श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका – आचार्य- शिष्य संबंध

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका

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अपने पूर्व अनुच्छेद में हमने देखा कि किस प्रकार पञ्च संसार द्वारा जीव अपनी श्रीवैष्णव यात्रा प्रारंभ करता है। हमने आचार्य और शिष्य संबंध के माध्यम से एक अद्वितीय संबंध के आरंभ को भी देखा। क्यूंकि यह हमारे संप्रदाय का अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष है, आईये अपने पूर्वाचार्यों की श्रीसूक्तियों के द्वारा इस अद्भुत संबंध के विषय में थोडा और समझते है।

आचार्य अर्थात “जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है, और जो स्वयं अपने जीवन में उन शास्त्रों का अनुसरण करते है और दूसरों को अपने उत्कृष्ठ उदाहरण से प्रेरित करते है।” शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि “सन्यासी भी यदि “श्रीविष्णु परत्वं” को स्वीकार नहीं करते है, तब वे चाण्डाल के समान ही है”। इसलिए यह सर्वविदित है कि आचार्य भी श्रीवैष्णव ही होने चाहिए – अर्थात वह जो श्रीमन्नारायण भगवान को ही सर्वेश्वर/ सर्वोत्तम स्वीकार करते है और प्रत्येक क्षण अपने प्रत्येक कार्य के द्वारा उनकी प्रसन्नता की चाहना करते है। हमारे पूर्वाचार्यों ने इस बात पर जोर दिया है कि पञ्च संस्कार में तिरुमंत्र उपदेश (द्वयं और चरम श्लोक भी) प्रदान करने वाले ही हमारे प्रत्यक्ष आचार्य है।

शिष्य, वह जो शिक्षा (सुधार) प्राप्त करता है। अंग्रेजी में इसे प्रायः अनुयायी के रूप में भी प्रयोग किया जाता है – अर्थात वह जिसे अनुशासित करना हो। यहाँ शिष्य स्वयं को आचार्य के सानिध्य में उचित सांचे में ढालते है।

5.1 udayavar-azhwan

उदैयवर (श्रीरामानुज स्वामीजी)– आलवान (श्री कुरेश स्वामीजी)- आदर्श आचार्य और् शिष्य – कूरम

हमारे पूर्वाचार्यों ने आचार्य और शिष्य के गुणों के विषय में अत्यंत विस्तार पूर्वक चर्चा की है। प्रारंभ करने के लिए, शास्त्रों के आधार पर उन्होंने यह स्थापित किया कि आचार्य- शिष्य संबंध पिता- पुत्र संबंध के समान ही है। जिस प्रकार एक पुत्र सदा अपने पिता की सेवा में रहता है, उसी प्रकार शिष्य को भी संपूर्णतः आचार्य के अधीन उनकी सेवा में रहना चाहिए।

भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है “तद विध्धि प्राणीपातेन परि प्रश्नेन् सेवया, उपदेक्षंती ते ज्ञानं ज्ञानिनस तत्व दर्शिन:“। यह आचार्य और शिष्य के गुणों को सुंदरता से विश्लेषित करते है। प्रथम पंक्ति में वे कहते है “हमें विनम्रता से आचार्य के समीप जाना चाहिए, विनम्रता से उनके प्रति कैंकर्य करना चाहिए और अत्यंत ही नम्रतापूर्वक उनसे प्रश्न पूछना चाहिए”। द्वितीय पंक्ति में वे कहते है “आचार्य तुम्हें वह ज्ञान प्रदान करेंगे, क्यूंकि उन्होंने सच्चे तत्व (अर्थात भगवान) को प्राप्त किया है”। आचार्य से अपेक्षित कुछ गुण इस प्रकार है:

