुप्पडि) में किया है।

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पिल्लै लोकाचार्य – श्रीरंगम

इस ग्रंथ की रचना करने से पूर्व, उन्होंने इन रहस्यत्रय को तीन विविध ग्रंथों द्वारा समझाया है – याध्रुच्चिकप्पदी, श्रिय:पतिप्पदी और परंत-पदी। इनमें याध्रुच्चिकप्पदी अत्यंत संक्षेप रचना थी और परंत-पदी अत्यंत विवरणात्मक। यद्यपि श्रिय:पतिप्पदी न अत्यधिक दीर्घ थी, न ही अधिक संक्षेप थी तथापि वह संस्कृत वर्ण (वेदों) की शब्दावली से निहित थी, जो महिलाओं और अन्य मनुष्यों के अध्ययन के लिए मान्य नहीं थी। किसी ऐसे ग्रंथ की रचना की अभिलाषा से, जिसमें यह अभाव नहीं हो, पिल्लै लोकाचार्य ने अपनी निर्हेतुक कृपा से मुमुक्षुप्पडि नामक इस अत्यंत सुलभ ग्रंथ की रचना की।

इसीलिए, सभी प्रबंधनों (ग्रंथों) में, यह मुमुक्षुप्पडि सभी के लिए प्रमुख है। इसके अतिरिक्त, इस ग्रंथ में वह सिद्धांत भी समझाए गए है, जो पूर्व प्रबंधनों में नहीं थे – इसलिए इस ग्रंथ की बहुत महिमा है।

द्वय प्रकरण का परिचय (द्वय महामंत्र की व्याख्या करने वाला खंड)

प्रथम रहस्य तिरुमंत्र के अर्थ को समझाने के बाद, पिल्लै लोकाचार्य ने कृपापूर्वक द्वय महामंत्र के दिव्य अर्थ को समझाया, जो उपाय और उपेय के स्वभाव को प्रदर्शित करता है, जो क्रमशः तिरुमंत्र के द्वितीय पद (नमः) और तृतीय पद (नारायण) में बताये गए है।

स्वयं पिल्लै लोकाचार्य ने अपने विगत 3 प्रबंधनों में क्रमशः तिरुमंत्र, चरम श्लोक और द्वय मंत्र को समझाया है, परंतु इस प्रबंधन में, वे चरम श्लोक से पूर्व द्वयमंत्र के अर्थ की व्याख्या करते है – क्यों? दोनों क्रम हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा समझाए गए है। पेरियवाच्चान पिल्लै ने अपने ग्रंथ, परंत रहस्य में और वादी आदि केसरी अलगिय मणवाल जीयर ने अपने रहस्य ग्रंथों में यह क्रम अपनाया है – तिरुमंत्र, द्वय और चरम श्लोक।

इन दो विविध क्रमों के पीछे क्या सिद्धांत है? इसके 2 अभिप्राय है:

  1. इन तीन रहस्यों को मंत्र, विधि और अनुष्ठान रहस्य के रूप जाना जाता है। तिरुमंत्र, मंत्र स्वरुप है (मंत्र वह है जिसके ध्यान से स्वयं के वास्तविक स्वरुप का अनुभव होता है), चरम श्लोक, विधि/ निर्देश स्वरुप है (इसके द्वारा भगवान दर्शाते करते है कि हमारे लिए क्या त्यागने योग्य है और क्या अनुसरण करने योग्य है) और द्वय महामंत्र, अनुष्ठान स्वरुप है (निरंतर अभ्यास करने योग्य)।
  2. तिरुमंत्र को दो प्रकरण में विभाजित किया जाता है – प्रणवं (ओमकारम्) और नमो नारायण (जो मंत्र का शेष है)। नमः पद – जो उपाय के विषय में बताता है और नारायण पद – जो उपेय के विषय में बताता है, इन्हें द्वय मंत्र के दो चरणों में समझाया गया है। इसके पश्चाद, द्वय महामंत्र के 2 चरणों को चरम श्लोक के दो खण्डों में समझाया गया है।

इसलिए दोनों ही क्रम उपयुक्त है। क्यूंकि पिल्लै लोकाचार्य ने अपने प्रथम 3 प्रबंधनों में इन्हें एक प्रकार के क्रमानुसार समझाया है (तिरुमंत्र,चरम श्लोक, द्वयं), इसलिए अन्य क्रम के अनुरूप(तिरुमंत्र, द्वयं, चरम श्लोक)व्याख्या करने की अभिलाषा से उन्होंने इस ग्रंथ (मुमुक्षुप्पडि) में द्वयमंत्र के महत्त्वपूर्ण अर्थों का रहस्योद्घाटन प्रारंभ किया।

चरम श्लोक प्रकरण का परिचय (चरम श्लोक की व्याख्या करने वाला खंड)

द्वितीय रहस्य, द्वयं की व्याख्या के पश्चाद, श्री पिल्लै लोकाचार्य चरम श्लोक समझाना प्रारंभ करते है, जिसका सार इस प्रकार है –

