श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः
श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ यहाँ पर हिन्दी में देख सकते है ।
<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ९
श्रीरामानुज स्वामीजी शास्त्र का तत्व लाये – दिव्य देशों में विराजमान भगवान का कैंकर्य
नित्य कर्मानुष्ठान
४१) अनुष्ठान विरोधी – नित्य दैनिक क्रियाओं में बाधाएं
अनुवादक टिप्पणी: बाधाएं जानने से पहिले इस विषय पर विस्तार पूर्वक विश्लेषण करेंगे। इस विषय मे क्या करे और क्या न करे इसपर बहुत भ्रांतियां है।
- अपने अनुष्ठान में बहुत से पहलु है। हम सम्प्रदाय के तत्त्वों के प्रति कैसा आचरण करें यहाँ यही मूल केंद्र है।
- यानि कर्म और कैंकर्य के मध्य में मतभेद समझना। जबकी कर्म सामान्य धर्म है जिसे पालन करना जरूरी है और कैंकर्य विशेष धर्म है जो सामान्य धर्म से भी अधिक मुख्य है।
- कर्म तीन प्रकार के है
- नित्य कर्म – नित्य दैनिक क्रियाओं जैसे संध्या वंदन आदि
- नैमित्तीक कर्म – सामयिक कार्य जैसे तर्पण आदि
- काम्य कर्म – कार्य जो सांसारिक लाभ के लिये किया जाता है।
- कैंकर्य तीन प्रकार के है
- भगवद कैंकर्य – भगवान के प्रति सेवा (नित्य और नैमीतिक कर्म भगवान के कैंकर्य का एक भाग है जो भगवान स्वयं हमें यह करने की आज्ञा करते है)।
- भागवत कैंकर्य – भगवतों के प्रति कैंकर्य
- आचार्य कैंकर्य – अपने स्वयं के आचार्य के प्रति कैंकर्य
- यह तत्व हमारे समझने के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। वर्णाश्रम धर्म का त्याग कोई भी कभी भी नहीं कर सकता है। मुमुक्षुपड्डी के २७० और २७१ सूत्र में यह पक्ष बहुत अच्छी तरह समझाया गया है – अवतारिका २७० में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते है “कर्म, ज्ञान, भक्ति योग का कोई स्वरूप त्याग नहीं है” (जिसका अर्थ वह केवल उपाय बुद्धि त्याग है – यानि कर्म करना चाहिये परन्तु वह भगवान को पाने का उपाय नहीं होना चाहिये परंतु कैकर्य स्वरूप होना चाहिए) – हमें भगवान को प्रसन्न करके कुछ पाने हेतु कोई उपाय नहीं करना चाहिए। सभी नित्य (प्रति दिन संध्या वंदन आदि) और नैमित्तीक (तर्पण आदि) कर्म कैंकर्य समझकर करना चाहिये। यह अगले सूत्र में दर्शाया गया है “कर्मं कैंकर्यत्तिले पुगुम …” (कर्म कैंकर्य में आता है) – श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अतिरिक्त अन्य कौन इसे भली प्रकार से समझा सकता है?
