श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमद वरवरमुनये नम:
श्री वानाचल महामुनये नम:
हम तुला मास के पावन माह में अवतरित हुए आलवारों/ आचार्यों की दिव्य महिमा का आनंद अनुभव कर रहे है। इस माह के वैभव को जानने के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/thula-masa-anubhavam-hindi/ देखें। जैसा कि कहा जाता है “मधुरेन् समापयेत्” – आइये हम भी इस वर्ष के तुला मास के मधुर अनुभव को इस अंक के साथ समाप्त करें। इस माह के अंत में आकर, अब हम श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की अपार महिमा का संक्षेप में वर्णन करेंगे, मुख्यतः हमारे सत संप्रदाय में उनकी विशेष व्याख्यात्मक रचनाओं के लिए।
आर्ति प्रबंध के 28वे पासूर में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी स्वयं बताते है कि किस प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण संसार के कल्याणार्थ अपना जीवन व्यतीत किया।
भविष्यदाचार्य (श्रीरामानुज स्वामीजी), तिरुवाय्मौली पिल्लै/ श्रीशैलेश स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी
पण्डू पल आरियरुम् पारुलगोर उय्यप् परिवुड़ने चेय्दू अरुलुम् पल्कलैगल् तम्मैक् कंण्डतेल्लाम् एलुदी
अवै कट्रु इरुन्तूम् पिर्रक्कुम् कातलुडन् कर्पित्तुम् कालत्तैक कलित्तेन्
पूण्डरिगै केल्वन् उरै पोन्नुलगु तन्निल् पोग नीनैवु ओंरूमिनरिप् पोरुन्ति इंगे इरुन्तेन्
एण्डिचैयुम् एत्तुम् एतिराचन् अरुलाले एलिल्वीचुम्बे अन्री इप्पोत्तु एन्मनम् एण्णाते
प्रथम 2 पंक्तियों में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बताते है कि उन्होंने, मुस्लिम आक्रमण में लुप्त हो गये सभी पूर्वाचार्य ग्रंथों को खोजा और प्राप्त किया। ये ग्रंथ हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा हम पर अत्यंत कृपा स्वरुप सभी भविष्य की पीढ़ियों के हितार्थ रचित किया गया था। जो भी ग्रंथ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने प्राप्त किये, उसे उन्होंने स्वयं ताड़ के पत्तों पर अभिलिखित किया, अपने आचार्यों (तिरुवाय्मौली पिल्लै/ श्रीशैलेश स्वामीजी, आदि) से उनका अध्ययन किया, उन ग्रंथों में विदित निर्देशानुसार अपना जीवन व्यतीत किया और अपने सभी अनुयायियों को भी सिखाया।
अगली 2 पंक्तियों में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते है कि अपने आचार्य तिरुवाय्मौली पिल्लै/ श्रीशैलेश स्वामीजी की अनुकम्पा प्राप्त कर श्रीरामानुज स्वामीजी के कृपानुग्रहित होने से पूर्व, श्रीवैकुंठ-परमपद गमन की उनकी कोई अभिलाषा नहीं थी, परंतु कृपा प्राप्त करने के पश्चाद एक पल के लिए भी परमपद जाने की अभिलाषा उनके ह्रदय से अलग नहीं हुई।
एक प्रसिद्ध तमिल पासूर, अत्यंत सुंदरता से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के इस दिव्य योगदान की महिमा का वर्णन करता है।
सेट्रुक् कमल वयल सुल अरंगर तम सिर तलैप्प
पोट्रित् तोलुम नल अंदणर वाळ, इप्पुदलत्ते
माट्रट्र सेम्पोन मणवाल मामुनिगल वंदिलने
अट्रिल् करैत्त पुलि अल्लवो तमिल आरणमे
श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी– आलवार तिरुनगरी
शब्दार्थ: इस संसार में, अनेकों महानुभाव श्रीरंगम, जैसे अत्यंत सुंदर दिव्य देश में निवास करनेवाले श्रीरंगनाथ भगवान की स्तुति में संलग्न है, परंतु यदि अतुलनीय और प्राचीन स्वर्ण के समान पवित्र श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अवतार नहीं होता, तो तमिल वेद (तिरुवाय्मौली) उसी प्रकार इस संसार से लुप्त हो जाते, जिस प्रकार नदी में गिरी हुई एक इमली लुप्त हो जाती है अर्थात बड़ी सी नदी के इतने अधिक जलस्तर में उस इमली का कोई प्रभाव नहीं होता। उसी प्रकार यदि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने व्यापक रूप से तिरुवाय्मौली दिव्य प्रबंध की क्षमता और भव्यता का वर्णन नहीं किया होता, तो इस संसार सागर में उसका महत्त्व नहीं होता।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपना जीवन, पूर्ण रूप से हमारे सत-संप्रदाय के विशाल ज्ञानभण्डार को एकत्रित करने में केन्द्रित किया और सभी के हितार्थ उन्होंने उस ज्ञान को अद्भुतरूप से अत्यंत संक्षिप्त रूप में संकलित किया। अब हम उनकी विभिन्न रचनाओं का आनंद लेते है और उनकी विवेकशीलता और कृपा को समझते है।