  • यह परम गोपनीय ज्ञान है,
  • यह गीतोपनिषद का अत्यधिक महत्वपूर्ण पक्ष है, गीतोपनिषद महाभारत का सार है जो पंचम् वेद के नाम से भी प्रचलित है,
  • यह द्वय महामंत्र का विस्तृत रूप है –
  1. द्वय मंत्र का प्रथम चरण जीवात्मा द्वारा श्रीमन्नारायण भगवान के चरण कमलों को अपने कल्याण का उपाय स्वीकार करने पर केन्द्रित है। यह उपाय चरम श्लोक के प्रथम चरण में स्वयं भगवान द्वारा आदेश किया गया है। उसी प्रथम चरण में भगवान दो अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों का भी प्रतिपादन करते है:
              • भगवान के अतिरिक्त किसी भी अन्य उपाय (कर्म, ज्ञान, भक्ति योग, आदि) का निष्ठापूर्वक त्याग करना
              • भगवान को अपना उपाय स्वरुप स्वीकार करना ही जीवात्मा का स्वाभाविक स्वरुप है, न की स्वयं द्वारा की गयी शरणागति को उपाय मानना (भगवान ही उपाय है, हमारे द्वारा उनकी शरणागति स्वीकार करने का स्व-प्रयास उपायस्वरुप नहीं है)

2. द्वय मंत्र का द्वितीय चरण श्रीमन्नारायण भगवान के मुखोल्लास हेतु स्वार्थ रहित कैंकर्य करने पर केन्द्रित है। नित्य कैंकर्य में सदैव संलग्न रहने हेतु, संसार से निवृत्ति अनिवार्य है और नित्य कैंकर्य प्राप्त करने के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करने का आश्वासन भगवान स्वयं प्रदान करते है।

चरम श्लोक के अर्थों को प्राप्त करने हेतु, श्रीरामानुज स्वामीजी, 18 बार श्रीरंगम से तिरुक्कोष्टियूर नम्बी के निवास स्थान, तिरुक्कोष्टियूर चलकर गये।

तिरुक्कोष्टियूर नम्बी चरम श्लोक के गहन अर्थों के लिए अत्यंत चिंतित रहते थे और उन्हें इस अत्यंत गोपनीय सिद्धांत को प्राप्त करने योग्य उपयुक्त अभ्यार्थी नहीं जँच रहा था। श्रीरामानुज स्वामीजी के आस्तिक्य (शास्त्र के प्रति उनकी श्रद्धा और विश्वास) को जांचने के लिए, नम्बि ने उन्हें 18 बार यात्रा करवाई, फिर उनसे शपथ लेने के लिए कहा कि वे इन अर्थों को किसी भी अयोग्य व्यक्ति को प्रदान नहीं करेंगे और अंततः चरम श्लोक के अत्यंत गोपनीय अर्थों को बताने के पहले उनसे एक महीने तक उपवास कराया।

श्रीरामानुज स्वामीजी के पहले पूर्वाचार्य चरम श्लोक के गोपनीय अर्थों को नहीं बताते थे क्यूंकि उन अर्थों को जानने के योग्य बहुत कम प्रत्याशी थे और यह अर्थ अत्यंत गूढ़ है। चरम श्लोक प्राप्त करने के योग्य और उपयुक्त अभ्यार्थी में निम्न योग्यताएं उपस्थित होनी चाहिए:

  • पुर्णतः सिर्फ सत्व गुणी होना
  • भगवान से प्रति संपूर्ण प्रीति और निष्ठा
  • सांसारिक सुखों से पुर्णतः निवृत्ति
  • प्रमाणों (वेदों आदि) पर पुर्णतः दृढ रहना
  • भगवान की अद्भुत लीलाओं को श्रवण करने पर उन पर सम्पूर्ण विश्वास करना
  • अत्यंत उच्च आस्तिक प्रवृत्ति (आस्तिक्य – शास्त्र के प्रति श्रद्धावान, आस्तिकों में सबसे उच्च – अग्रणी)

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तिरुक्कोष्टियूर नम्बी ने श्री रामानुज स्वामीजी की करुणा से प्रसन्न होकर,
उन्हें एम्पेरूमानार नाम प्रदान किया

परंतु श्रीरामानुज स्वामीजी ने संसारियों (बद्ध जीवों) के कष्टों को देखकर और दया और करुणा से अभिभूत होकर, उनके कष्ट उन्मूलन हेतु, चरम श्लोक के गहन अर्थों को सबके सामने उद्घोषित किया। चरम श्लोक के अर्थों की उनके द्वारा उद्घोषणा करने के कारण ही तिरुक्कोष्टियूर नम्बी ने उन्हें “एम्पेरूमानार” नाम से संबोधित किया।

यद्यपि श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा इसे दर्शाया गया है और अन्य पूर्वाचार्यों द्वारा भी समझाया गया है, तथापि पिल्लै लोकाचार्य, ने प्रत्येक प्राणी के कल्याणार्थ अपनी असीम कृपा से, अपने अनेकों प्रबंधनों में इन दिव्य अर्थों का संग्रह किया है। अन्य प्रबंधन, जो समझने में कठिन है उनके समान न होकर, इस प्रबन्ध में, उन्होंने सिद्धांतों की अत्यंत सुगमता से व्याख्या की है जिससे प्रत्येक प्राणी इन सिद्धांतों को सुलभता से समझ सके।

इस प्रकार मुमुक्षुप्पडि का अत्यंत भव्य, परिचय खंड यहाँ समाप्त होता है। इन गोपनीय सिद्धांतों को अत्यंत सुगमता से समझाने वाले, पिल्लै लोकाचार्य के अत्यंत कृपामय स्वभाव का हमें अभिवादन करना चाहिए। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अतिरिक्त कृपा कर, मुमुक्षुप्पडि के इन दिव्य सूत्रों को अत्यधिक स्पष्टता से सबके समझने और जीवन में उसे अपनाने के योग्य बनाया। इस ग्रंथ के सिद्धांतों को पुर्णतः समझने के लिए इनका अध्ययन आचार्य के सानिध्य में करना ही सबसे हितकर है। आइये हम भी ऐसे महान आचार्य के चरण कमलों में प्रणाम करें और उनकी कृपा प्राप्त करें।

-अदियेन भगवती रामानुजदासी

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