  • आचार्यों की उपमा प्रायः श्री महालक्ष्मीजी से की जाती है – उनका प्रमुख उद्देश्य भगवान से पुरुष्कार करना है (अनुशंसा करना जैसा की अम्माजी करती है)।
  • श्रीअम्माजी के ही समान, उन्हें भी यह स्वीकार करना चाहिए कि वे एक मात्र भगवान के ही दास है, वे भगवान को ही उपाय स्वीकार करते है और उनके समस्त कार्य भगवान की प्रसन्नता हेतु ही है।
  • उन्हें कृपा से परिपूर्ण होकर शिष्य को स्वीकार करना चाहिए, उसके आत्म ज्ञान (स्वयं के विषय में ज्ञान) का विकास करके और वैराग्य (विरक्ति) उत्पन्न कराके, शिष्य को भगवत/ भागवत कैंकर्य में लगने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
  • श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की दिव्य श्री सूक्ति के अनुसार, आचार्य को सदा शिष्य के आत्म-रक्षण (आत्मा के उद्धार) के बाबत फिकर करनी चाहिए।
  • पिल्लै लोकाचार्य कहते है “एक आचार्य को स्वयं, शिष्य और परिणाम के विषय में उचित ज्ञान होना आवश्यक है”।
    • उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि वे आचार्य नहीं, वरन उनके आचार्य ही शिष्य के आचार्य है।
      • उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि शिष्य उनके शिष्य नहीं, वरन उनके आचार्य के शिष्य है।
      • उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि इस संबंध का प्रतिफल एक परिपक्व शिष्य का निर्माण करने से है, जो सदा भगवान का मंगलाशासन करे – अन्य कुछ नहीं।
  • जैसा की वार्ता माला ग्रंथ और शिष्टाचार में बताया गया है, आचार्य को अपने शिष्य के प्रति सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहिए – क्यूंकि शिष्य ने शास्त्रों के आधार पर अपने सम्पूर्ण संरक्षण हेतु आचार्य (उनके गुण/ अनुभव का विश्लेषण किये बिना) शरण ली है।
  • हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा यह समझाया गया है कि भगवान को भी आचार्य रूप धारण करना प्रीतिकर है। इसी हेतु उन्होंने हमारी ओराण वालि गुरु परंपरा में प्रथमाचार्य होना स्वीकार किया। भगवान स्वयं अपने हेतु भी एक आचार्य की चाहना करते है – और इसीलिए उन्होंने स्वयं के लिए श्रेष्ठ/ अत्योचित आचार्य अर्थात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को स्वीकार किया।

शिष्य से अपेक्षित कुछ गुण इस प्रकार है:

  • पिल्लै लोकाचार्य कहते है-
      • शिष्य को भगवान और आचार्य के अतिरिक्त सभी अन्य प्रयोजनों से स्वयं को मुक्त करना चाहिए (अर्थात ऐश्वर्य और आत्मानुभव)।
      • शिष्य को सदैव सभी परिस्थितियों में अपने आचार्य की सेवा कैंकर्य के लिए तत्पर रहना चाहिए।
      • इस लौकिक संसार को देखकर शिष्य को मानसिक यंत्रणा का अनुभव करना चाहिए।
      • शिष्य को भगवत विषय और आचार्य कैंकर्य की अभिलाषा सदैव करनी चाहिए।
      • भगवत/ भागवतों की प्रशंसा/ कीर्ति को जानकार शिष्य को ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
    • एक शिष्य को सदा यह ध्यान करना चाहिए कि उसकी सभी संपत्ति आचार्य की है। उसे उस धन संपत्ति में से उतना ही उपयोग करना चाहिए जितना की संसार में देह धारण (जीविका) के लिए आवश्यक है।
    • एक शिष्य को सदा यह सोचना चाहिए कि आचार्य ही मेरे लिए सर्वोपरि है, जैसा की श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी ने आलवन्दार स्तोत्र में “माता पिता युवतय: …” श्लोक में दर्शाया है।
    • शिष्य को अपने आचार्य के जीवन-यापन का ध्यान रखना चाहिए।
    • श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपदेश रत्न माला में समझाते है कि “इस संसार में रहते हुए शिष्य को कदापि अपने आचार्य से दूर नहीं रहना चाहिये”।
    • आचार्य की उपस्थिति में शिष्य को सदा उनका यशगान करना चाहिए और उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के लिए सदा उनके प्रति उपकार स्मृति रखना (ऋणी रहना) चाहिए।

यह भी समझाया गया है कि एक शिष्य के लिए आचार्य का आत्म-रक्षण करना अनुचित है (अर्थात, शिष्य को कभी भी आचार्य को स्वरुप शिक्षा नहीं देनी चाहिए) और आचार्य के लिए शिष्य का देह रक्षण करना अनुचित है (अर्थात, शिष्य को अपेक्षा नहीं करना चाहिए कि आचार्य उसकी आजीविका ध्यान रखे)।

जैसा की पिल्लै लोकाचार्य द्वारा समझाया गया है, शिष्य होना अत्यंत कठिन है (और चाहे हम कितना भी ज्ञान प्राप्त करले, हम उचित शिष्य शिष्टाचार कभी नहीं समझ पाएंगे)। इसी हेतु स्वयं भगवान ने “नर” ऋषि का स्वरुप धारण कर, “नारायण” ऋषि (जो भगवान के अवतार है) के शिष्य होकर उनसे तिरुमंत्र का उपदेश प्राप्त किया और दर्शाया की योग्य शिष्य को कैसा होना चाहिए।