- परन्तु कब यह सामान्य कैंकर्य अप्रधान बन जाता हैं? अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार के आचार्य हृदय के ३१वें चूर्णिका के व्याख्यान में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते है – “अत्ताणि चेवगत्तिल पोधुवानाथू नलुवूम।” श्रीवरवरमुनि स्वामीजी व्याख्या में यह समझाते है कि हम भगवद/भागवत कैंकर्य में लगे रहे, सामान्य कैंकर्य तो बाद में या छोड़ा भी जा सकता है।
- आजकल यह देखा जा सकता है कि कई श्रीवैष्णव बुनियादी अनुष्ठान भी नहीं करते है यह कहते है कि “यह श्रीवैष्णवों के लिये जरूरी नहीं है”।
- परन्तु हमारे पूर्वाचार्यों ने यह स्पष्ट रूप से वर्णन किया है कि सामान्य कैंकर्य करना जरूरी है और वह स्वयं बिना चूके इसका पालन करते थे – क्योंकि वे शास्त्र का कठोरता से पालन करते थे। केवल जब भगवद कैंकर्य में मतभेद होता था तो वे सामान्य कैंकर्य को अस्थाई रूप से त्याग कर देते थे।
- ६००० पदी गुरु परम्परा प्रभावम में बताया गया है कि श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी से यह प्रश्न पूचा गया कि हम क्यों नित्य / नैमितिक कर्म करते है, जबकी हम अन्य देवताओं कि पुजा नहीं करते है। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी अच्छी तरह यह समझाते है कि नित्य / नैमितिक कर्म वैधिक अनुष्ठान का एक भाग है, जो वेद का एक अंग है इसलिये हम इसे करते है।
- पेरियावाच्चन पिल्लै “परन्त रहस्य चरम श्लोक प्रकरण” में यह समझाते है “नम्माचार्यर्गल इवर्रै अनुष्ठीप्पारुम अनुष्ठीयातारुमाय् पोरुगिरतु” – हमारे कुछ आचार्य ने यह दिखाया है कि वर्णाश्रम का कर्तव्य पालन करना चाहिये और कुछ ने यह बताया है कि वर्णाश्रम का कर्तव्य टाला जा सकता है। इस उदाहरण के साथ हम इसे समझ सकते है: १२० बीस साल की उम्र होने पर भी श्रीरामानुज स्वामीजी संध्या वंदन करते थे और खड़े होकर अर्घ्य देते थे। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी संध्या वंदन को छोड़ भगवान श्रीरंगनाथ की पंखी सेवा करते थे। अत: सामान्य कैंकर्य का तत्व इस पर आधारीत है कि हम भगवद / भागवत कैंकर्य कर रहे है कि नहीं।
- यह पक्ष श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी ने श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में समझाया है और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने सूत्र २७६ से २७८ तक में बहुत सुन्दर तरिके से समझाया है।
- सुत्रं २७६ – कैंकर्य दो प्रकार के है।
- सुत्रं २७७ – चाहनेवाला कार्य करना और न चाहनेवाला कार्य से बचना यह दो प्रकार है।
- सुत्रं २७८ – चाहनेवाला और न चाहनेवाला कार्य वर्णाश्रम धर्म और आत्म स्वरूप पर निर्भर है। सभी पहलू को जाँचकर इस छोटे से सूत्र के लिये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एक बड़ा और व्यापक व्याख्यान लिखते है। वह इस तत्व को दूसरे तरिके से समझाते है और अन्त में कहते है “अगर वर्णाश्रण धर्म का त्याग करना जरूरी माना जाता है, तो वह प्रत्यक्ष में भगवान (और अम्माजी) कि इच्छा का विरोध करना है। इसलिये इसे उचित नहीं समझा जा सकता है”। इसलिये वह कहते है कि दूसरों के प्रति करुणा भाव से वर्णाश्रम धर्म का पालन करना उचित है। ताकि सभी को इसका पालन करके लाभ प्राप्त हो।
- अन्त: में यह देखा गया है कि हमारे पूर्वाचार्य पूर्णत: शास्त्र के नियम अनुसार जीवन व्यतित किये है और नित्य और नैमित्तीक कैंकर्य को किये और वे कभी भी काम्य कर्म में नहीं लगे – यह कर्म सांसारिक लाभ के लिये किया जाता है। नित्य और नैमितिक कर्म करना जरूरी है – इसे नहीं करना, शास्त्रों में अमान्य है। परन्तु काम्य कर्म वैकल्पिक है।