-संस्कृत ग्रंथ-
- यतिराज विंशति – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, गृहस्थाश्रम में रहते हुए, अपने आचार्य तिरुवाय्मौली पिल्लै के आदेश पर, आलवार तिरुनगरी में भविष्यदाचार्य (श्रीरामानुज स्वामीजी) की सन्निधि में सेवा किया करते थे। उस समय, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने 20 श्लोकों के एक सुंदर प्रबंध की रचना की, जो यतिराज (श्रीरामानुज स्वामीजी) के प्रति उनके प्रेमानुराग को प्रदर्शित करता है। उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणकमलों में अपना सर्वस्व समर्पित किया और श्री रामानुज स्वामीजी के चरण कमल दर्शाने वाले, अपने आचार्य तिरुवाय्मौली पिल्लै की महान कृपा का स्मरण किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी यति-पुनरावतार (श्रीरामानुज स्वामीजी के पुनः अवतार) है। यहाँ एक प्रश्न उत्पन्न होता है – यद्यपि वे स्वयं ही श्रीरामानुज स्वामीजी के पुनारावतार है, तथापि वे उनकी स्तुति क्यों करते है? हमारे पुर्वाचार्य बताते है कि, जिस प्रकार त्रेता युग में स्वयं श्रीराम ने श्रीमन्नारायण भगवान की स्तुति यह दर्शाने के लिए की – कि भगवान की उचित सेवा-आराधना कैसे की जाती है (क्यूंकि हम नहीं जानते कि भगवान की सेवा-आराधना कैसे करनी चाहिए), उसी प्रकार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति अपने दिव्य भाव दर्शाए है जिसके द्वारा हम समझ सके कि श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमलों को कैसे प्राप्त कर सकते है और हमें उनकी सेवा-स्तुति किस प्रकार करना चाहिए।
श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी – भूतपूरी
- देवराज मंगलं – कांचीपुरम की यात्रा के समय, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इस सुंदर प्रबंध की रचना की, जो देव पेरुमाल की दिव्य कृपा को प्रदर्शित करता है। “मंगलाशासन” हमारे सत्-संप्रदाय का उच्चतम सिद्धांत है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अत्यंत सुंदरता से देव पेरुमाल भगवान का मंगलाशासन किया है। उन्होंने देव पेरुमाल भगवान के प्रति तिरुक्कची नम्बि द्वारा किये गए कैंकर्य का स्मरण कराया और आचार्य के माध्यम से भगवान को प्राप्त करने का उचित मार्ग दर्शाया।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, तिरुक्कची नम्बि, देव पेरुमाल
– तमिल प्रबंधन
- उपदेश रत्न माला – पिल्लै लोकाचार्य और उनके “श्रीवचन भूषण” नामक दिव्य ग्रंथ की महिमा का विस्तार करने के लिए, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उपदेश रत्न माला में क्रमानुसार आलवारों के अवतार नक्षत्र/मास, श्रीरामानुज स्वामीजी के विशेष स्थान, श्रीरामानुज स्वामीजी की दिव्य अभिलाषा का वर्णन किया एवं तिरुवाय्मौली के व्याख्यान, ईदू व्याख्यान की यात्रा, नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी की महिमा, पिल्लै लोकाचार्य का दिव्य अवतरण, श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र की महानता को समझाते हुए, उन्होंने श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के सार तत्व, पूर्वाचार्यों के निर्देशों को जस के तस पालन करने और उनका प्रचार करने के महत्त्व को प्रदर्शित किया और अंततः बताया की इस प्रकार अनुसरण करने वाले शिष्य श्रीरामानुज स्वामीजी को अत्यधिक प्रिय है।