इस भूमिका के साथ, अब हम आगे आचार्यों के विभिन्न वर्गीकरण के विषय में भी जानेंगे।

अनुवृत्ति प्रसन्नाचार्य और कृपा मात्र प्रसन्नाचार्य

अनुवृत्ति प्रसन्नाचार्य

श्रीरामानुज स्वामीजी से पूर्व समय में, आचार्य अपने भावी शिष्यों को स्वीकार करने से पूर्व उनकी श्रद्धा/ समर्पण के स्तर को जांचते थे। उस समय यह प्रचलित था कि भावी शिष्य को स्वीकृति के लिए आचार्य के निवास पर जाकर, वहां रहकर एक वर्ष उनकी सेवा करनी होती थी।

कृपा मात्र प्रसन्नाचार्य

परंतु जब श्रीरामानुज स्वामीजी ने कलियुग का स्वरुप देखा, उन्होंने सोचा यदि आचार्य इस प्रकार होंगे, तब कुछ ही जीवात्माएं लौकिक आसक्तियों को त्यागने के लिए प्रेरित होंगी और बहुत सी जीवात्माएं आचार्य के आदेश को पूरा करने में असमर्थ होंगी। इसीलिए, अपनी अनंत कृपा से, श्रीरामानुज स्वामीजी ने नियमों को सरल किया और इस अमूल्य ज्ञान को उन सभी को प्रदान किया जो सच्ची श्रद्धा से भगवत विषय को सिखने की चाहना करते थे। इस प्रकार शिष्य की इस योग्यता को सुपात्र/ गुणी अधिकारियों से मनोरथ/ चाहना करनेवाले अधिकारियों के लिए परिवर्तित कर दिया गया। उन्होंने अपने शिष्यों को भी इसी नियमावली का अनुसरण करने का निर्देश दिया और अपनी कृपा से कई सहस्त्र जीवात्माओं को श्रीवैष्णव संप्रदाय में संस्कारित किया। श्रीरामानुज स्वामीजी से आरंभ हमारी परंपरा के सभी आचार्य कृपा मात्र प्रसन्नाचार्य कहे जाते है।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, ने अपनी उपदेश रत्न माला में सुंदरता से एक पासुर के द्वारा इस पक्ष को समझाया है “ओराण वलियाई उपदेशीत्तार् मुन्नोर्, एरार् एतिरासर् इन्नरुळाल् पारुलगिल आसै उडैयोर्क्केल्लाम आरियर्गाल कूरूम् एन्रू पेसी वरम्भारुत्तार् पिन”

उत्तारक आचार्य और उपकारक आचार्य

नायनाराच्चान पिल्लै ने अपने चरमोपाय निर्णय में, दो प्रकार के आचार्यों के विषय में बताया है। यह ग्रंथ श्रीरामानुज स्वामीजी के यश को अति स्पष्टता से स्थापित करता है।

उत्तारक आचार्य

उत्तारक आचार्य, हमें संसार से मुक्त कराकर सुगमता से परमपद में स्थान देने में समर्थ है। यह समझाया गया है कि श्रीमन्नारायण भगवान, श्रीशठकोप स्वामीजी और श्रीरामानुज स्वामीजी ही 3 उत्तारक आचार्य है (यह भी विदित है कि एरुम्बी अप्पा, श्रीवरवरमुनि शठकम में स्थापित करते है कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जो यति पुनरवतारम है, उत्तारक आचार्य है)।

  • श्रीमन्नारायण भगवान प्रथमाचार्य है और सर्वज्ञ, सर्वशक्त आदि होने से, वे सुगमता से किसी को भी मोक्ष प्रदान कर सकते है।

srirangan

पेरिय पेरुमाल – श्रीरंगम

  • श्रीशठकोप स्वामीजी, संसारियों को ज्ञान प्रदान करने और उनके सुधार के लिए भगवान द्वारा चयनित थे, जो सभी को मोक्ष प्रदान करने में सक्षम है। यह तिरुवाय्मौली में कहे गए स्वयं उनके वचनों से समझा जा सकता है-“पोन्नुलगू आलिरो, भुवनी मुलुतु आलिरो“। भगवान को भेजे हुए अपने दूत रूप पक्षियों से वे कहते है कि भगवान के सामने उनकी सिफारिश करने पर वे उन्हें नित्य और लीला विभूति दोनों ही संभावना (भत्ते) के रूप में दे देंगे।