- इसलिये हमें अपने पूर्वाचार्य के पदचिह्नों पर चलना चाहिये और उनके बताये अनुसार मूल तत्व को अपनाना चाहिये।
इस विषय में हम अब बाधा देखेंगे।
- ऐसी दिनचर्या का पालन करना जो भगवद, भागवत और आचार्य कैंकर्य के अंतर्गत नहीं आती है। यह ३ हमारे स्वरूप के लिये स्वाभाविक है। इन ३ कैंकर्य को छोड़ दूसरा कुछ भी करना बाधा है।
- उपर बताये ३ कैंकर्यों में हमें यह विचार नहीं करना चाहिये कि केवल भगवद कैंकर्य हीं स्वाभाविक है और अन्य दो अर्थात आचार्य और भागवत कैंकर्य अतिरिक्त है। जैसे भगवद कैंकर्य स्वाभाविक है, आचार्य कैंकर्य भी स्वाभाविक है। प्रणवम में यह समझाया गया है कि जीवात्मा स्वाभाविक रूप से भगवान की दास है। क्योंकि आचार्य और भागवत, भगवान को प्रिय है, इसीलिए उनका कैंकर्य करना भी जीवात्मा के लिये स्वाभाविक है। अनुवादक टिप्पणी: पेरिय तिरुमौली में श्रीपरकाल स्वामीजी स्वयं तिरुमन्त्र का तत्व भगवान को सुनाते है जैसे “नीन तिरुवेट्टेलुत्तुम कट्रू नान उट्रूतुम उन्नादियार्क्कदीमै कण्णपुर्त्तुरैयम्माने” – तिरुक्कण्णापुरम के प्रिय भगवान! तिरुमन्त्र का तत्व सिखने के पश्चात मैंने यह समझा कि मैं आपके भक्तों का दास हूँ। इससे यह समझना सरल है कि आचार्य और भागवतों का दास बनना यह मुख्य सिद्धान्त है और यह भगवान का दास बनने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- अन्रुसमस्यम – अनुकम्पा (दया)। लोक संग्रहं – संसार का कल्याण (शास्त्र का पालन करके)। श्रीवैष्णवों द्वारा सामान्य कैंकर्य (बुनियादी वर्णाश्रम धर्म) अन्रुसम्स्यार्थ (साधारण मनुष्यों के प्रति करुणा भाव से) पालन किया जाता है और यह लोक संग्रहार्त्थं नहीं है (संसार के कल्याण हेतु शास्त्र के तत्व का निर्वाह करना)। श्रीभगवद्गीता के ३.२२ में भगवान कृष्ण कहते है कि उनके लिये कोई नियत कार्य नहीं है फिर भी अपने अनेक अवतारों के समय वह शास्त्रानुसार उसका पालन करते है। अनुवादक टिप्पणी: उसके पिछले श्लोक में ३.२१ में भगवान कहते है कि समाज में जो भी बड़े महान जन करते है सामान्य जन उसी राह पर चलते है। इसीलिये हमारे पूर्वाचार्य अपनी अनुकम्पा से सामान्य कैंकर्य का पालन करते थे। अन्रुसमस्यम और लोक संग्रहं के मध्य सूक्ष्म भेद उनके उद्देश और भाव है। इसे करुणा भाव से करना (यानि यह भगवान कि इच्छा है और वर्णाश्रम धर्म कि आज्ञा जो इस सांसारिक दुनिया के लिये जरूरी है और मार्गदर्शक को इसका पालन करना चाहिये ताकि दूसरे जन उनकी राह में चल सके और आध्यात्मिक में प्रगति कर सके) और इसके विपरीत मार्गदर्शक के लिये करना (अहंकार का रंग कि मैं इसे पूरी अच्छी तरह से कर रहा हूँ और बाकि सब इसी राह पर चले और कामयाब हो)।
- करुणा स्वरुप किया गया कोई भी कार्य जो जीवात्मा के स्वरुप अनुरूप नहीं है, वह कैंकर्य का एक हिस्सा नहीं हो सकता है। उसे कैंकर्य का एक भाग समझना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जीवात्मा का सच्चा स्वभाव भगवद भागवतों कि निर्हेतुक सेवा करना है – इसके सिवा करुणा भाव से कुछ भी करना (शास्त्र के विशेष समत्ती के सिवा) वह कैंकर्य नहीं समझा जाएगा।