पिल्लै लोकाचार्य – श्रीरंगम
- तिरुवाय्मौली नूट्रन्तादि – यह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की अत्यंत सुंदर रचना है। विद्वानों ने इसकी उपमा शहद की मधुरता से की है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी के तिरुवाय्मौली- ईदू व्याख्यान, में पूर्ण रूप से मग्न थे और इसी हेतु वे तिरुवाय्मौली के दिव्य अर्थों का पूर्ण विवेचन करने में समर्थ थे। उनकी इसी निपुणता के कारण, श्रीरंगनाथ भगवान ने श्रीरंगम मंदिर में अपनी सन्निधि के समक्ष श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को ईदु व्याख्यान की सहायता से तिरुवाय्मौली समझाने का निर्देश दिया। पिल्लै लोकम् जीयर ने इस ग्रंथ के लिए अपने व्याख्यान में दर्शाया है कि तिरुवाय्मौली के आकर (1112 पासूर) और उसके सारतत्व को गृहण करने की जटिलता को ध्यान में रखकर, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपापूर्वक इस ग्रंथ की रचना की जो तिरुवाय्मौली के सार को सुगमता से दर्शाता है। उन्होंने तिरुवाय्मौली दिव्य प्रबंध के सभी अद्भुत पक्षों को अत्यंत सुंदरता से प्रदर्शित किया है-
श्रीशठकोप स्वामीजी – आलवार तिरुनगरी
- जिस प्रकार श्री रामानुज स्वामीजी की महिमा के स्मरण के लिए रामानुज नूट्रन्तादि की रचना की गयी थी, उसी प्रकार श्रीशठकोप स्वामीजी की महिमा का स्मरण करने के लिए इस तिरुवाय्मौली नूट्रन्तादि की रचना हुई।
- तिरुवाय्मौली के प्रत्येक दशक (11 पासूरों) को नूट्रन्तादि के एक पासूर के द्वारा समझाया गया है। पासूर उसी शब्द से प्रारंभ और समाप्त होता है, जिस शब्द से वह तिरुवाय्मौली दशक में होता है।
- प्रत्येक पासूर, उस तिरुवाय्मौली दशक में समझाए गए महत्वपूर्ण सिद्धांत को प्रदर्शित करता है। यह नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा उस विशिष्ट दशक के लिए रचित ईदू व्याख्यान के परिचय खंड में प्रदर्शित मुख्य बिन्दुओं के समान ही है।
- प्रत्येक पासूर से श्रीशठकोप स्वामीजी के एक विशेष नाम का बोध होता है जैसे सदगोपन, मारन, कारिमारन, वलुति नाडन, परांकुश, आदि।
- इसे वेणबा छंद के साथ अन्तादी क्रम (एक पासूर का अंत ही दुसरे पासूर का प्रारंभ है) की शैली में रचा गया है – इस प्रकार की छंद रचना करना अत्यंत कठिन है, यद्यपि स्मरण करने और गायन में यह उतनी ही सरल है।
- आर्ति प्रबंधन – इस संसार में अपने अंत समय में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने आर्ति प्रबंध की रचना जो श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति उनके दिव्य मनोभाव का प्रवाह है जहाँ वे उनसे निवेदन करते है कि इस संसार सागर से उन्हें मुक्ति प्रदान करें, और परमपद प्रस्थान की आज्ञा दे। हमारे सत-संप्रदाय में इस प्रबंध का विशेष महत्त्व है क्यूंकि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इस अद्भुत प्रबंध में बहुत से महत्वपूर्ण सिद्धांतों को दर्शाया है। इस प्रबंध के परिचय खंड में पिल्लै लोकम जीयर अत्यंत सुंदरता से बताते है कि “श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने चरम काल (अंतिम दिनों) में रचित चरम (अंतिम) प्रबंध में दर्शाया है कि चरमपर्व निष्ठा (आचार्यचरण ही चरम उपाय) का चरम सिद्धांत ही प्राप्यों में चरमावती है।
श्रीरामानुज स्वामीजी – भूतपूरी