5.3Nammazhwar

श्री शठकोप स्वामीजी – आलवार तिरुनगरी

  • श्रीरामानुज स्वामीजी को श्री रंगनाथ भगवान और तिरुवेंकटमुदैयान (श्रीनिवास भगवान-तिरुमला) द्वारा उदैयवर कहा गया है – उभय विभूति के नायक। वे न केवल भगवत अनुभव में मग्न थे, अपितु लीला विभूति में लम्बे समय रहकर (120 वर्ष) भगवान के उद्देश्य पूर्ति के कैंकर्य को भी पूर्ण किया। उन्होंने मंदिर की पूजा-अर्चना विधि को उचित रूप से स्थापित किया, सहस्त्र शिष्यों को संप्रदाय में संस्कारित किया, 74 सिंहासनाधिपतियों को दिव्य सन्देश प्रसारित करने हेतु स्थापित किया।

5.4 ramanujar-sriperumbudhur

श्री रामानुज स्वामीजी – श्री भूतपुरी

भगवान, शास्त्रों के आधार पर जीवात्माओं को उनके कर्म और भावों के अनुसार मोक्ष प्रदान करते है अथवा उन्हें संसार चक्र में बांधे रखते है। इसीलिए, नयनाराच्चान पिल्लै बताते है कि उत्तारकत्वं, श्रीरामानुज स्वामीजी में ही पूर्ण हुआ।

श्रीशठकोप स्वामीजी ने इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद, क्यूंकि वे आलवार थे –थोडा परोपदेश किया परंतु, भगवत अनुभव में मग्न होकर, अपने आर्त स्वरुप से बहुत ही अल्प आयु में संसार का त्याग किया।

श्रीरामानुज स्वामीजी ने अपनी परम कृपा से मोक्ष चाहने वालों को मोक्ष प्रदान किया और उन्हें भगवान की दिव्य सेवा में पहुंचाया।

इस प्रकार, नयनाराच्चान पिल्लै बताते है कि श्रीरामानुज स्वामीजी ने ही उत्तारकत्वं की पूर्ति की।

उपकारक आचार्य

वे ही समर्थ है जो हमें उत्तारक आचार्य तक पहुंचा सकते है। हमारे संप्रदाय में, श्रीरामानुज स्वामीजी की परंपरा में आने वाले सभी आचार्य, हमारे आचार्य पर्यंत उपकारक आचार्यों की श्रेणी में वर्गीकृत होते है। जब भी हम पञ्च संस्कार प्राप्त करते है, हमारे आचार्य अपनी गुरु परंपरा के माध्यम से श्रीरामानुज स्वामीजी से निवेदन करते है कि वे इस जीवात्मा को भगवान के चरणों में अर्पण करें क्यूंकि यह जीव इस संसार को त्यागकर परमपद में भगवान की सेवा करने की चाहना करता है।

उत्तारक आचार्य और उपकारक आचार्य दोनों ही समान रूप से आदरणीय है – यद्यपि श्रीरामानुज स्वामीजी का हमारे संप्रदाय में विशेष स्थान है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपनी उपदेश रत्न माला में श्रीशैलेश स्वामीजी से आरंभ कर श्रीरामानुज स्वामीजी तक उचित दृष्टिकोण को दर्शाने के उद्देश्य से हमें बताते है।

समाश्रयण आचार्य और ज्ञान आचार्य

  • समाश्रयण आचार्य- वह है जो हमें पञ्च संस्कार प्रदान करते है।
  • ज्ञान आचार्य- वह है जिनसे हम ग्रंथ कालक्षेप आदि श्रवण करते है, जिस द्वारा हमारे आत्म ज्ञान का विकास होता है।

यद्यपि हम सदैव अपने समाश्रयण आचार्य के ऋणी है और हमें सदैव उनके चरणों में आश्रित रहना चाहिए, तथापि हमें ज्ञान आचार्य का आदर और सम्मान भी समान रूप से करना चाहिए। कुछ के लिए, समाश्रयण और ज्ञान आचार्य दोनों एक भी हो सकते है। श्रीवचन भूषण के अनुसार, प्रत्येक श्रीवैष्णव का भी अपने आचार्य के समान आदार करना चाहिए।

संक्षिप्त में, एक शिष्य को सदा अपने आचार्य पर पूर्ण रूप से आश्रित रहना चाहिए। उस पर अपने आचार्य जीविका की सम्पूर्ण रूप से देखरेख करने का दायित्व भी है। शिष्य को सदा अपने आचार्य सानिध्य में रहना चाहिए और उनकी सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिए।