- अगर भगवान हमारे सामने है तो (जैसे सवारी में या सन्निधि में इकट्ठा होना) हमें सामान्य धर्म (जैसे संध्या वंदन आदि) करने के लिए अपनी उपस्थिती का त्याग नहीं करना चाहिए, दूसरों के प्रति अपनी करुणा भाव को दर्शाते हुए। केवल भगवान के अपनीसन्निधि में जाने के पश्चात हमें अपने दिनचर्या में लगना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: यह परम संहिता में समझाया गया है “येन येनदाता गच्छति तेन तेन सह गच्छति ” – जब भी परम परमेश्वर जायेंगे उनके शिष्य (यहाँ पर मुक्तात्मा) पीछे जायेंगे। यह भट्टर स्वामीजी के चरित्र से समझ सकते है जिसका प्रमाण पहिले भी दे चुके है। एक बार जब वे श्री रामानुज स्वामीजी को पंखी कर रहे थे और संध्या वंदन का वक्त हो गया, एक श्री वैष्णव ने भट्टर स्वामीजी को यह याद कराया। भट्टर स्वामीजी ने उत्तर दिया “अगर मैं श्री रामानुज स्वामीजी के प्रत्यक्ष सेवा कार्य के लिए इस वक्त संध्या वंदन को छोड़ दूँ, चित्र गुप्त (धर्म राज यम के सहायक) इसकी पाप में गिनती नहीं करेंगे।” यह कहा जाता है की जब श्री रामानुज स्वामीजी सवारी के लिये बाहर जाते थे सभी उनकी सुरक्षा हेतु साथ रहते और उनकी सन्निधि में वापस आने तक उनके साथ ही रहते थे। इसीलिए हमारे पूर्वचार्यों का कहना है की जब हम कैंकर्य मे व्यस्त हो तब कर्म अनुष्ठान विलम्ब से कर सकते है।
- जब श्रीवैष्णव जन भगवान के दिव्य गुणों का अनुभव या उसकी चर्चा कर रहे हो तो हमें संध्या वन्दन आदि करना है यह कहकर उस गोष्ठी को मध्य में छोड़ कर नहीं जान चाहिये। यद्यपि इस कार्य को दूसरों के लिए करुणा भाव से किया गया है तथापि यह कार्य वह भगवत/भागवत के अनुभव की कीमत चुकाकर नहीं कर सकते।
- प्रपन्नों के लिये केवल भगवान ही उपाय है। इसलिये सभी कार्य करते समय हमें वह उपाय समझकर नहीं परंतु कैंकर्य समझकर करना चाहिये। उस कैंकर्य को बिना कोई आशा से करना चाहिये और जीवात्मा के लिये यह स्वाभाविक है। इसमे शामिल है:
- ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करना (तिरुमण / श्रीचूर्ण)
- तीर्थ, प्रसाद आदि को ग्रहण करना
- भगवान के श्रीचरणों का प्रक्षालन करना (तिरुवाराधन का एक भाग)
- दिव्य प्रबन्ध पाशुरों का गान करना
- दिया लगाना (मन्दिर में, तिरुमाली में, भगवान कि सन्निधी में आदि)
- पुष्प माला बनाकर भगवान को अर्पण करना
- बगीचे में भगवद कैंकर्य के लिये पुष्प लगाना।
- श्रीवैष्णवों की सेवा करना।
- दिव्य प्रबन्ध, रहस्य ग्रन्थ को सिखना और सिखाना।
- जिसे हमारे पूर्वाचार्य ने कभी नहीं किया उस कार्य को करना बाधा है। तिरुप्पावै में श्रीगोदाम्बाजी कहती है “चेय्यातन चेय्योम”।
- कैंकर्य कोई कारण हेतु नहीं करना चाहिये उसे तो केवल भगवान के आनन्द के लिये करना चाहिये।
- हमें भगवान के आनन्द के लिये कैंकर्य करना चाहिये नाकि स्वयं की खुशी के लिये। सहस्त्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी यह घोषणा करते है “तनक्केयाग एनैक कोल्लुम इदे” – कृपया आप मुझे अपने कार्य के लिये, आपके आनन्द के लिये उपयोग करें (मैं आपके आनन्द को छोड़ और कोई कार्य नहीं करना चाहता हूँ)। श्रीलक्ष्मणजी भगवान राम और माता सीता को कहते हैं कि मुझे उस कार्य कि आज्ञा करें, जिससे आपको आनन्द प्राप्त होता हो। श्रीगोदाम्बाजी तिरुप्पावै के अन्त में इसी की प्रार्थना करती है “मट्रै नम् कामंगल माट्रु”।
- अत: हमने भगवान के आनन्द को ही अपना एक मात्र लक्ष्य समझ कर सभी कैंकर्य करने के महत्त्व को देखा । यह भी देखा कि कैसे बिना कोई आशा से हमें कैंकर्य करना चाहिये जो श्रीवैष्णवों के लिये स्वाभाविक है।
-अडियेन केशव रामानुज दासन्
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