- जीयर पडी तिरुवाराधन क्रम – यह तिरुवाराधन (आराधना) का सरलतम संस्करण है। पञ्चसंस्कार विधि के अवयव के रूप में आचार्य हमें तिरुवाराधन क्रम (अर्चा विग्रह की सेवा) के विषय में बताते है और हम अपने गृह अर्चा भगवान का तिरुवाराधन उसी विधि से करते है। श्रीरामानुज स्वामीजी ने अपने संस्कृत रचना “नित्य ग्रंथ” में तिरुवाराधन क्रम के विषय में समझाया है। क्यूंकि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अवतरण, हमारे संप्रदाय के सभी महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों का प्रदर्शन द्राविड भाषा (तमिल) में करने के लिए हुआ था, उन्होंने तिरुवाराधन क्रम की व्याख्या तमिल में करके हम पर अत्यंत कृपा की।
– व्याख्यान
- ईदू व्याख्यान के लिए प्रमाण तिरत्तु – नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी का ईदू व्याख्यान, हमारे सत-संप्रदाय की अत्यंत बहुमूल्य निधि है। सभी शास्त्रों में अपनी अद्भुत विद्वत्ता के कारण ही, नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी ने अपने व्याख्यान में बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, ने हमारे कल्याण हेतु कृपा कर उन प्रमाणों के स्त्रोत को भी दर्शाया है।
नम्पिल्लै/ श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी की ईदू कालक्षेप गोष्ठी
- पेरियालवार तिरुमौली (के लुप्त खण्डों के लिए) – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की अर्जवं (प्रमाणिकता) अतुलनीय है। पूर्वकाल में पेरियवाच्चान पिल्लै ने पेरियालवार तिरुमौली के लिए एक सम्पूर्ण व्याख्यान की रचना की थी। परंतु दुर्भाग्यवश, उन ताड़ के पत्तों का अधिकांश भाग दीमक की वजह से क्षय हो गया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इस दिव्य प्रबंध के लिए पुनः व्याख्यान की रचना की और जहाँ से पेरियवाच्चान पिल्लै के व्याख्यान उपलब्ध थे, वहां तक पहुँचकर वे रुक गए।
- रामानुज नूट्रन्तादि – इस दिव्य प्रबंध को प्रपन्न गायत्री भी कहा जाता है और श्री रंगनाथ भगवान की दिव्य अभिलाषा से इस ग्रंथ को 4000 दिव्य प्रबंधनों में भी सम्मिलित किया गया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अमुदनार के इस वृहद ग्रंथ का अत्यंत सूक्ष्म वर्णन प्रदान किया और इस प्रबंध में उपस्थित सभी अद्भुत अर्थों को दर्शाया।
- ज्ञान सार और प्रमेय सार – अरूलाल पेरुमाल एम्पेरुमानार (पुर्वाश्रम में यज्ञमूर्ति), श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रिय शिष्य थे। उन्होंने हमारे सत-संप्रदाय के अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांतों जैसे आचार्य अभिमान, भगवान की निर्हेतुक कृपा, आचार्य/भागवत अपचार करने के दुष्प्रभाव, आदि को अपने ज्ञान सार और प्रमेय सार ग्रंथों में प्रदर्शित किया। पिल्लै लोकाचार्य ने बाद में आचार्य परंपरा के माध्यम से प्राप्त इन सिद्धांतों को अपने रहस्य ग्रंथों में विस्तार से समझाया है।
- मुमुक्षुप्पडी –शिष्य को आचार्य से रहस्य त्रय (तिरुमंत्र, द्वय और चरम श्लोक) का ज्ञान प्राप्त होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पिल्लै लोकाचार्य, ने अत्यंत कृपा कर इन सिद्धांतों को यथार्थ शैली में मुमुक्षुप्पडी ग्रंथ में संकलित किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इन सिद्धांतों को अत्यधिक विवरणात्मक शैली में अपने प्रतिष्ठित व्याख्यान में समझाया है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित मुमुक्षुप्पडी के परिचय खंड को https://granthams.koyil.org/2015/11/02/thula-anubhavam-pillai-lokacharyar-mumukshuppadi-hindi/ पर देखा जा सकता है।
- तत्व त्रय – मुमुक्षु (मोक्ष प्राप्त करने का अभिलाषी) के लिए तीन तत्वों का वास्तविक ज्ञान (चित, अचित और ईश्वर) सर्वोच्च महत्त्वपूर्ण है। पिल्लै लोकाचार्य ने इन सिद्धांतों को अपने इस प्रबंध, जिसे कुटी भाष्य (श्रीभाष्य का सूक्ष्म संस्करण) के रूप में सुप्रसिद्ध है, में समझाया है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा विभिन्न प्रमाणों के आधार पर प्रदत्त व्यावहारिक व्याख्यान के अभाव में इस ग्रंथ के गहन अर्थों को समझना अत्यंत दुष्कर था। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित तत्व त्रय के परिचय खंड को https://granthams.koyil.org/2015/11/09/thula-anubhavam-pillai-lokacharyar-tattva-trayam-hindi/ पर देखा जा सकता है। तत्व त्रय की संक्षिप्त और सरल प्रस्तुति को https://granthams.koyil.org/thathva-thrayam-english/ पर देखा जा सकता है।