हमारे पूर्वाचार्यों के जीवन में आचार्य- शिष्य शिष्टाचार से सम्बंधित अद्भुत दृष्टांत है। उनमें से कुछ हम यहाँ देखते है:

  • श्रीराममिश्र स्वामीजी अपने आचार्य श्रीपुण्डरीकाक्ष स्वामीजी के निवास पर घरेलु परिचारक सेवाएँ किया करते थे।

  • श्रीराममिश्र स्वामीजी ने श्रीयामुनाचार्य/ आलवन्दार को श्रीवैष्णव संप्रदाय में लाने के लिए बहुत प्रयत्न किये।

  • श्रीरामानुज स्वामीजी, श्री कुरेश स्वामीजी के शिष्य होने के उपरान्त भी उनसे अत्यंत आदर से व्यवहार किया करते थे।

  • एक बार जब श्रीरामानुज स्वामीजी, श्री कुरेश स्वामीजी से नाराज हुए, श्री कुरेश स्वामीजी ने कहा, “दास तो आचार्य की संपत्ति है- वे जैसा उचित समझे वैसा करें”।

  • श्री गोविंदाचार्य स्वामीजी, अपने आचार्य शयन पलंग को जांचने के लिए स्वयं पहले उस पर सोकर देखते थे। जब पूछा गया कि यह तो पाप है, तब उन्होंने कहा कि उनके आचार्य के सुख के लिए, पाप करने में भी उन्हें आपत्ति नहीं है।

  • श्रीरामानुज स्वामीजी, अनंताल्वान से कहते है कि पराशर भट्टर मेरे समान ही है और उनका सम्मान भी उसी प्रकार से किया जाना चाहिए।

  • श्री भट्टर और श्री वेदांती स्वामीजी के मध्य का अत्यंत सुंदर वार्तालाप है। श्री वेदांती स्वामीजी सभी कुछ त्यागकर सन्यासी हो गए। एक बार उन्होंने कहा, “यदि मेरा आश्रम धर्म मेरे आचार्य कैंकर्य में बाधा बनेगा, तो मैं अपने त्रिदंड का त्याग करूँगा।”

  • श्री वेदांती स्वामीजी ने श्री कलिवैरिदास स्वामीजी के विचारों को प्रोत्साहित किया यद्यपि कुछ पासुरों के लिए वह व्याख्यान उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान से भिन्न था।

  • पिन्बलगीय पेरुमाल जीयर् कहते है कि वे इस लीला विभूति में सिर्फ अपने आचार्य श्री कलिवैरीदास स्वामीजी के कावेरी स्नान के पश्चाद उनकी पीठ के दर्शन के लिए रहना चाहते है।

  • कुरकुलोत्तम दासर् ने श्री शैलेश स्वामीजी को श्रीवैष्णव संप्रदाय में लाने के लिए बहुत प्रयत्न किये।

  • श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने आचार्य के निर्देशों को अपने जीवन का एक मात्र उद्देश्य बनाया। उन्होंने एक बार श्रीभाष्य सिखा और उस पर व्याख्यान किये परंतु उन्होंने अपने जीवन का शेष समय अरुलिच्चेयल और रहस्य ग्रंथों पर केन्द्रित किया।

  • श्री रंगनाथ भगवान ने श्रीदेवी और भूदेवी के साथ, एक वर्ष तक अपनी सन्निधि के सामने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से ईदू कालक्षेप को श्रवण किया और अपनी आचार्य संभावना के रूप में अपना शेष पर्यंकम उन्हें प्रदान किया और आचार्य को तनियन भेंट की जिसका आज भी अरुलिच्चेयल गोष्ठी के आरंभ और समाप्त में उनके निर्देसानुसार सभी जगह गान किया जाता है।

  • श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने स्वयं अपना आसन, तिरुवालि (चक्र) और तिरुचंगु (शंख) पोन्नादिक्काल जीयर को प्रदान किया और उन्हें अप्पाचियारण्ण को पञ्च संस्कार प्रदान करने के निर्देश दिए।

यह समझाने के लिए कि आचार्य और शिष्य को एक दुसरे से किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, ऐसे और भी बहुत से द्रष्टांत है, परंतु यहाँ उनमें से कुछ ही बताये गए है।

-अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2015/12/simple-guide-to-srivaishnavam-acharya-sishya/

>>श्रृंखला का अगला लेख – https://granthams.koyil.org/2016/04/08/simple-guide-to-srivaishnavam-guru-paramparai-hindi/

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