- श्रीवचन भूषण – आचार्य अभिमान (आचार्य कृपा) हमारे सत-संप्रदाय का सारतम सिद्धांत है। पिल्लै लोकाचार्य ने विभिन्न आलवारों/आचार्यों की श्री सूक्तियों (दिव्य वचनों) के आधार पर इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को विस्तार से समझाया है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इस वैभवशाली प्रबंध के लिए श्रेष्ठतम् और गहन व्याख्यान की रचना की है जिसकी सराहना महान विद्वानों द्वारा की गयी है।
- आचार्य हृदयं – अळगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार् (पिल्लै लोकाचार्य के अनुज भ्राता) ने आचार्य हृदयं (श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य ह्रदय) नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ की रचना उन्होंने पुर्णतः आलवारों की श्रीसूक्तियों के आधार पर की एवं श्रीशठकोप स्वामीजी के यथार्थ मनोभाव का चित्रण किया है। इस ग्रंथ के प्रत्येक शब्द का अत्यंत गहन अर्थ है और यह अमूल्य है। परंतु इन दिव्य अर्थों को सामान्य मनुष्य द्वारा सुगमता से नहीं समझा जा सकता। इस हेतु श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इस अद्भुत प्रबंध के लिए विस्तृत व्याख्यान की रचना की है, जो इस प्रबंध की स्वर्णिम कांती को प्रदर्शित करता है।
पिल्लै लोकाचार्य, अळगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार्, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी
इस भूलोक में अपने अंतिम समय में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी अत्यंत पीड़ा में आचार्य हृदयं पर व्याख्यान की रचना कर रहे थे। जब अण्णन ने उनसे पूछा कि वे स्वयं को इतने अत्यधिक कष्ट क्यों दे रहे है, तब श्रीवरवरमुनी स्वामीजी ने उदारता से उत्तर दिया कि वे यह व्याख्यान अपने पुत्रों और पौत्रों (भविष्य में आनेवाली पीढ़ियों) के लाभ के लिए लिख रहे है। भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के हेतु भी उन्होंने ऐसी कृपा और करुणा की और कृपा कर प्रत्येक प्राणी के लिए कल्याण का मार्ग बताया।
इस लेख में हमने केवल श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की साहित्यिक भूमिका पर ही ध्यान केन्द्रित किया है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का जीवन बहुत से गौरवशाली पक्षों से सुसज्जित है। यह प्रत्येक पक्ष “वाचा मगोचरम्” है अर्थात शब्दों की वर्णन क्षमता के परे है।
तत्रैय उपनिषद में, भगवान के कल्याण गुणों की चर्चा की गयी है। वेद-उपनिषद भगवान के असंख्य गुणों में से एक, आनंद को समझाने का प्रयत्न करते है, परंतु वे उस एक गुण को भी सम्पूर्णता से समझाने में विफल है। उसी प्रकार, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की महिमा भी अगणित है। यह उनकी महिमा की एक झलक के समान है, वह भी दास की सिमित क्षमताओं के साथ।
इस तरह हमने अपने सत-संप्रदाय के लिए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य साहित्यिक भूमिका की झलक मात्र देखी। हम भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी चरण कमलों में प्रणाम करें और उनके कृपा पात्र बने।
-अदियेन भगवती रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2013/11/aippasi-anubhavam-mamunigal/
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